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सुंदरदास

1596 - 1689 | दौसा, राजस्थान

दादूदयाल के प्रमुख शिष्यों में से एक। अद्वैत वेदांती और संत कवियों में सबसे शिक्षित कवि।

दादूदयाल के प्रमुख शिष्यों में से एक। अद्वैत वेदांती और संत कवियों में सबसे शिक्षित कवि।

सुंदरदास के दोहे

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सुंदर मन मृग रसिक है, नाद सुनै जब कांन।

हलै चलै नहिं ठौर तें, रहौ कि निकसौ प्रांन॥

सुन्दर मन मृग रसिक है, नाद सुनै जब कान।

हलै चलै नहिं ठौर तें, रहौ कि निकसौ प्रांन॥

सुंदर बिरहनि अति दुखी, पीव मिलन की चाह।

निस दिन बैठी अनमनी, नैननि नीर प्रबाह॥

बहुत छिपावै आप कौं, मुझे जांगै कोइ।

सुंदर छाना क्यौं रहै, जग में जाहर होइ॥

सुमिरन तें श्रीपति मिलै, सुमिरन तें सुखसार।

सुमिरन तें परिश्रम बिना, सुन्दर उतरै पार॥

सुंदर दुर्जन सारिषा, दुखदाई नहिं और।

स्वर्ग मृत्यु पाताल हम, देखे सब ही ठौर॥

मन ही बडौ कपूत है, मन ही महा सपूत।

सुन्दर जौ मन थिर रहै, तौ मन ही अबधूत॥

जो कोउ मारै बान भरि, सुंदर कछु दुख नांहिं।

दुर्जन मारै बचन सौं, सालतु है उर मांहिं॥

देह आप करि मांनिया, महा अज्ञ मतिमंद।

सुंदर निकसै छीलकै, जबहिं उचेरे कंद॥

दिस-दिस तें बादल उठे, बोलत चातक मोर।

सुन्दर चक्रित बिरहनी, चित्त रहै नहि ठौर॥

सद्गुरु भ्राता नृपति कै, बेड़ी काटै आइ।

निगहबांन देखत रहैं, सुन्दर देहि छुड़ाइ॥

यौं मति जानै बावरे, काल लगावै बेर।

सुंदर सब ही देखतें, होइ राख की ढेर॥

राम नाम शंकर कह्यौ, गौरी कौं उपदेस।

सुंदर ताही राम कौं, सदा जपतु है सेस॥

चंच संवारी जिनि प्रभू, चूंन देइगो आंनि।

सुंदर तूं विश्वास गहि, छांडि आपनी बांनि॥

कल परत पल एक हूँ, छाडे साँस उसाँस।

सुंदर जागी ख़्वाब सौं, देख तौ पिय पास॥

छपन कोटि आज्ञा करैं, मेघ पृथी पर आइ।

सुन्दर भेजैं रामजी, तहं-तहं वरषै जाइ॥

सुन्दर मैली देह यह, निर्मल करी जाइ।

बहुत भांति करि धोइ तूं, अठसठि तीरथ न्हाइ॥

सुंदर ग़ाफ़िल क्यौं फिरै, साबधान किन होय।

जम जौरा तकि मारि है, घरी पहरि मैं तोय॥

सुन्दर अविनाशी सदा, निराकार निहसंग।

देह बिनश्वर देखिये, होइ पटक मैं भंग॥

मेरै मंदिर माल धन, मेरौ सकल कुटुंब।

सुंदर ज्यौं को त्यौं रहै, काल दियौ जब बंब॥

सुन्दर माया मोह तजि, भजिये आतम राम।

ये संगी दिन चारि कै, सुत दारा धन धाम॥

सुंदर सद्गुरु शब्द का, ब्यौरि बताया भेद।

सुरझाया भ्रम जाल ते, उरझाया था बेद॥

दया करहु अब रामजी, आवौ मेरै भौंन।

सुन्दर भागै दुःख सब, बिरह जाइ करि गौंन॥

