
व्रत का अर्थ है—अपने को जो आचरण सत्य-विचार का अनुसरण करनेवाला लगता हो, उससे अविचल भाव से चिमटे रहने और उसके विपरीत आचरण कभी न करने की प्रतिज्ञा।

उपवास करने से चित्त अंतर्मुख होता है, दृष्टि निर्मल होती है और देह हलकी बनी रहती है।

व्रत में ऊर्ध्वगमन है, परिश्रम है। वह असत्य या भोगादि में नहीं होता।
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उपवास करते हुए भी मनुष्य विषयासक्त रह सकता है, पर बिना उपवास के विषयासक्ति को जड़-मूल से मिटाना संभव नहीं है।

चारों तरफ़ उपवासों का शोर है, उपवास, उसके विरुद्ध उपवास, विरुद्ध उपवास के विरुद्ध उपवास और विरुद्ध के, विरुद्ध के विरुद्ध उपवास।

उपवास की सच्ची उपयोगिता वहीं होती है, जहाँ मनुष्य का मन भी देह-दमन में साथ देता है।

शरीर में से ख़र्च हो जाने वाले तत्त्वों को फिर पूरा करने और इस प्रकार शरीर को कार्यक्षम स्थिति में रखने के लिए आहार की ज़रूरत है। इसलिए यह दृष्टि रखकर ही जितने और जिस प्रकार के आहार की ज़रूरत हो वही खाना चाहिए। स्वाद के लिए—अर्थात् जीभ को रुचने की दृष्टिसे कुछ खाना या ख़ुराक में मिलाना, अथवा अधिक आहार करना अस्वाद-व्रत का भंग है।

आग्रह, विचार, वाणी और कर्म सत्य हों—उन्हीं के लिए व्रत हो सकता है।
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एक भी इंद्रिय स्वच्छंदी बन जाने से दूसरी इंद्रियों पर प्राप्त नियंत्रण ढीला पड़ जाता है। उनमें भी, ब्रह्मचर्य की दृष्टि से जीतने में सबसे कठिन और महत्त्व की स्वादेंद्रिय है। इस पर स्पष्ट रूप से ध्यान रखने के ख़याल से स्वादजय को व्रतों में ख़ास स्थान दिया गया है।

बाह्य उपचारों में जिस तरह आहार के प्रकार और परिमाण की मर्यादा आवश्यक है, उसी तरह उपवास के बारे में भी समझना चाहिए।

उपवास को सत्याग्रह के साधन के तौर पर काम में लाने में, अक्सर बहुत जल्दबाज़ी और भूलें होती हैं।
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असावधानी में कुसंगति के कारण अथवा पूर्व की कुटेवों या कुसंस्कारों के कारण मन अपने किए निश्चयों पर नहीं टिक पाता, इसके लिए उसे व्रतरूपी बेड़ियों से कसना, उसे स्थिर करने का अच्छा उपाय है।
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शरीर के अधिक निर्मल होने से स्वाद बढ़ गया, भूख अधिक खुल गई और मैंने देखा कि उपवास आदि जिस हद तक संयम के साधन हैं—उस हद तक वे भोग के साधन भी बन सकते हैं।
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