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इसे ‘विनोदकुमारशुक्लपन’ कहूँगा

यह एक विरल संयोग है कि विनोद कुमार शुक्ल जितने बड़े कवि हैं, उतने ही बड़े कथाकार भी हैं। यह बात हिंदी के बहुत कम लेखकों में है। यदि मैं हिंदी की परंपरा में उन्हें देखूँ तो यह बहुत विशाल है—यह काम इतिहासकारों और आलोचकों का है। लेकिन मुझे लगता है कि विनोद कुमार शुक्ल अपनी परंपरा स्वयं निर्मित करने वाले रचनाकार हैं। वह चली आ रही परंपरा को छोड़कर अपनी एक अलग लीक बनाते हैं। इस अर्थ में देखें तो वह बहुत मौलिक रचनाकार हैं।

विनोद कुमार शुक्ल की कविताएँ पहले प्रकाशित हुईं, उनका गद्य बाद में आया। मुझे जहाँ तक याद आता है—साठ के दशक में उनकी कविताएँ पहली बार कहीं प्रकाशित हुईं। मुक्तिबोध जैसे बड़े रचनाकार ने उनकी प्रतिभा को पहचाना। विनोद कुमार शुक्ल इकलौते ऐसे रचनाकार हैं जो मुक्तिबोध की प्रेरणा से हिंदी साहित्य में आए। मुक्तिबोध के कहने पर ही ‘कृति’ पत्रिका के संपादक श्रीकांत वर्मा ने उनकी प्रारंभिक कविताएँ छापी थीं। वे कविताएँ मुझे आज तक याद हैं। उन कविताओं को पढ़कर ही मैं यह जान गया था कि विनोद कुमार शुक्ल अपने ढंग की भाषा रखने वाले एक विलक्षण कवि हैं।

विनोद कुमार शुक्ल की प्रयोगशीलता को मैं देशज प्रयोगशीलता कहूँगा। यह प्रयोगशीलता बाक़ी प्रयोगवादी कवियों से इस अर्थ में अलग है, क्योंकि इसमें एक देशज ठाठ मिलता है। वह भाषा को तोड़कर संवेदना के धरातल पर पुनः एक नए संयोजन में रचते हैं। वह उसे नया करते हैं। हिंदी में विनोद कुमार शुक्ल से पहले काव्य-भाषा के साथ यह व्यवहार केवल निराला और शमशेर ने ही बरता है। भाषा के साथ एक रचनात्मक छेड़छाड़ करते हुए उसे एक नया स्वरूप देना, यह चीज़ विनोद कुमार शुक्ल के यहाँ मिलती है।

भवानी प्रसाद मिश्र ने एक बहुत प्रसिद्ध बात कही थी—जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख। लेकिन विनोद कुमार शुक्ल इसके उलट जाकर उस तरह भाषा को नहीं लिखते जिस तरह वह बोली जाती है, बल्कि उस तरह लिखते हैं जिस तरह वह उसे लिखना चाहते हैं। वह वैसा ही लिखते हैं, जैसा संवेदना के स्तर पर अनुभव करते हैं। वह अपनी लीक स्वयं बनाते हैं।

एक और बात जो मुझे विनोद कुमार शुक्ल के संदर्भ में बहुत महत्त्वपूर्ण लगती है, वह यह है कि उनके यहाँ आदिवासी जीवन और क्षेत्र से प्रत्यक्ष जुड़ाव, उससे जुड़े हुए अनुभव, दृश्य, बिंब और जीवंत पात्र अपनी पूरी संवेदना के साथ भाषा की एक नई भंगिमा में मिलते हैं। यह ज़मीन हिंदी में किसी के पास नहीं है, यदि है तो उसका सृजनात्मक इस्तेमाल मैं नहीं देख पा रहा हूँ। उपन्यासों में अगर हो तो हो, लेकिन कविता में यह नहीं है।

विनोद कुमार शुक्ल एक बहुत विवेकशील और जागरूक रचनाकार हैं। वह बाहरी विचारधारा के आतंक में रचने वाले लेखक नहीं हैं। वह अपने अंदर के विचार-स्रोत के माध्यम से लिखते हैं। उनके उपन्यासों और उनकी कविता के बीच जो आवाजाही है—इसकी पड़ताल अभी होनी बाक़ी है। मानवीय अनुभूति का जो धरातल उनके यहाँ मिलता है, वह उनकी अपनी सृजनात्मक खोज है। यहाँ कह सकते हैं कि विनोद कुमार शुक्ल की अनुभूति की बनावट और उसके काव्यात्मक-व्यवहार में एक ख़ास तरह का ‘विनोदकुमारशुक्लपन’ मिलता है। इससे उनकी एक अलग पहचान बनती है। वह मूलतः अनुभवमूलक रचनाकार हैं। वह अनुभवों को ही विचार-बिंदु तक ले जाते हैं। मैंने उनकी गुजरात दंगों पर लिखी कविताएँ पढ़ी हैं, ये अलग ढंग से अनूठी हैं। यह अनूठापन उनके नए संग्रह की कई छोटी कविताओं में भी मिलता है। 

विनोद कुमार शुक्ल के यहाँ मज़दूरों से लेकर शिशुओं और दाम्पत्य-प्रेम पर भी कविताएँ देखी जा सकती हैं। इधर उनकी कविताओं में एक और नया धरातल दिखता है, जिसे मैं पड़ोसी भाव कहूँगा... यह शायद पहली बार उनके यहाँ ही मिलता है। विनोद कुमार शुक्ल अपने परिवेश के रचनाकार हैं। इस परिवेश को पढ़कर पाठक इससे अनुभूति और जीवन के स्तर पर जुड़ता है, उसमें इस परिवेश को और अधिक जानने की इच्छा पैदा होती है। विनोद कुमार शुक्ल इस तरह ही सबसे अलग दिखाई पड़ते हैं। मुझे याद आता है कि जब मैंने उनका उपन्यास ‘नौकर की क़मीज़’ पढ़ा था, तब उस परिवेश को देखने की इच्छा मेरे भीतर पैदा हुई थी। कुछ दिन बाद जब मैं रायपुर गया और उनके पुराने घर और उसके आस-पास के पूरे माहौल को देखा तो मुझे उस कृति को समझने में और मदद मिली थी। अपने आसन्न परिवेश के साथ ऐसा जुड़ाव विरल है। इसके साथ ही उनके लेखन में एक हल्का-सा परिहास-बोध भी मिलता है, जो उनके आशय को और गहराई के साथ संप्रेषित करता और गंभीरता के मिथक को भी बीच-बीच में तोड़ता चलता है।

विनोद कुमार शुक्ल के पूरे रचनात्मक व्यक्तित्व में यह जो एक हल्की-सी; लेकिन गहरी कौतुक-वृत्ति है, यह उनके गद्य और कविता दोनों में समानांतर दिखाई पड़ती है। कुल-मिलाकर मुझे उनका लेखन गहरे स्तर पर आश्वस्त करता है। यह कम लोगों के बारे में ही कहा जा सकता है।

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यहाँ प्रस्तुत आलेख ‘पाखी’ [अक्टूबर 2013, विनोद कुमार शुक्ल पर एकाग्र] से साभार है। विकुशुयोग के अंतर्गत प्रकाशित अन्य लेख यहाँ पढ़िए : ‘नहीं होने’ में क्या देखते हैं | हिंदी का अपना पहला ‘नेटिव जीनियस’ | सामान्य जीवन-प्रसंगों का कहानीकार

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