
जो मनुष्य यह मेरा और वह तेरा मानता है, वह अनासक्त नहीं हो सकता।

कुश्ती का उद्देश्य सुरुचिपूर्ण स्पर्धा ही होनी चाहिए, निर्दयता का प्रसार नहीं। जिसके शरीर में बल है और पास में मल्लशास्त्र का ज्ञान है वह आवश्यकता पड़ने पर शत्रु को परास्त कर सकता है और दुष्ट को दंड दे सकता है परंतु अखाड़े में प्रतिस्पर्धी के हाथ-पाँव तोड़ना कदापि श्लाघ्य नहीं है।

महानता के लिए अपनी प्रतिद्वंद्विता के द्वारा संपूर्ण युग को विभक्त कर देने वाले प्रतिद्वंद्वियों के बीच की बातों को ठीक कर देना भावी पीढ़ियों का ही विशेष अधिकार है।

अल्प बौद्धिक क्षमता के लोग प्रतियोगिता के भय से आक्रांत रहते हैं जैसे बौने सड़क पर कुचले जाने के भय से।

ईर्ष्या व्यक्तिगत होती है और स्पर्द्धा वस्तुगत।