मलयज के उद्धरण

आलोचना आधुनिक काल की ज़रूरत है। जहाँ से आदमी अपने को कंफ्रंट करता है, अपने को संबोधित करता है।
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सुरक्षा बचने में नहीं है। सुरक्षा कहीं नहीं है। सुरक्षा एक गए युग का मुहावरा है—तुम्हारी ज़ुबान पर अब यह अजनबी लगता है।
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संबंधित विषय : जीवन
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मानव-संपर्क व्यक्ति की सबसे बड़ी शक्ति है, जो मानव-संपर्क से हीन है वह डरा हुआ है, डरा हुआ रहेगा।
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संबंधित विषय : मनुष्य
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…और लिखना सारे विश्लेषण के बाद एक रहस्यमय क्रिया है, एक रहस्य का चमत्कार, ऐसा जो बिना आहूत सहसा प्रकट होता है और चकित कर देता है।
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संबंधित विषय : साहित्य
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मेरे लिए तो अप्रकाशित से ही अप्रकाशित पैदा होगा। मैं ‘सादी स्लेट’ लेकर नहीं चल सकता।
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अब तक का मेरा सब कुछ अगर प्रकाशित हो गया तो फिर मेरे पास सादे काग़ज़ के लिए बचेगा क्या? सादे काग़ज़ की चुनौती जितनी मेरे प्रकाशित से है, उतनी ही अप्रकाशित से।
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संबंधित विषय : साहित्य
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हर आदमी अपनी परछाईं का ग़ुलाम है। अपने प्रतिबिंब का मातहत, अपनी ‘इमेज’ का शिकार। अपने को पाने के लिए इस ‘इमेज’ को तोड़ना होगा। एक जगह रहकर प्रतिष्ठा बढ़ाना नहीं, टूटना है, ताकि तत्वों का नया समवाय क़ायम हो।
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संबंधित विषय : जीवन
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दर्द कभी-कभी मुक्ति का साधन बन जाता है, तनाव से स्वतंत्रता का…
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औरतें जब वैनिटी का प्रदर्शन करने लगती हैं, तब कितनी मूर्ख लगने लगती हैं।
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भावना का तर्क दुनिया के कुटिल जटिल तर्क को नहीं समझता भावना में जीने वाला व्यक्ति इस कुटिल तर्क को, इस यथार्थ को महसूस करता है, देखता भी है, पर वह हमेशा उसके हाथ से छूट जाता है।
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रिक्तता को औपचारिकता से भरना, रिक्तता को विद्रूप करना है।
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संबंधित विषय : अनुपस्थिति
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नंगे यथार्थ को ठंडेपन से ही ग्रहण किया जा सकता है, भावना से नहीं।
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काश, मैं पेड़ होता तो मेरे कहे-सुने को कोई समझ न सकता। होशियार आदमियों के बीच एक पेड़—लोग अपनी फ़ितरत में खोए-खोए मेरे पास से गुज़र जाते, मैं अपने में अपनी अस्मिता के साथ नई-नई कोंपलें, पत्ते, फूल, फल रचता हुआ—आसमान के नीलेपन में खिंचा खड़ा रहता।
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संबंधित विषय : जीवन
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जो कुछ व्यवस्था के विरोध में है, उसके बारे में पढ़ना हमारी समकालीन मानसिकता का अनिवार्य अंग बन चुका है।
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मैं कन्फ्यूज्ड हूँ, कुछ समझ में नहीं आता। अधिक सोच नहीं पाता। दिमाग़ उड़ने लगता है। चीज़ें बेतरह जटिल और उलझी हुई लगती हैं। कई मोर्चे हैं, कोई भी नहीं सँभल रहा। मैं सिर्फ़ उन्हें टालता जा रहा हूँ। घर के लोग बहुत उदार हैं जो मुझे सहन कर रहे हैं। मैं बिल्कुल नालायक़ हूँ। मैंने दिया कुछ नहीं, सिर्फ़ लिया ही लिया…
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कविता का जो नया अंदाज़—भाषा का नया तेवर—अक्सर देखता हूँ तो यही लगता है कि उसमें कवि अपने कथ्य के साथ आत्मीय नहीं है, वह कथ्य के भीतर नहीं है बल्कि उसे बाहर से देख रहा है।
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तथ्य के ख़ून के निशान जब सूख कर ज़र्द पड़ जाएँगे तब, तब मैं ख़ून के बारे में लिखूँगा।
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संबंधित विषय : ख़ून
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डर का शमन मनुष्यों के पास जाने में है, उनके चेहरे पढ़ने में!
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संबंधित विषय : डर
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लेखन की ईमानदारी क्या है? मुझे क्यों ईमानदारी का ख़याल रह-रहकर आ रहा है? मैं किसके सामने ईमानदार होना चाहता हूँ? इन कोरे पृष्ठों के सामने? हाँ। कोरा पृष्ठ चश्मदीद गवाह है, मेरे लिखे हुए का, मेरे लिखे हुए के पहले और मेरे लिखे हुए के बाद का।
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शुरू में मुझे हर चीज़, छोटी से छोटी चीज़ जटिल उलझी हुई दिखाई देती है और इससे मैं घबरा जाता हूँ, नर्वस हो जाता हूँ।
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आलोचना आधुनिक काल की ज़रूरत है। जहाँ से आदमी अपने को कन्फ्रंट करता है, अपने को संबोधित करता है।
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हम उम्र के एक ऐसे सख़्त जमे हुए शिखर पर हैं, जहाँ से अगर पिघले भी तो नीचे बहना मुश्किल है—हम कौन? नीचे उतरना और बहना। पर चेहरे पर पहाड़ की ऊँचाई और कठोर चट्टानें जो माथे पर फ़िक्र की शिकनें बनकर धूप में चमकती हैं।
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सब ऋतुओं में वर्षा ही एक ऐसी ऋतु है जिसमें गति है—जो अपना एहसास अपनी गति से कराती है : हवा, उड़ते मेघ, झूमते पेड़, बहता पानी, भागते लोग…
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संबंधित विषय : वर्षा
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ग्रहण करना यानी उसकी अनिवार्यता के तर्क को समझना, उसे कोई रियायत देना नहीं, बस वह क्यों है इसे समझना…।
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…जो मुझ पर घट रहा है वह कोई दूसरा लिखता तो अच्छा रहता। जो घट रहा है वह अभी स्मृति नहीं बना है। स्मृति में जो चीज़ चली जाती है उसे पकड़ना आसान है, साक्ष्य है। मैं अपने आपसे मुक्त नहीं हूँ। मैं बीच में हूँ, शब्द किनारे पर।
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जो भी जिस समय भावना में जिएगा, भुगतेगा। लोग उसे अपना शिकार बनाएँगे।
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मैं तो कहूँगा कि प्रकाशित और अप्रकाशित का औसत एक और तीन का होना चाहिए—यह आदर्श है। सब कुछ लिखकर छपा लेना ‘आइसबर्ग’ के उस तीन-चौथाई रहस्य से अपने को वंचित कर देना है।
मैं तो कहूँगा कि प्रकाशित और अप्रकाशित का औसत एक और तीन का होना चाहिए—यह आदर्श है। सब कुछ लिखकर छपा लेना ‘आइसबर्ग’ के उस तीन-चौथाई रहस्य से अपने को वंचित कर देना है।
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