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वियोगी हरि

1895 - 1988 | छतरपुर, मध्य प्रदेश

शुक्लयुगीन हिंदी गद्यकार और ब्रज भाषा के कवि। गांधीवाद के अनुसरण और दलित सेवा के लिए भी उल्लेखनीय।

शुक्लयुगीन हिंदी गद्यकार और ब्रज भाषा के कवि। गांधीवाद के अनुसरण और दलित सेवा के लिए भी उल्लेखनीय।

वियोगी हरि के दोहे

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कहा भयौ इक दुर्ग जो, ढायौं रिपु रणधीर।

तुम तौ मानिनि-मान-गढ़, नित ढाहत, रति-बीर॥

तुच्छ स्वर्गहूँ गिनतु जो, इक स्वतंत्रता-काज।

बस, वाही के हाथ है, आज हिन्द की लाज॥

जयतु कंस-करि-केहरि! मधु-रिपु! केशी-काल।

कालिय-मद-मर्द्दन! हरे! केशव! कृष्ण कृपाल॥

सहस फनी-फुंकार औ, काली-असि-झंकार।

बन्दों हनु-हुंकार त्यौं, राघव-धनु-टंकार॥

गिरिवरू जापै धारि कै, राखी ब्रज-जन-लाज।

ताही छिगुनी कौ हमैं, बल बानो, यदुराज॥

काटौ कठिन कलेसु मो, मोह-मार-मद वक्र।

मथन-मत्त-शिशुपाल-करि, केहरि केशव-चक्र॥

जिन पायनु तें जाह्नवी, भई प्रगटि जग-पूत।

तिनही तें प्रगटे ए, तुम्हरे अनुज अछूत॥

जागत-सोवत, स्वप्नहूँ, चलत-फिरत दिन-रैन।

कुच-कटि पै लागे रहैं, इन कनीनु के नैन॥

बसत सदा ता भूमि पै, तीरथ लाख-करोर।

लरत-मरत जहँ बाँकुरे, बिरूझि बीर बरजोर॥

अपनावत अजहूँ न, जे अंग अछूत।

क्यों करि ह्वै हैं छूत वै, करि कारी करतूत॥

कमल-हार, झीने बसन, मधुर बेनु अब छाँड़ि।

मौलि-माल, बज्जर कवच, तुमुल-संख कवि, माँड़ि॥

अब नख-सिख-सिंगार में, कवि-जन! कछु रस नाहिं।

जूठन चाटत तुम तऊ, मिलि कूकर-कुल माहिं॥

तजि अजहूँ अभिसारिका, रतिगुप्तादिक, मन्द!

