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विजय देव नारायण साही

1924 - 1982 | वाराणसी, उत्तर प्रदेश

समादृत कवि-आलोचक। ‘जायसी’ शीर्षक आलोचना-पुस्तक के लिए उल्लेखनीय।

समादृत कवि-आलोचक। ‘जायसी’ शीर्षक आलोचना-पुस्तक के लिए उल्लेखनीय।

विजय देव नारायण साही के उद्धरण

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नितांत अव्यावहारिक होना नितांत ईमानदारी और अक़्लमंदी का लक्षण है।

मुझसे पहले की पीढ़ी में जो अक़्लमंद थे, वे गूँगे थे। जो वाचाल थे, वे अक़्लमंद नहीं थे।

कविता को राजनीति में नहीं घुसना चाहिए। क्योंकि इससे कविता का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, राजनीति के अनिष्ट की संभावना है।

कविता के क्षेत्र में केवल एक आर्य-सत्य है : दुःख है। शेष तीन राजनीति के भीतर आते हैं।

असामंजस्य देखने का काम बुद्धि करती है। परिभाषा बदलने का काम कल्पना करती है।

लहर की बनावट, उसकी ऊँचाई, गहराई, लंबाई स्वयं उस पर निर्भर नहीं; इन सबका उत्तरदायित्व सागर की गति पर है।

मैं संसार का सबसे महत्त्वपूर्ण प्राणी हूँ। यदि नहीं हूँ तो आत्महत्या के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं है।

शब्दों में अभिव्यक्ति अभ्यास के द्वारा होती है। यह सब एक निमिष में हो सकता है, इसको एक युग भी लग सकता है; कवि-कवि पर निर्भर है।

कविता राग है। राग माया है। माया और अध्यात्म में वैर है। अतः आध्यात्मिक कविता असंभव है।

कवि की अमरता ग़लतफ़हमी पर निर्भर करती है। जिस कवि में ग़लत समझे जाने का जितना अधिक सामर्थ्य होता है, वह उतना ही दीर्घजीवी होता है।

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लहर की भाँति कवि भी समाज-सागर से अभिन्न अस्तित्व नहीं रख सकता।

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कवि अभागा है। वह विशिष्ट अनुभूति को बदल नहीं पाता। तब तक बेचैन रहता है जब तक परिभाषा को बदल नहीं लेता।

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साहित्यकार को इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए कि वह समाज को संगुम्फित करे।

वस्तु स्थिति यह है कि मेरे बाबा ने जो कहा था वह मेरे पिता कहते हैं और मैं कहता हूँ। लेकिन जब मेरे पिता मुझसे कहते हैं कि मेरे बाबा ने क्या कहा था तो वह परम्परा है। जब मैं स्वयं कहता हूँ कि मेरे बाबा ने क्या क्या कहा था तो यह प्रयोग है। यदि मैं कुछ नहीं कह पाता तो यह तो परम्परा है और ही प्रयोग।

जिसे हम आधुनिकता करके जानते हैं, वह ख़ासी घुलनशील चीज़ है।

विचारधाराओं और इच्छावृत्तियों के मार्मिक द्वंद्व ने मेरी रचना-शक्ति में ऐसी निष्क्रियता पैदा कर दी है कि मादकता में डूबकर एक पग भी चलना मुहाल है।

अ-कवि अपनी विशिष्ट अनुभूति और अब तक उपलब्ध सामान्य परिभाषा में असामंजस्य नहीं देखता। कभी दिख भी जाता है तो थोड़ी-सी बेचैनी के बाद वह अनुभूति को जबरदस्ती बदल कर परिभाषा में बैठा लेता है। यह अ-कवि का सौभाग्य है।

