यह दुनिया पेट की दौड़ है
पूजा भाटिया
28 मार्च 2025
ख़ालिद जावेद के उपन्यास ‘नेमत ख़ाना’ से गुज़रते हुए गाहे-ब-गाहे यह महसूस होता है कि निःसंदेह तमाम दुनिया पेट की दौड़ है—इससे ज़्यादा कुछ नहीं, इससे कम कुछ नहीं। आपके अंतर् से पारदर्शी परिचय करवाते इस उपन्यास के बारे में उदयन वाजपेयी बजा फ़रमाते हैं—“अँधेरे केवल तब तक डरावने होते हैं, जब तक उन पर ख़ालिद जावेद जैसे उपन्यासकार की नज़र न पड़ जाए।”
कविता, कहानी, कल्पना, क्रूर सत्य, दर्शन, दुःसाहस, डर, वर्तमान की प्रासंगिकता, प्रेम की चाह और कमी जैसे तमाम विषयों के वसीअ दश्त से भरा हुआ; आँतों का वीरानापन लिए जब मरकज़ी किरदार आख़िरी वक़्त के कटघरे में खड़ा ख़ुद का मुक़दमा, ख़ुद की तरफ़ से और ख़िलाफ़ से भी ख़ुद ही लड़ रहा है। यहाँ गवाही है आत्मा की, पत्थर की—कि पत्थर से बड़ा चश्मदीद गवाह कोई नहीं। गवाही है मुर्दे की—कि सबसे भरोसेमंद गवाह मुर्दा लोगों की याददाश्त होती है। ये वो गवाह हैं जो अपना बयान नहीं बदल सकते। ये दृश्य बुरी तरह सुन्न हो चुके पैर पर कील ठोकने जैसी स्तब्धता पैदा करते हैं, जो फ़ौरी तौर पर शायद न के बराबर मालूम हो, पर कालांतर में दर्दनाक साबित होती है।
कहानी का मरकज़ी किरदार जो छिपकली गिरी ज़हरीली चाय पीकर अपना अंदरूँ बदला महसूस करता है और बावर्चीख़ाने में रहने वाले एक कॉक्रोच के अधीन है; जिसके लिए क़त्ल करना और मक्खी उड़ाना बराबर है, जो बेहद उदास है और रोता नहीं। वह अपना नमक और उदासी बचाकर रखता है, क्योंकि वह जानता है—जो रोते नहीं वो देर से मरते हैं, नमक लाशों को ज़िंदा रखता है। इसकी याददाश्त वफ़ादार कुत्ते की तरह है, जो दबे पाँव उसके साथ-साथ चलती है। पेशे से वक़ील यह किरदार जब वक़्त-ए-आख़िर में ज़ेहन को माज़ी के खंडहरों में ले जाता है तो ख़ुद को ग़ायब पाता है, बक़ौल ख़ालिद जावेद—“व्याकरण की किताब में मैंने काल के तीनों रूपों में स्वयं को तलाश किया और हर रूप में स्वयं को अनुपस्थित पाया”। इस वक़्त किरदार का यह बयान कि—“बुढ़ापे से बचपन की ओर लौटना ही एक सच्ची विकास यात्रा है”, बेहद सटीक और सही मालूम होता है।
बावर्चीख़ाने के इर्द-गिर्द बुना यह तवील वाक़या बिल्कुल ऐसा है, जैसे आँतों के इर्द-गिर्द बुना शरीर। बावर्चीख़ाना, जो शक्ति का केंद्र है, समानांतर दुनिया है और भूख दुनिया की अंतरराष्ट्रीय भाषा। घर के किसी भाग में इतने ख़तरनाक बहुरूपिये नहीं पाए जाते जितने कि रसोई में और घर के किसी भी स्थान पर स्त्रियाँ इतनी क्रोधित, उग्र, ईर्ष्या से भरी, हिंसक, छोटी सोच की और ख़ूँख़ार नहीं होतीं—जितनी बावर्चीख़ाने में। बावर्चीख़ाने में अपने सुन्न हाथों से गर्म बर्तनों को उठाती स्त्रियाँ बर्तनों से वही बर्ताव करती हैं, जो वे अपने मर्दों से करती हैं। औरतें बावर्चीख़ाने में प्रबल और स्वार्थी हो जाती हैं। यही बावर्चीख़ाना सबसे ख़तरनाक होते हुए भी नेमतख़ाना भी हो जाता है, जहाँ गाहे-ब-गाहे मिठाइयाँ भी रखी होती हैं।
बक़ौल ख़ालिद जावेद नेमतख़ाने में बनती रोटियाँ जैसे गणित के दो स्वच्छ और निर्मल ईमानदार अंकों की तरह लुटी-पिटी उजाड़ स्वरूप दुनिया के माथे पर चमकती हुई अमर और पवित्र बिंदिया।
सारी यात्राएँ बावर्चीख़ाने से शुरू होकर यहीं ख़त्म होती हैं। दुनिया की तमाम प्रजातियाँ जो इंसान के साथ खप सकती हैं, बावर्चीख़ाने में होती हैं।
ख़ालिद जावेद का बावर्चीख़ाना कभी किसी हथियारगाह की मानिंद, रशियन डायरेक्टर आंद्रे तारकोवस्की के सिनेमा का प्रतिरूप तो कभी एडगर एलन पो की डरावनी कहानी का रूपांतरण मालूम होता है।
ख़ालिद जावेद की लिखी ये पंक्तियाँ आपके ज़ेहन को झकझोर के रख देती हैं और सोचने पर मजबूर करती है—“माँ आजकल फ़ैशन में है और एक कमर्शियल ब्रांड में तब्दील कर दी गई है, बाप तो केवल एक परिकल्पना है, कमज़ोर आस्था है। ख़ुदा और बाप दोनों आज के ज़माने में हाशिये पर चले गए हैं।”
उपन्यास पढ़ते हुए न जाने कब आप इसे फ़्रेम-दर-फ़्रेम एक फ़िल्म की तरह देखने लगते हैं, पता ही नहीं चलता और अंत तक आप यक़ीन करने लग जाते हैं कि—“जीवन की तमाम त्रासदियाँ बावर्चीख़ाने से ही शुरू होती हैं।”
बक़ौल ट्रिलिंग—“हमारी क्या मजाल की हम किसी अच्छी किताब को रद्द करें; दरअस्ल वो तो अच्छी किताब होती है, जो हमें रद्द करती है।” इसलिए जिस गहराई से मैं इस उपन्यास को ‘देख’ पाई, इससे जुड़ पाई—मुझे ख़ुशी है कि ‘नेमत ख़ाना’ ने मुझे क़ुबूल किया।
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