वह भाषा के ईश्वर हैं
इब्बार रब्बी
30 दिसम्बर 2025
विनोद कुमार शुक्ल ने जैसी कविता लिखी है, वैसी किसी और ने नहीं लिखी है। यहाँ मुक्तिबोध की बात करें तो उनकी नक़ल संभव नहीं है। उनके समकालीन आलोचक तो उन्हें समझ ही नहीं पाए, क्योंकि वह बहुत अलग कवि थे। शमशेर बहादुर सिंह ने ही उन्हें समझा। विनोद कुमार शुक्ल के यहाँ भी यही चीज़ है, वह भी मुक्तिबोध की तरह ही परंपरा और रवायतों से अलग अपनी राह के कवि हैं। हमारी आलोचना पद्धतियाँ पुरानी हैं, इसलिए आलोचना जो बहुत हद तक अभी मुक्तिबोध तक ही पहुँची है, विनोद कुमार शुक्ल को रूपवादी, कलावादी और न जाने क्या-क्या कहती रहती है। यहाँ यह देखने वाली बात है कि इसके बावजूद सृजनात्मक लोग विनोद कुमार शुक्ल को हाथों-हाथ लेते हैं।
विनोद कुमार शुक्ल के यहाँ बिल्कुल नई चीज़ें हैं और ये हिंदी की परंपरागत आलोचना से नहीं सँभलतीं। पुराने मानदंडों से उनका मूल्यांकन करना मुमकिन ही नहीं है। मैं मुक्तिबोध से उनकी कोई तुलना नहीं कर रहा हूँ, मगर यह संयोग ही है कि वह मुक्तिबोध-मंडल में थे। यह सच है कि मुक्तिबोध के बाद उन्होंने एक बड़ा काम किया है और हिंदी कविता और गद्य को एक नए शिखर तक पहुँचाया है।
विनोद कुमार शुक्ल को किसी विषय की ज़रूरत नहीं है। रचना उनके भीतर से प्रकट होती है। वह सदा अपने में ही रहते हैं और यह चीज़ उन्हें बड़ा कृतिकार बनाती है। वह भाषा से जो जादू रचते हैं, इससे जो खेल करते हैं, वह उनकी रचना को बनाता है। उनके यहाँ भाषा का जो खिलवाड़ है, वह उनसे पहले जैनेंद्र के यहाँ मिलता है, लेकिन विनोद कुमार शुक्ल में यह जैनेंद्र से बहुत आगे की चीज़ है। यह बहुत सृजनात्मक है। यहाँ सारी रचना खेल पर टिकी है—भाषा के खेल पर। जैनेंद्र के यहाँ भाषा के ऊँटपटाँगपन से केवल बात में फ़ोर्स पैदा होता है। विनोद कुमार शुक्ल के यहाँ इससे नए विचार आते हैं, कुछ नया सूझता है।
भाषा से खिलवाड़ की जैनेंद्र में केवल शुरुआत है—बीज है। वह केवल बुनियाद हैं। इसका पूर्ण विकास और पल्लवन विनोद कुमार शुक्ल में है। जैनेंद्र के यहाँ आरंभ है, इसलिए भाषा बहुत महत्त्वपूर्ण फ़र्क़ नहीं डालती। उनके यहाँ तो रचना इस खेल के बग़ैर भी संभव है; क्योंकि उनका कथ्य अलग रहता है, लेकिन विनोद कुमार शुक्ल के यहाँ इस खेल के बग़ैर रचना संभव ही नहीं है। खिलवाड़ ही उनका कथ्य बन जाता है। सामाजिकता, राजनीति और विचार सब यहीं से आते हैं। वह कथ्य को पैदा करता है। उसे विकसित करता है। रचना को विविधतापूर्ण बनाता है। विनोद कुमार शुक्ल से पहले हिंदी में ऐसा कभी नहीं हुआ। उनके यहाँ भाषा से रचना पैदा होती है। भाषा का खेल उनकी शैली ही नहीं, उनके साहित्य का यानी गद्य का मुख्य चरित्र भी है।
