बुद्धि जो कि अलिप्त, निर्मम, स्व-पर-निरपेक्ष कही जाती है, उसी के क्षेत्र में इतनी आत्म-केंद्रिता का विकास—पूँजीवादी समाज की विशेषता है। फिर साहित्य और कला का क्या कहना।
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पूँजीवाद एक बार सुप्रतिष्ठित हो जाने पर सांस्कृतिक क्षेत्र में सबसे पहले कविता पर हमला करता है।
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पूँजीवाद कवियों को वह विश्व-दृष्टि और विश्व-स्वप्न रखने ही नहीं देता कि जो दृष्टि या जो स्वप्न, जीवन-जगत् की व्याख्या और उसकी विकासमान प्रक्रिया के आभ्यंतरीकरण से उत्पन्न होता है।
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