भजि भद्रा, जयदा सदा, शक्ति छाँड़ि जग-द्वन्द॥

जैहै डूबी घरीक में, भारत-सुकृत-समाज।

सुदृढ़ सौर्य-बल-बीर्य कौ, रह्यौ आज जहाज॥

रह्यौ उरझि रथ-चक्र जो, धावत भीषम-ओर।

कब गहि हौं रणछोर के, वा पटुका कौ छोर॥

नयन-बानही बान अब, भ्रुवही बंक कमान।

समर केलि बिपरीतही, मानत आजु प्रमान॥

अरे, फिरत कत, बावरे! भटकत तीरथ भूरि।

अजौं धारत सीस पै सहज सूर-पग-धूरि॥

वही धर्म, वही कर्म, बल, वही विद्या, वही मंत्र।

जासों निज गौरव-सहित, होय स्वदेस स्वतंत्र॥

दई छाँड़ि निज सभ्यता, निज समाज, निज राज।

निज भाषाहूँ त्यागि तुम, भये पराये आज॥

निति-बिहूनो राज ज्यौं, सिसु ऊनो बिनु प्यार।

त्यौं अब कुच-कटि-कवित बिनु, सुनो कवि-दरबार॥

मरदाने के कवित ए, कहिहैं क्यों मति-मन्द।

बैठि जनाने पढ़त जे, नित नख-सिख के छंद॥

तिय-कटि-कृसता कौ कविनु, नित बखानु नव कीन।

वह तौ छीन भई नहीं, पै इनकी मति छीन॥

जौ दोउनु कौ एकही, कह्यौ जनक जग-बंद।

तौ सुरसरि तें घटि कहा, यह अछूत, द्विज मंद॥

आज-कालि के नौल कवि, सुठि सुंदर सुकुमार।

बूढ़े भूषण पै करैं, किमि कटाच्छ-मृदु-वार॥

जगी जोति जहँ जूझ की, खगी खंग खुलि झूमि।

रँगा रूधिर सों धूरि, सो धन्य धन्य रण-भूमि॥

मनु लागत स्वदेस में, यातें रमत बिदेस।

परपितु सों पितु कहत ए, तजि निज कुल निज देस॥

करत किधौं उपसाहु कै, ठकुरसुहाती आज।

कहा जानि या भीरू कों, कहत भीम, कविराज॥

सुर-सरि अंतज्य दुहूँ, अच्युत-पद-संभूत।

भयौ एक क्यों छूत, दूजो रह्यौ अछूत॥

नमो-नमो कुरू-खेत! तुन महिमा अकथ अनूप।

कण-कण तेरो लेखियतु, सहस-तीर्थ-प्रतिरूप॥

बरषत बिषम अँगार चहुँ, भयौ छार बर बाग।

कवि-कोकिल कुहकत तऊं, नव दंपति-रति-राग॥

उत रिपु लूटत राज, इत दोउ रति माहिं।

उन गर नाहिं नहिं छुटै, इन गर बाहीं नाहिं॥

निज भाषा, निज भाव, निज असन-बसन, निज चाल।

तजि परता, निजता गहूँ, यह लिखियौ, बिधि! भाल॥

जित बिनासु आवन चहतु, पठवतु प्रथम बिलासु।

मति बिलासु मुहँ लाइयौ, ऐहै नतरु बिनासु॥

मान छट्यौ, धन जन छुट्यौ, छुट्यौ राजहू आज।

पै मद-प्याली नहिं छुटी, बलि, बिलासि-सिरताज॥

जाहि देखि फहरत गगन, गये काँपि जग-राज।

सो भारत की जय-ध्वजा, परी धरातल आज॥

अनल-कुंड, असि-धार कै, रकत-रँग्यौ रण-खेत।

त्रय तीरथ तारण-तरण, छिति, छत्रिय-त्रिय-हेत॥

पर-भाषा, पर-भाव, पर-भूषन, पर-पराधीन।

पराधीन जन की अहै, यह पूरी पहिचान॥

मिली हमैं थर्मोपली, ठौर-ठौर चहुँ पास।

लेखिय राजस्थान में, लाखनु ल्यूनीडास॥

भीख-सरिस स्वाधीनता, कन-कन जाचत सोधि।

अरे, मसक की पाँसुरिनु, पाट्यौ कौन पयोधि॥

कनक-कोट-कंगूर जो, किये धौरहर धूम।

सो भारत-आरति हरौ, मारुती-लामी-लूम॥

धन्य, बीर ब्रज-गोपिका, तजि रस की मेंड़।

हेत-खेत तें अंत लौं, दियौ पाछे पेंड़॥

अंत ऐहैं काम ए, रसिक छैल सरदार।

रहि जैहैं दरपनु लिये, करत साज-सिंगार॥

मरनु भलो निज धर्म में, भय-दायक परधर्म।

पराधीन जानै कहा, यह निज-पर कौ मर्म॥

तजि सरबसु रस-बसु कियौ, गीता-गुरु गोपाल।

भाव-भौन-धुज धन्य वै, बिरह-बीर ब्रज-बाल॥

राज-ताज कौ भार किमि, सधिहै सिर सुकुमार।

डगकु डगत-से चलत जो, निज तनुहीं के भार॥

जिनकौ-जिय-गाहकु बन्यौ, अँग-दाहुक रति-नाह।

असि-बाहुक क्यों करि वहै, ह्वै हैं सहित उमाह॥

महा असिव हू सिव भयौ, जाहि सीस पै धारि।

छुअत तासु सहोदरन, रे द्विज! कहा बिचारि॥

निदरी प्रलय बाढ़त जहाँ, बिप्लव-बाढ़-बिलास।

टापतही रहि जात तहँ, टीप-टाप के दास॥

जरि अपमान-अँगार तें, अजहुँ जियत ज्यौं छार।

क्यों गर्भ तें गरि गिर्यौ, निलज नीच भू-भार॥

झझकत हिये गुलाब कै, झँवा झंवैयत पाइ।

या बिधि इत सुकुमारता अब न, दई सरसाइ॥

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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