विनोद कुमार शुक्ल शताब्दियों पुरानी भाषा का पुनराविष्कार करते हैं। आज से हज़ारों वर्ष पूर्व जब पहली बार भाषा बनी होगी, जब पहली बार किसी ने शब्दों को उनकी अस्मिता और अर्थ दिए होंगे। यह काम जो हमें मिली भाषा के जन्म से पहले हुआ होगा, उसे विनोद वह पुनः नए सिरे से करते हैं। वह एक आदिम लेखक की भूमिका निभाते हैं। वह पुरानी भाषा को नया करते हैं। वह उसे अपना बनाकर लिखते हैं। वह उसका पुनः आविष्कार करते हैं। वह भाषा में भाषा के द्वारा ब्रह्मा की तरह एक नई सृष्टि रचते हैं। वह मात्र रचनाकार नहीं, भाषा के ईश्वर हैं।
विनोद कुमार शुक्ल में बच्चों जैसी खेल-भावना है। नाटकीयता है। बच्चों से अधिक नाटकीय और कुछ नहीं होता। वह हर समय खेलते रहते हैं। किसी खिलौने के बिना भी। उन्हें गेंद-बल्ला कुछ भी नहीं चाहिए, कोई साथी भी नहीं—वह अकेले भी खेलते हैं। मुँह बनाकर, दीवार को देखकर, फूल-पत्ती को देखकर। इस तरह ही विनोद कुमार शुक्ल को भी कुछ नहीं चाहिए। वह स्वयं ही काफ़ी हैं। उनमें सारा समाज, सारी सृष्टि, सारा विश्व बोलता है। इसलिए उनके यहाँ अलगाव नहीं है, अकेलापन नहीं है।
यह अनायास नहीं है कि विनोद कुमार शुक्ल का एक उपन्यास बाल पत्रिका ‘चकमक’ में छपा और दूसरा भी। जो लेखक आलोचकों और बुद्धिजीवियों के लिए एक पहेली बना हुआ है, वह बच्चों के लिए लिख रहा है—यह है पूरा चक्र। यहाँ आकर एक साइकिल पूरी होती है।
विनोद कुमार शुक्ल की एक कविता है—‘बिन डूबी धरती’। भाषा के खेल के बिना यह कविता कविता ही नहीं होती। वाक्य-रचना और शब्दों का खेल यहाँ देखिए :
बिन डूबी धरती जहाँ समाप्त होती है
वहाँ एक डूबी हुई धरती शुरू होती है
शास्त्रीय ढंग का आलोचक कहेगा कि इस रचना में यह दोष है—एक ही बात दुबारा कही गई है। दोहराव है। पहली पंक्ति में जो कहा गया उसे ही दूसरी पंक्ति में विपरीत ढंग से कह दिया गया है, इस कारण यहाँ भाषा का दोष है। लेकिन ऐसा नहीं है, यह दोहराव ही रचना संभव करता है। व्याकरण-सम्मत नहीं होना ही विनोद कुमार शुक्ल की रचना को संभव करता है। इन पंक्तियों में देखें तो कितना बड़ा दर्शन है। कबीर, रहीम, तुलसी आदि के दोहों की तरह ये पंक्तियाँ कैसे एक व्यापक जीवन-सत्य को इतनी गंभीरता और गहनता के साथ प्रकट करती हैं। जहाँ आदि है, वहीं अंत है। जहाँ समाप्ति है, वहीं शुरुआत है। जहाँ डूब है, वहीं निकास है। जहाँ धरती है, वहीं समुद्र है। हर चीज़ परस्पर जुड़ी हुई है। कुछ भी दूर-दूर नहीं है। मृत्यु और जीवन एक साथ हैं— बहुत पतली रेखा है दोनों के बीच। कितना बड़ा जीवन-दर्शन दो पंक्तियों में कवि कह गया है। यह पूरी कविता भाषा के खेल पर टिकी हुई है। डूबने पर बिना डूबने पर। धरती डूबी है और नहीं डूबी है। यहाँ अनेक क्रियाओं के काम केवल इस ‘डूब’ से संभव होते हैं। यहाँ अगर यह खेल न होगा तब विनोद कुमार शुक्ल की कविता भी नहीं होगी।