यह भी असंभव नहीं है कि कोई साहित्यकार अपना सारा जीवन केवल इसी अन्वेषण में बिता दे कि प्रश्न असल में क्या है और किस रूप में पूछा जा रहा है। शायद हम ऐसे ही युग से गुज़र रहे हैं. एक ओर अप्र्त्याषा और स्पष्टता के साथ तीखी अनिवार्यता है: युग के प्रश्न को वाणी देनी ही होगी। दूसरी ओर मन को पथरा देने वाला यह अनुभव, कि कभी भी हमारे लिए यह प्रश्न और उसका उत्तर इतना घुमावदार, धुंधला और अनिश्चित नहीं था।

कवि अभागा है। वह विशिष्ट अनुभूति को बदल नहीं पाता। तब तक बेचैन रहता है जब तक परिभाषा को बदल नहीं लेता।असामंजस्य देखने का काम बुद्धि करती है। परिभाषा बदलने का काम कल्पना करती है। शब्दों की अभिव्यक्ति अभ्यास द्वारा होती है। यह सब एक निमिष में हो सकता है, इसको एक युग भी लग सकता हो, कवि कवि पर निर्भर है।

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सार्थकता बराबर तप नहीं, शब्दाडम्बर बराबर पाप।

कवि अनिर्वाचित मंत्रदाता हो सकता है। निर्वाचित मंत्री हो जाने से कवि का हित और जनता का अहित होने की आशंका है। दोनों ही अवांछनीय संभावनाएं हैं।

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पचास से ऊपर वय हो जाना अपने-आप में अक़्लमन्दी का प्रमाण नहीं है। प्रमाण पत्र मैं दूँगा।

कवि अ-कवियों से अधिक संवेदनशील या अनुभूतिशील नहीं होता। जो कवि इसके विपरीत कहते हैं उनका विश्वास मत कीजिए; वे अ-कवियों पर रंग जमाने के लिए ऐसा कहते हैं। यह संभव है कि कवि की संवेदना का क्षेत्र अ- कवि से कम हो. प्रायः यही होता है।

जैसा परिवेश हमारे चारों ओर है, उसमें साहित्यकार का अतिवादी हो जाना असंभव नहीं।

कविता से समाज का उद्धार नहीं हो सकता। यदि सचमुच समाज का उद्धार करना चाहते हैं तो देश का प्रधानमन्त्री बनने या बनाने की चेष्ठा कीजिए।

जो मैंने भोगा है वह सब मेरी कविता का विषय नहीं है। कविता का विषय वह होता है जो अब तक की प्रणाली में नहीं बैठ पाता। हर कलाकृति ठोस, विशिष्ट अनुभूति से उपजती है और उसका उदेश्य अनुभूति की सामान्य कोटियों के नए सिरे से परिभाषित करना होता है। परिभाषा विशिष्ट और सामान्य में सामंजस्य का नाम है। बिना सामंजस्य के भोगने में समर्थ होना असंभव है।

पश्चिम से छूटना असंभव दिखता है। अध्यात्म के बिना निस्तार नहीं है, यह भी पश्चिम ने कहा है लेकिन नया है।

किसी राष्ट्र के लिए पूर्वग्रहहीन होना शायद सबसे ख़तरनाक स्थिति होती है, क्योंकी अक्सर इसकी परिणति अनास्था, अविश्वास और कुंठा के लांछनों में होती है। पहले के युगों में संभवतः इन भ्रांत लांछनों के पीछे ईमानदारी होती थी। दुर्भाग्य से आज के युग में इनके पीछे बेईमानी की ही मात्र अधिक है।

इससे पहले कि आलोचक मुझसे पूछे कि समाज का नागरिक होने के नाते आप ऐसा क्यों लिखते हैं, वैसा क्यों नहीं लिखते, मैं आलोचक से पूछता हूँ कि पहले यह सिद्ध कीजिए समाज का नागरिक होने के नाते कविता लिखना भी मेरा कर्तव्य है।

विरोधाभास साहित्यकार के मानस में नहीं है, विरोधाभास हमारे उस भावनात्मक परिवेश में है जिससे साहित्यकार को जूझना पड़ रहा है। इसकी मूल हमारी राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय स्थिति में है।

जिस समाज में नितांत अव्याव्हारिक कोई नहीं रह जाता, वह समाज रसातल को चला जाता है।

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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