Font by Mehr Nastaliq Web
Vinod Kumar Shukla's Photo'

विनोद कुमार शुक्ल

1937 | राजनाँदगाँव, छत्तीसगढ़

सुप्रसिद्ध कवि-कथाकार। साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित।

सुप्रसिद्ध कवि-कथाकार। साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित।

विनोद कुमार शुक्ल के उद्धरण

174
Favorite

श्रेणीबद्ध करें

अधिकतर अज्ञानता के सुख-दुःख की आदत थी। ज्ञान के सुख-दुःख बहुतों को नहीं मालूम थे। जबकि ज्ञान असीम अटूट था। ज्ञान सुख की समझ देता था पर सुख नहीं देता था।

“जितनी बुराइयाँ हैं वे केवल इसलिए कि कुछ बातें छुपाई नहीं जाती और अच्छाइयाँ इसलिए हैं कि कुछ बातें छुपा ली जाती हैं।”

अदब और क़ायदे आदमी को बहुत जल्दी कायर बना देते हैं। ऐसा आदमी झगड़ा नहीं करता।

दृश्य बदलने के लिए पलक का झपक जाना ही बहुत होता है।

ख़ुश होने से पहले बहाने ढूँढने चाहिए और ख़ुश रहना चाहिए। बाद में ये बहाने कारण बन जाते। सचमुच की ख़ुशी देने लगते।

पत्नी का रिश्ता फूल को तोड़कर अपने पास रख लेने का था। पेड़ में खिले फूल-जैसा रिश्ता कहीं नहीं दिखता था।

पृथ्वी में जो कुछ जीव जगत, पत्थर, नदी, पहाड़, समुद्र, जंगल, वनस्पति मनुष्य इत्यादि हैं वे सब पृथ्वी की सोच की तरह थे। मन की बात की तरह। मनुष्य की सोच में पता नहीं कैसे ब्रह्मांड गया था।

किसी दुःख के परिणाम से कोई ज़हर नहीं खा सकता। यह तो षड्यंत्र होता है। आदमी को बुरी तरह हराने के बाद ज़हर का विकल्प सुझाया जाता है।

मुझे चंद्रमा आकाश में गोल कटी हुई खिड़की की तरह लगता था जिससे आकाश की आड़ में छुपी हुई दुनिया का उजाला आता था।

यदि एकबारगी कोई गर्दन काटने के लिए आए तो जान बचाने के लिए जी-जान से लड़ाई होती। इसलिए एकदम से गर्दन काटने कोई नहीं आता। पीढ़ियों से गर्दन धीरे-धीरे कटती है।

गंतव्य दुःख का कारण होता। सुख का कारण है कि किसी अच्छी जगह जा रहे हैं। परंतु अच्छी जगह दुनिया में कहाँ है? जगह मतलब कहीं नहीं पहुँचना है।

अच्छा व्यवहार और सहायता के लिए तत्पर होना, यानी, आदमी को उस रेंज पर लाना है जहाँ से उस पर अचूक निशाना लगाया जा सके।

एक अच्छा नौकर परिवार में नौकर की तरह शामिल रहता था।

लड़की माँ-बाप के घर में ग़ैरहाज़िर जैसी होती थी। उसे उसी तरह पाला-पोसा जाता था कि कोई भटकी हुई गई है। भले कोख से गई है। एकाध दिन उसे खाना खिला दो कल चली जाएगी। लड़की का रोज़-रोज़, बस एकाध दिन जैसा होता था। फिर ब्याह दी जाती जैसे निकल जाती हो।

कारीगर अपनी रोज़ी से मतलब रखता है, काम से नहीं। काम बनाने पर वह विश्वास रखेगा तो उसकी रोज़ी नहीं चलेगी।

दूसरों की सहानुभूति, हमारा स्वाभिमान तैयार करती थी।

घड़ी नहीं थी। पर निरंतरता का बोध था। आकाश का होना निरंतर था। आकाश स्थिर पर उसका होना लगातार। स्थिर झरने में लगातार गिरते हुए पानी की निरंतरता।

दुःख और तकलीफ़ के कार्यक्रम भी यदि अच्छी तरह से प्रस्तुत होते तो तालियाँ तड़-तड़ बजतीं।

मृत्यु समय से बहिष्कृत होने से होती थी।

यात्रा में जाने का सुख और लौटने का सुख होता। परंतु रेलगाड़ी में दुःख की भीड़ होती। दुःख किसी भी गाँव में ज़ंजीर खींचकर उतर जाता।

मैं दुःख सहने का नगर स्तर या ज़िला स्तर का खिलाड़ी नहीं होना चाहता था।

ग़रीब एक स्तर के होते हुए भी एक जैसे इकट्ठे नहीं होते।

रात-भर जागकर ही आनेवाले दिन को पकड़ सकते थे।

कितना सुख था कि हर बार घर लौटकर आने के लिए मैं बार-बार घर से बाहर निकलूँगा।

घर का दरवाज़ा खोलते ही मैंने घर को ऐसे देखा जैसे किसी ख़ाली डब्बे के ढक्कन को खोलकर अंदर झाँक रहा हूँ। अगर ख़ालीपन मभी कोई चीज़ थी, तो उसी घर ठसाठस भरा था। इसके अलावा कुछ नहीं था। घर के अंदर मैं उसी तरह आया, जैसे एक उपराहा ख़ालीपन और आया है।

  • संबंधित विषय : घर

नौकर अच्छा हो तो वह क़ीमती हो जाता था।

जो बम के गोले फूटते नहीं वे दार्शनिक बम होते। जिनके कभी भी फूट जाने का डर होता।

नौकर की कमीज़ एक सांचा था, जिससे आदर्श नौकरों की पहचान होती।

ज़िंदगी को जीना, स्थगित मौत को जीना होता पर बहुत दिनों तक स्थगित मौत को भी नहीं जिया जा सकता।

जब किसी एक से प्रेम करने का बंधन हो चाहे प्रेम हो तो दूसरे से प्रेम होने का डर गृहस्थी की चौहद्दी को मज़बूत बनाता था।

पेड़ अपनी अक़्ल से नहीं बढ़ता सुविधा से बढ़ता, बल्कि स्वाभाविकता से बढ़ता है।

जी दुखता है तो खिड़की बंद कर लेना चाहिए। अकेलेपन में कोई आएगा कि राह देखने के बदले किसी के पास चले जाना चाहिए।

मैं बार-बार घर से बाहर जाऊँगा और बार-बार घर लौटूँगा।

आदमी के विचार तेज़ी से बदल रहे थे। लेकिन उनकी तेज़ी से रद्दीपन इकठ्ठा हो रहा था। रद्दीपन देर तक ताज़ा रहेगा। अच्छाई तुरंत सड़ जाती थी।

यदि नदी बह रही हो तो उसमें एक सूखी टहनी डाल दी जाए तो वह ज़रूर बहेगी।

ज़्यादा गहरे में डूबकर मरने का डर रहता है। इस बाहरी हलचल भरी गहराई में कितनी दूर तक जा सकेंगे, जिसमें मरें नहीं।

बहुत से लोग दुःख का अभ्यास बचपन से करते हैं। इसके अभ्यास के लिए मैदान की ज़रूरत नहीं होती।

सारा जीवन लौटने का रास्ता नहीं देखना चाहिए। लौटने का रास्ता घंटा दो घंटा, दो चार दिन, दो चार महीने, दो चार वर्ष बस।

घर बदलने और नौकरी बदलने के बदले ख़ुद को बदलना चाहिए।

  • संबंधित विषय : घर

खेल-खेल की ज़िंदगी और सचमुच की ज़िंदगी का जो अनुभव होता उसमें आदमी के बचपने से कोई सहायता नहीं मिलती थी। लेकिन बुढ़ापे तक बचपन के खेल याद आते थे।

जो सुन नहीं पाते वे बम का धमाका सुन नहीं पाते होंगे। अणुबम का धमाका भी नहीं। धमाका सुनाई दे कल-कल की ध्वनि सबको सुनाई देनी चाहिए, बहरे को इतना ही बहरा होना चाहिए।

अँधेरे के मैदान में अँधेरे का आकाश था जिसमें यह गाँव था। मिट्टी के घर थे कहीं-कहीं खेत थे। अँधेरे में अगर ऊपर से स्वर्ग उतरता हो तो स्वर्ग भी वैसा ही होता जैसे यह नरक था।

नौकरी लगते ही घर के व्यवहार में एक बदलाव गया था और शादी होते ही, भद्दा फ़र्क।

उधार लेने का मतलब भविष्य तक भुक्कड़ हो गए। मैं भविष्य तक भुक्कड़ हूँ।

अपनी सुरक्षा के लिए घर की सिटकनी लगा ली। दुनिया की सुरक्षा के लिए किस जगह सिटकनी लगेगी? घड़ी देखना समय देखना नहीं होता।

सृष्टि में पृथ्वी का भी अकेलापन होगा। परंतु एक मनुष्य का अकेलापन सृष्टि के अकेलेपन से भी बड़ा होता होगा। एक मनुष्य के अनेक दुःख सुख थे।

उपेक्षित उपस्थिति होने से आदमी को अदृश्य होने में समय नहीं लगता।

  • संबंधित विषय : समय

मेरा वेतन एक कटघरा था, जिसे तोड़ना मेरे बस में नहीं था। यह कटघरा मुझमें कमीज़ की तरह फिट था।

निरंतरता समय का गोत्र है जैसे भारद्वाज गोत्र होता है।

  • संबंधित विषय : समय

ज़िंदगी जितनी ख़राब लगती है उतनी ख़राब नहीं है।

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

Recitation

जश्न-ए-रेख़्ता | 13-14-15 दिसम्बर 2024 - जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, गेट नंबर 1, नई दिल्ली

टिकट ख़रीदिए