हरिशंकर परसाई के उद्धरण
बेइज़्ज़ती में अगर दूसरे को भी शामिल कर लो तो आधी इज़्ज़त बच जाती है।
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सारी दुनिया ग़लत है। सिर्फ़ मैं सही हूँ, यह अहसास बहुत दुख देता है।
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पागलपन को गर्वपूर्वक वहन करना है तो उसे किसी दर्शन का आधार अवश्य चाहिए।
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अच्छा भोजन करने के बाद मैं अक्सर मानवतावादी हो जाता हूँ।
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मैंने ऐसे आदमी देखे हैं, जिनमें किसी ने अपनी आत्मा कुत्ते में रख दी है, किसी ने सूअर में। अब तो जानवरों ने भी यह विद्या सीख ली है और कुछ कुत्ते और सूअर अपनी आत्मा किसी आदमी में रख देते हैं।
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अद्भुत सहनशीलता है इस देश के आदमी में! और बड़ी भयावह तटस्थता! कोई उसे पीटकर पैसे छीन ले, तो वह दान का मंत्र पढ़ने लगता है।
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एक पीढ़ी अपना लाभ देखकर आगामी सब पीढ़ियों का भविष्य बिगाड़ने की क्रिया में लगी है।
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जो प्रेमपत्र में मूर्खतापूर्ण बातें न लिखे, उसका प्रेम कच्चा है, उस पर विश्वास नहीं करना चाहिए। पत्र जिनता मूर्खतापूर्ण हो, उतना ही गहरा प्रेम समझना चाहिए।
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पता नहीं यह परंपरा कैसी चली कि भक्त का मूर्ख होना ज़रूरी है।
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इस देश में लड़की के दिल में जाना हो, तो माँ-बाप के दिल की राह से जाना होता है।
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जो पानी छानकर पीते हैं, वे आदमी का ख़ून बिना छना पी जाते हैं।
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सत्य की खोज कई लोगों के लिए ऐयाशी है। यह ग़रीब आदमी की हैसियत के बाहर है।
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जूते खा गए—अज़ब मुहावरा है। जूते तो मारे जाते हैं। वे खाए कैसे जाते है? मगर भारतवासी इतना भुखमरा है कि जूते भी खा सकता है।
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रोटी खाने से ही कोई मोटा नहीं होता, चंदा या घूस खाने से होता है। बेईमानी के पैसे में ही पौष्टिक तत्त्व बचे हैं।
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नशे के मामले में हम बहुत ऊँचे हैं। दो नशे ख़ास हैं—हीनता का नशा और उच्चता का नशा, जो बारी-बारी से चढ़ते रहते हैं।
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इस क़ौम की आधी ताक़त लड़कियों की शादी करने में जा रही है। पाव ताक़त छिपाने में जा रही है—शराब पीकर छिपाने में, प्रेम करके छिपाने में, घूस लेकर छिपाने में...बची हुई पाव ताक़त से देश का निर्माण हो रहा है तो जितना हो रहा है, बहुत हो रहा है। आख़िर एक चैथाई ताक़त से कितना होगा।
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शासन का घूँसा किसी बड़ी और पुष्ट पीठ पर उठता तो है, पर न जाने किस चमत्कार से बड़ी पीठ खिसक जाती है और किसी दुर्बल पीठ पर घूँसा पड़ जाता है।
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कॉन्फ्रेंस ‘‘शब्द’’ ‘‘सम्मेलन’’ से लगभग 10 गुना गरिमा वाला होता है, क्योंकि सम्मेलन छोटे पढ़ाने वालों का होता है और ‘‘सेमिनार तथा कॉन्फ्रेंस’’ बड़े पढ़ाने वालों का।
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दुनिया के पगले शुद्ध पगले होते है—भारत के पगले आध्यात्मिक होते हैं।
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इज़्ज़तदार आदमी ऊँचे झाड़ की ऊँची टहनी पर दूसरे के बनाए घोंसले में अंडे देता है।
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प्रतिभा पर थोड़ी गोंद तो होनी चाहिए। किसी को चिपकाने के लिए कोई पास से गोंद थोड़े ही ख़र्च करेगा।
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गिरे हुए आदमी की उत्साहवर्धक भाषण देने की अपेक्षा सहारे के लिए हाथ देना चाहिए।
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छोटा आदमी हमेशा भीड़ से कतराता है। एक तो उसे अपने वैशिष्ट्य के लोप हो जाने का डर बना रहता है, दूसरे कुचल जाने का।
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मित्रता की सच्ची परीक्षा संकट में नहीं उत्कर्ष में होती है। जो मित्र के उत्कर्ष को बर्दाश्त कर सके, वही सच्चा मित्र होता है।
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अगर दो साईकिल सवार सड़क पर एक-दूसरे से टकराकर गिर पड़ें तो उनके लिए यह लाज़िमी हो जाता है कि वे उठकर सबसे पहिले लड़ें फिर धूल झाड़े। यह पद्धती इतनी मान्यता प्राप्त कर चुकी है कि गिरकर न लड़ने वाला साईकिल सवार बुजदिल माना जाता है, क्षमाशील संत नहीं।
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यह कितना बड़ा झूठ है कि कोई राज्य दंगे के कारण अंतर्राष्ट्रीय ख़्याति पाए, लेकिन झाँकी सजाए लघु उद्योगों की। दंगे से अच्छा गृह-उद्योग तो इस देश में दूसरा है नहीं।
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इस देश के युवको को प्रेम पर मरना भी तो नहीं आता। प्रेम में मरेंगे तो घिनापन से। मरते किसी और कारण से है, मगर सोचते है कि प्रेम पर मर रहे हैं।
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वास्तव में—मालिक का दर्जा ईश्वर के पास ही है। ईश्वर ने सृष्टि रची, बनाई, आकाश बनाया लेकिन मकान नहीं बनाए। मनुष्य पृथ्वी पर खुले आकाश के नीचे तो रह नहीं सकता था। तब मकान मालिकों ने मनुष्यों के रहने के लिए मकान बनाए। जो किराए के लिए मकान बनवाते हैं, वे ईश्वर के समान ही पूज्य हैं। पर इस बात को बहुत कम किरायेदार समझते है।
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आदमी को समझने के लिए सामने से नहीं, कोण से देखना चाहिए। आदमी कोण से ही समझ में आता है।
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एम.ए. करने से नौकरी मिलने तक जो काम किया जाता है, उसे रिसर्च कहते हैं।
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नारी मन से ख़ुब प्यार करके भी, ऊपर से निरपेक्ष भाव बनाए रख सकती है। यह छल नहीं है, उसकी प्रकृति है।
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इनकमटैक्स-विभाग के ईमानदार और शिक्षा-विभाग के ईमानदार में फ़र्क़ होता है- गो ईमानदार दोनों है।
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हर लड़का बाप से आगे बढ़ना चाहता है। जब वह देखता है कि चतुराई में यह आगे नहीं बढ़ सकता तो बेवकूफ़ी में आगे बढ़ जाता है।
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मेरी आत्मा बड़ी सुलझी हुई बात कह देती है कभी-कभी। अच्छी आत्मा ‘फ़ोल्डिंग’ कुर्सी की तरह होनी चाहिए। ज़रूरत पड़ी तब फैलाकर उस पर बैठ गए; नहीं तो मोड़कर कोने में टिका दिया।
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कुत्ते भी रोटी के लिए झगड़ते हैं, पर एक के मुँह में रोटी पहुँच जाए जो झगड़ा ख़त्म हो जाता है। आदमी में ऐसा नहीं होता।
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गाँधी जी ने खादी का धोती-कुर्ता पहनकर और नेहरू ने जाकेट पहनकर कई पीढ़ियों के लिए मुख्य अथिति की बनावट तय कर दी थी।
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पिजड़े में बंद परिंदे, आज़ाद पक्षी को घायल होते देखकर बड़े प्रसन्न होते हैं, क्योंकि उनकी घुटन से उत्पन्न हीनता की भावना को शांति मिलती है।
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere