Jeevan Singh's Photo'

जीवन सिंह

1947 | भरतपुर, राजस्थान

सुपरिचित आलोचक। अनुवादक और संपादक के रूप भी सक्रिय। समय-समय पर काव्य-लेखन भी। जनवादी लेखक संघ से संबद्ध।

सुपरिचित आलोचक। अनुवादक और संपादक के रूप भी सक्रिय। समय-समय पर काव्य-लेखन भी। जनवादी लेखक संघ से संबद्ध।

जीवन सिंह के दोहे

20
Favorite

श्रेणीबद्ध करें

जब आँखों से देख ली

गंगा तिरती लाश।

भीतर भीतर डिग गया

जन जन का विश्वास॥

कोविड में बहरा हुआ

अंधा बीच बज़ार।

शमशानों में ढूँढ़ता

कहाँ गई सरकार॥

तूने आकर खोल दी

एक विचित्र दुकान।

दो चीज़ें ही आँख में

चिता और श्मशान॥

पहले अंधा एक था

अब अंधों की फ़ौज।

राम नाम के घाट पर

मौज मौज ही मौज॥

पानी जैसी ज़िंदगी

बनकर उड़ती भाप।

गंगा मैया हो कहीं

तो कर देना माफ़॥

खाल खींचकर भुस भरा

और निचोड़े हाड़।

राजा जी ने देश के

ख़ूब लड़ाए लाड़॥

मौत मौत ही मौत घर

मौत मौत ही मौत।

आँधी आई मौत की

आए राजा नौत॥

राग मृत्यु की भैरवी

नाचत दे दे ताल।

संग राजा जी नाचते

पहन मुंड की माल॥

अफ़सर बैठे घरों में

नेता भी घर बंद।

कोरोना ही फिर रहा

सड़कों पर स्वच्छंद॥

गंगा जल को लाश घर

बना गया वह कौन?

पूछा तो बोला नहीं

अजब रहस्यमय मौन॥

राजा गए शिकार को

लिए दुनाली साथ।

सुनकर सिंह दहाड़ को

लौटे ख़ाली हाथ॥

अणिमा गरिमा शक्तियाँ

सब कुछ तेरे पास।

कोरोना के सामने

एटम बम भी घास॥

सचमुच सदा ग़रीब ही

ढोता ज़िंदा लाश।

उसके ही शव देखकर

गंगा हुई उदास॥

कानों से सुनता नहीं,

आँखों दिखे राह।

मनुज जाति में दैत्य-सा,

होता तानाशाह॥

जनता ने राजा चुना

नया बनाया तंत्र।

बाँबी में तू हाथ दे

मैं पढ़ता हूँ मंत्र॥

चिता धधकती नदी तट

व्यक्ति हुआ असहाय।

सखा स्वजन संवेदना

दूर खड़े निरुपाय॥

कितना कितना कर दिया,

कितना विकट विकास।

लाश लाश पर घाट हैं,

घाट घाट पर लाश॥

दोहे लिखकर के करूँ

क्या मैं भी गंगोज।

मन की गंगा बह रही

दोहे बनते रोज़॥

पीत वर्ण तन पूर्णता

जैसे खिला उजास।

अमलतास तुझको कभी

देखा नहीं हताश॥

बाबा बाबा! अगर

होता ना विज्ञान।

बस्ती होती बहुत कम

होते अधिक मसान॥

कोविड का घंटा बजा

आकर तेरे द्वार।

कौन सँभालेगा तुझे

यहाँ सभी बीमार॥

कोरोना रोना हुआ

चलता हिंसक चाल।

उस पर हिंसक आदमी

भारी मचा वबाल॥

दूध धुला मैं भी नहीं

निर्मल सलिल तड़ाग।

हर कोई संसार में

थोड़ा थोड़ा घाघ॥

'जीवन' लिखना बंद कर

लिखने से क्या होय।

बाहर से हँसता दिखे

भीतर भीतर रोए॥

घटते-मिटते-सिमटते

जग से लोग शरीफ़।

कभी-कभी दोहा करे

झूठी भी तारीफ़॥

'जीवन' जोड़े खड़ा था

जब ग़रीब निज हाथ।

पीते देखा था तुम्हें

ताक़तवर के साथ॥

'मन की बात' मनुष्य को

करती रही तबाह।

मन ने ही पैदा किए

कितने तानाशाह॥

रो रोकर आँसू भरे

हुई पोखरे कीच।

देखा उसमें झाँककर

भीतर बैठा रीछ॥

धरती का मग छोड़कर

चला व्योम के पंथ।

प्राण गँवाए खोजते

मिले प्रियवर कंत॥

मृत्यु नदी का कर दिया

कितना चौड़ा पाट।

जो भी जीवन घाट था

बना मौत का घाट॥

काले धंधे में लगा

काला ख़ुद बाज़ार।

क्या सफ़ेद रंग का कहीं

देखा कारोबार॥

नया समय मानव नया

नई नई पहचान।

नए समय का आदमी

ख़ुद कोरोना जान॥

रोदन करती रुदाली

जो उनका व्यवसाय।

मगरमच्छ तालाब में

आँसू रोज़ बहाय॥

दोहा जिसका साथ दे

रहता उसके पास।

चौपाया दोहा मगर

नर से ज़्यादा ख़ास॥

गर्मी की ऋतु में सखी

मेघ घिरे आकाश।

घर में बैठा खोजता

कहाँ गया उल्लास॥

भीषण कोविड के समय

फुलवारी आबाद।

भौंरे के संग तीतरी

करे खुला संवाद॥

आया है तो जाएगा

बाहर का तूफ़ान।

लेकिन कैसे मिटेगा

भीतर बना मसान॥

कोरोना ने विश्व पर

किया बहुत 'उपकार'।

बिना फ़ीस बिन शुल्क के

खोले 'मुक्ति' दुआर॥

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

Recitation

जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

पास यहाँ से प्राप्त कीजिए