संत मुक्त के पौरिया, तिनसौं करिये प्यार।

कूंची उनकै हाथ है, सुन्दर खोलहिं द्वार॥

सुन्दर पक्षी वृक्ष पर, लियौ बसेरा आनि।

राति रहे दिन उठि गये, त्यौं कुटंब सब जानि॥

सुन्दर गर्व कहा करै, देह महा दुर्गंध।

ता महिं तूं फूल्यौ फिरै, संमुझि देखि सठ अंध॥

सुन्दर ताला शब्द का, सद्गुरु खोल्या आइ।

भिन्न-भिन्न संमुझाय करि, दीया अर्थ बताइ॥

सुन्दर तूं तौ एकरस, तोहि कहौं समुझाइ।

घटै बढै आवै रहै, देह बिनसि करि जाइ॥

मेरी मेरी करत है, तोकौं सुद्धि सार।

काल अचानक मारि है, सुंदर लगै बार॥

चमक-दमक सब मिटि गई, जीव गयौ जब आप।

सुंदर खाली कंचुकी, नीकसि भागौ सांप॥

राम नाम तिहुं लोक मैं, भवसागर की नाव।

सद्गुरु खेवट बांह दे, सुंदर बेगो आव॥

राम हि भज्यौ कबीरजी, राम भज्यौ रैदास।

सोझा पीपा राम भजि, सुन्दर हृदय प्रकास॥

सुन्दर बंध्या देह सौं, कबहु छूटा भाजि।

और कियौ सनमंध अब, भई कोढ मैं खाजि॥

बेद नृपति की बंदि मैं, आइ परे सब लोइ।

निहगबांन पंडित भये, क्यों करि निकसै कोइ॥

सुन्दर बंधै देह सौं, तौ यह देह निषिद्धि।

जौ याकी ममता तजै, तौ याही मैं सिद्धि॥

सुन्दर समझि विचार करि, तेरौ इनमैं कौंन।

आपु-आपु कौं जाहिगें, सुत दारा करि गौंन॥

गोरखधंधा लोह मैं, कड़ी लोह ता मांहि।

सुन्दर जाने ब्रह्म मैं, ब्रह्म जगत द्वै नांहि॥

करै करावै रामजी, सुन्दर सब घट माँहिं।

ज्यौं दर्पन प्रतिबिंब है, लिपै-छिपै कछु नाँहिं॥

सुन्दर अति अज्ञान नर, समुंझत नहीं लगार।

जिनहि लडावै लाड़ तूं, ते ठोकि हैं कपार॥

सुन्दर हरि कै भजन तें, संत भये सब पार।

भवसागर नवका बिना, बूडत है संसार॥

आयें हर्ष ऊपजै, गयें शोक नहिं होइ।

सुन्दर ऐसै संतजन, कोटिनु मध्ये कोइ॥

भजन किये भगवंत बसि, डोली जन की लार।

सुंदर जैसे गाय कौं, बच्छा सौं अति प्यार॥

सुंदर प्रभुजी देत हैं, पाहन मैं पहुंचाइ।

तूं अब क्यौं भूखौ रहै, काहे कौं बिललाइ॥

सुन्दर सद्गुरु हैं सही, सुन्दर सिक्षा दीन्ह।

सुन्दर बचन सुनाइ कै, सुन्दर सुन्दर कीन्ह॥

पाथर से भारी भई, कौन चलावै जाहि।

सुंदर सो कतहुं गयौ, लीयें फिरतौ ताहि॥

सुन्दर दोऊ दल जुरै, अरु बाजै सहनाइ।

सूरा कै मुख श्री चढै, काइर दे फिसकाइ॥

गुरु शिष्य हि उपदेश दे, यह गुरु शिष व्यवहार।

शब्द सुनत संशय मिटै, सुन्दर सद्गुरु सार॥

एकानन चतुराननं, पंचानन षटगीस।

दश सहस्त्रानन कहि थके, सुन्दर गुन जगदीस॥

सुंदर सद्गुरु सारिषा, उपकारी नहि कोइ।

देष तीनों लोक मैं सरि, भरि कछू होइ॥

पल मैं कछुव देखिये, सुद्ध रहै आकाश।

सुन्दर समरथ रामजी, उतपति करै रु नाश॥

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