विनोद कुमार शुक्ल के यहाँ विरोधाभासों और द्वंद्व से कविताएँ संभव होती हैं। इस प्रसंग में हिंदी-कविता के पहले रीतिमुक्त कवि घनानंद याद आते हैं। घनानंद रीतिकालीन होने के बावजूद स्वच्छंद काव्य-धारा के कवि थे। वह स्वच्छंद प्रेम के कवि थे। छायावाद के बीज उनमें मौजूद हैं। हिंदी कविता में अलग-अलग ढंग से छायावाद के माध्यम से जो चीज़ें आईं, वे कहाँ से आईं—यह घनानंद में देखा जा सकता है। घनानंद के यहाँ विरोधी वस्तुओं से कविता संभव होती है :
अति सूधो सनेह को मारग है,
जहाँ नैक सयानप बाँक नहीं।
तुम कौन धौं पाटी पड़े हो लला,
मन लेहू पै देहू छटाँक नहीं।
यहाँ श्लेष अलंकार है। ‘मन’ के यहाँ दो अर्थ हैं। एक मन का प्रकट आशय मन से है और दूसरे मन से आशय वज़न से है। यहाँ व्यापार की बात हो रही है कि ले तो मन (40 सेर) भर रहे हो और बदले में देते छटाँक भर भी नहीं। मुक्त प्रेम के कवि घनानंद की कविता विरोधी तत्त्वों से बनी हुई है। विनोद कुमार शुक्ल के यहाँ भी बहुत बार विरोधी तत्त्वों से कविता कैसे बनती है, यह यहाँ देखा जा सकता है :
याद करने से मालूम पड़ता है
कि कितना भूल गया
…
मुझे दिखने के लिए वह छिपी है
…
तब प्राचीन होना नया था
…
फिर चुपचाप की प्रतिध्वनि
चुपचाप ही
याद करना और भूलना, दिखना और छिपना, प्राचीन होना और नया होना, चुपचाप और प्रतिध्वनि... विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं में ऐसे कई विरोधाभासी मौलिक तत्त्व हैं। ये उनकी शैली से उत्पन्न होते हैं। दो विरोधाभासी चीज़ों को एक साथ ले आइए, वहाँ कविता संभव हो जाती है। इस पर कल्पना का अद्भुत विस्तार है। विनोद कुमार शुक्ल की रेंज उनकी कविताओं को व्यापक बनाती है। वह परंपराविहीन नहीं है, उनकी कविताओं में परंपरा भी बोलती है, लेकिन हमारी आलोचना इतनी निरीह है कि उसमें इतनी सामर्थ्य नहीं कि वह इसे पहचान सके।
अंत में इन पंक्तियों में और देखिए कि विनोद कुमार शुक्ल कैसे विरोधाभास से एक अद्भुत कविता संभव करते हैं। यहाँ कल्पना की उड़ान भी ग़ज़ब की है :
एक छोटा-सा हरा तोता
(गोया आकाश से
एक हरा अंकुर ही फूटा है।)
तोते में भी प्राण हैं, अंकुर में भी प्राण हैं। अंकुर फूटता है ज़मीन में और तोता उड़ रहा है आकाश में। तोता भी हरा है और अंकुर भी। आकाश से विनोद कुमार शुक्ल पृथ्वी का काम लेते हैं और अंकुर के माध्यम से जीवन की संभावनाओं को प्रकट करते हैं। अंकुर ज़मीन में फूटता है, तोता पौधे की तरह आकाश में फूट रहा है। दो विरोधी बातों से कविता फूट रही है, कल्पना के आकाश में अंकुर की तरह...
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यहाँ प्रस्तुत आलेख ‘पाखी’ [अक्टूबर 2013, विनोद कुमार शुक्ल पर एकाग्र] से साभार है। विकुशुयोग के अंतर्गत प्रकाशित अन्य लेख यहाँ पढ़िए : ‘नहीं होने’ में क्या देखते हैं | हिंदी का अपना पहला ‘नेटिव जीनियस’ | सामान्य जीवन-प्रसंगों का कहानीकार | इसे ‘विनोदकुमारशुक्लपन’ कहूँगा | कितना बहुत है पर... | विडंबना, विस्मय और वक्तव्य | प्रत्यक्ष पृथ्वी की चाहना
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