वियोगी हरि के दोहे
कहा भयौ इक दुर्ग जो, ढायौं रिपु रणधीर।
तुम तौ मानिनि-मान-गढ़, नित ढाहत, रति-बीर॥
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तुच्छ स्वर्गहूँ गिनतु जो, इक स्वतंत्रता-काज।
बस, वाही के हाथ है, आज हिन्द की लाज॥
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जयतु कंस-करि-केहरि! मधु-रिपु! केशी-काल।
कालिय-मद-मर्द्दन! हरे! केशव! कृष्ण कृपाल॥
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सहस फनी-फुंकार औ, काली-असि-झंकार।
बन्दों हनु-हुंकार त्यौं, राघव-धनु-टंकार॥
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गिरिवरू जापै धारि कै, राखी ब्रज-जन-लाज।
ताही छिगुनी कौ हमैं, बल बानो, यदुराज॥
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काटौ कठिन कलेसु मो, मोह-मार-मद वक्र।
मथन-मत्त-शिशुपाल-करि, केहरि केशव-चक्र॥
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जिन पायनु तें जाह्नवी, भई प्रगटि जग-पूत।
तिनही तें प्रगटे न ए, तुम्हरे अनुज अछूत॥
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जागत-सोवत, स्वप्नहूँ, चलत-फिरत दिन-रैन।
कुच-कटि पै लागे रहैं, इन कनीनु के नैन॥
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बसत सदा ता भूमि पै, तीरथ लाख-करोर।
लरत-मरत जहँ बाँकुरे, बिरूझि बीर बरजोर॥
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अपनावत अजहूँ न, जे अंग अछूत।
क्यों करि ह्वै हैं छूत वै, करि कारी करतूत॥
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कमल-हार, झीने बसन, मधुर बेनु अब छाँड़ि।
मौलि-माल, बज्जर कवच, तुमुल-संख कवि, माँड़ि॥
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अब नख-सिख-सिंगार में, कवि-जन! कछु रस नाहिं।
जूठन चाटत तुम तऊ, मिलि कूकर-कुल माहिं॥
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तजि अजहूँ अभिसारिका, रतिगुप्तादिक, मन्द!
भजि भद्रा, जयदा सदा, शक्ति छाँड़ि जग-द्वन्द॥
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जैहै डूबी घरीक में, भारत-सुकृत-समाज।
सुदृढ़ सौर्य-बल-बीर्य कौ, रह्यौ न आज जहाज॥
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रह्यौ उरझि रथ-चक्र जो, धावत भीषम-ओर।
कब गहि हौं रणछोर के, वा पटुका कौ छोर॥
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नयन-बानही बान अब, भ्रुवही बंक कमान।
समर केलि बिपरीतही, मानत आजु प्रमान॥
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अरे, फिरत कत, बावरे! भटकत तीरथ भूरि।
अजौं न धारत सीस पै सहज सूर-पग-धूरि॥
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वही धर्म, वही कर्म, बल, वही विद्या, वही मंत्र।
जासों निज गौरव-सहित, होय स्वदेस स्वतंत्र॥
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दई छाँड़ि निज सभ्यता, निज समाज, निज राज।
निज भाषाहूँ त्यागि तुम, भये पराये आज॥
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निति-बिहूनो राज ज्यौं, सिसु ऊनो बिनु प्यार।
त्यौं अब कुच-कटि-कवित बिनु, सुनो कवि-दरबार॥
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मरदाने के कवित ए, कहिहैं क्यों मति-मन्द।
बैठि जनाने पढ़त जे, नित नख-सिख के छंद॥
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तिय-कटि-कृसता कौ कविनु, नित बखानु नव कीन।
वह तौ छीन भई नहीं, पै इनकी मति छीन॥
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जौ दोउनु कौ एकही, कह्यौ जनक जग-बंद।
तौ सुरसरि तें घटि कहा, यह अछूत, द्विज मंद॥
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आज-कालि के नौल कवि, सुठि सुंदर सुकुमार।
बूढ़े भूषण पै करैं, किमि कटाच्छ-मृदु-वार॥
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जगी जोति जहँ जूझ की, खगी खंग खुलि झूमि।
रँगा रूधिर सों धूरि, सो धन्य धन्य रण-भूमि॥
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मनु लागत न स्वदेस में, यातें रमत बिदेस।
परपितु सों पितु कहत ए, तजि निज कुल निज देस॥
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करत किधौं उपसाहु कै, ठकुरसुहाती आज।
कहा जानि या भीरू कों, कहत भीम, कविराज॥
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सुर-सरि औ अंतज्य दुहूँ, अच्युत-पद-संभूत।
भयौ एक क्यों छूत, औ दूजो रह्यौ अछूत॥
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नमो-नमो कुरू-खेत! तुन महिमा अकथ अनूप।
कण-कण तेरो लेखियतु, सहस-तीर्थ-प्रतिरूप॥
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बरषत बिषम अँगार चहुँ, भयौ छार बर बाग।
कवि-कोकिल कुहकत तऊं, नव दंपति-रति-राग॥
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उत रिपु लूटत राज, इत दोउ रति माहिं।
उन गर नाहिं नहिं छुटै, इन गर बाहीं नाहिं॥
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निज भाषा, निज भाव, निज असन-बसन, निज चाल।
तजि परता, निजता गहूँ, यह लिखियौ, बिधि! भाल॥
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जित बिनासु आवन चहतु, पठवतु प्रथम बिलासु।
मति बिलासु मुहँ लाइयौ, ऐहै नतरु बिनासु॥
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मान छट्यौ, धन जन छुट्यौ, छुट्यौ राजहू आज।
पै मद-प्याली नहिं छुटी, बलि, बिलासि-सिरताज॥
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जाहि देखि फहरत गगन, गये काँपि जग-राज।
सो भारत की जय-ध्वजा, परी धरातल आज॥
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अनल-कुंड, असि-धार कै, रकत-रँग्यौ रण-खेत।
त्रय तीरथ तारण-तरण, छिति, छत्रिय-त्रिय-हेत॥
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पर-भाषा, पर-भाव, पर-भूषन, पर-पराधीन।
पराधीन जन की अहै, यह पूरी पहिचान॥
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मिली हमैं थर्मोपली, ठौर-ठौर चहुँ पास।
लेखिय राजस्थान में, लाखनु ल्यूनीडास॥
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भीख-सरिस स्वाधीनता, कन-कन जाचत सोधि।
अरे, मसक की पाँसुरिनु, पाट्यौ कौन पयोधि॥
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कनक-कोट-कंगूर जो, किये धौरहर धूम।
सो भारत-आरति हरौ, मारुती-लामी-लूम॥
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धन्य, बीर ब्रज-गोपिका, तजि न रस की मेंड़।
हेत-खेत तें अंत लौं, दियौ न पाछे पेंड़॥
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अंत न ऐहैं काम ए, रसिक छैल सरदार।
रहि जैहैं दरपनु लिये, करत साज-सिंगार॥
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मरनु भलो निज धर्म में, भय-दायक परधर्म।
पराधीन जानै कहा, यह निज-पर कौ मर्म॥
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तजि सरबसु रस-बसु कियौ, गीता-गुरु गोपाल।
भाव-भौन-धुज धन्य वै, बिरह-बीर ब्रज-बाल॥
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राज-ताज कौ भार किमि, सधिहै सिर सुकुमार।
डगकु डगत-से चलत जो, निज तनुहीं के भार॥
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जिनकौ-जिय-गाहकु बन्यौ, अँग-दाहुक रति-नाह।
असि-बाहुक क्यों करि वहै, ह्वै हैं सहित उमाह॥
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महा असिव हू सिव भयौ, जाहि सीस पै धारि।
छुअत न तासु सहोदरन, रे द्विज! कहा बिचारि॥
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निदरी प्रलय बाढ़त जहाँ, बिप्लव-बाढ़-बिलास।
टापतही रहि जात तहँ, टीप-टाप के दास॥
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जरि अपमान-अँगार तें, अजहुँ जियत ज्यौं छार।
क्यों न गर्भ तें गरि गिर्यौ, निलज नीच भू-भार॥
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झझकत हिये गुलाब कै, झँवा झंवैयत पाइ।
या बिधि इत सुकुमारता अब न, दई सरसाइ॥
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere