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रसनिधि

1538 - 1640 | ग्वालियर, मध्य प्रदेश

वास्तविक नाम पृथ्वीसिंह। प्रेम की विविध दशाओं और चेष्टाओं के वर्णन पर फ़ारसी शैली का प्रभाव। सरस दोहों के लिए स्मरणीय।

वास्तविक नाम पृथ्वीसिंह। प्रेम की विविध दशाओं और चेष्टाओं के वर्णन पर फ़ारसी शैली का प्रभाव। सरस दोहों के लिए स्मरणीय।

रसनिधि के दोहे

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मोहन लखि जो बढ़त सुख, सो कछु कहत बनै न।

नैनन कै रसना नहीं, रसना कै नहिं नैन॥

श्रीकृष्ण को देखकर जैसा दिव्य आनंद प्राप्त होता है, उस आनंद का कोई वर्णन नहीं कर सकता, क्योंकि जो आँखें देखती हैं, उनके तो कोई जीभ नहीं है जो वर्णन कर सकें, और जो जीभ वर्णन कर सकती है उसके आँखें नहीं है। बिना देखे वह बेचारी जीभ उसका क्या वर्णन कर सकती है!

तोय मोल मैं देत हौ, छीरहि सरिस बढ़ाइ।

आँच लागन देत वह, आप पहिल जर जाइ॥

दूध पानी को अपने में मिलाकर उसका मूल्य अपने ही समान बना देता है। पर जब दूध को आग पर गर्म किया जाता है तो दूध से पहले पानी अपने को जला लेता है और दूध को बचा लेता है। मित्रता हो तो दूध और पानी जैसी हो।

मन मैला मन निरमला, मन दाता मन सूम।

मन ज्ञानी अज्ञान मन, मनहिं मचाई धूम॥

रसनिधि कवि कहते हैं कि मन ही मैला या अपवित्र है और मन ही पवित्र है, मन ही दानी है और मन ही कंजूस है। मन ही ज्ञानी है, और मन ही अज्ञानी है। इस प्रकार मन ने सारे संसार में अपनी धूम मचा रखी है।

अरी मधुर अधरान तैं, कटुक बचन मत बोल।

तनक खुटाई तैं घटै, लखि सुबरन को मोल॥

समै पाइ कै लगत है, नीचहु करन गुमान।

पाय अमरपख दुजनि लों, काग चहै सनमान॥

अद्भुत गत यह प्रेम की, बैनन कही जाइ।

दरस भूख वाहे दृगन, भूखहिं देत भगाइ॥

काग आपनी चतुरई, तब तक लेहु चलाइ।

जब लग सिर पर दैइ नहिं, लगर सतूना आइ॥

हे कौए! तू अपनी चतुरता तब तक दिखा ले जब तक कि तेरे सिर पर बाज पक्षी आकर अपनी झपट नहीं मारता। भाव यह है कि जब तक मृत्यु मनुष्य को आकर नहीं पकड़ लेती, तभी तक मनुष्य का चंचल मन अपनी चतुरता दिखाता है।

तन मन तोपै बारिबौ, यह पतंग कौ नाम।

एते हूँ पै जारिबौ, दीप तिहारो हि काम॥

कवि दीपक को संबोधित करते हुए कहता है कि पतंग तो तुझ पर अपना तन और मन सब कुछ न्योछावर कर देता है। इतने पर भी अपने इस प्रेमी को जला देना। हे निष्ठुर दीपक! तेरा ही काम है।

हिंदू में क्या और है, मुसलमान में और।

साहिब सब का एक है, ब्याप रहा सब ठौर॥

वह ईश्वर हिंदुओं का कोई दूसरा और मुसलमानों का क्या कोई और है? वह सर्वव्यापक प्रभु तो हिंदू और मुसलमान दोनों का एक ही है।

औघट घाट पखेरुवा, पीवत निरमल नीर।

गज गरुवाई तैं फिरै, प्यासे सागर तीर॥

उथले या कम गहरे घाटों पर भी पक्षी तो निर्मल पानी पी लेते हैं, पर हाथी बड़प्पन के कारण समुद्र के तट पर भी (जहाँ पानी गहरा हो) प्यासा ही मरता है।

जान अजान होत, जगत विदित यह बात।

बेर हमारी जान कै, क्यों अजान होइ जात॥

यह बात संसार में प्रसिद्ध है कि कोई भी जानने वाला आदमी संसार में अनजान नहीं हो सकता। पर हे भगवान! आप मेरी वारी मेरे उद्धार की बात जानते हुए भी क्यों अनजान बने हुए हो।

दंपति चरण सरोज पै, जो अलि मन मंडराई।

तिहि के दासन दास कौ, रसनिधि अंग सुहाइ॥

श्री राधाकृष्ण के चरण-कमलों पर जिनका मनरूपी भ्रमर मँडराता रहता है, उनके दासों के भी दास की संगति मुझे बहुत सुहानी लगती है।

श्रवत रहत मन कौं सदा, मोहन-गुन अभिराम।

तातैं पायो रसिकनिधि, श्रवन सुहायौ नाम॥

इन कानों में श्रीकृष्ण के सुंदर गुण स्रवित होते रहते हैं। रसनिधि कहते हैं कि इसीलिए इनको ‘श्रवन’ जैसा सुंदर नाम प्राप्त हुआ है।

कहै अलप मति कौन बिध, तेरे गुन बिस्तार।

दीन-बंधु प्रभु दीन कौं, लै हर बिधि निस्तार॥

हे भगवान! मैं छोटी बुद्धि वाला भला आपके गुणों के विस्तार का किस प्रकार वर्णन कर सकता हूँ। हे दीनबंधु! मुझ दीन का आप प्रत्येक प्रकार से उद्धार कर दीजिए अथवा मेरा सदा ध्यान रखते रहिए।

पाप पुण्य अरु जोति तैं, रवि ससि न्यारे जान।

जद्यपि सो सब घटन मैं, प्रतिबिंबित है आन॥

सूर्य और चंद्रमा यद्यपि सब हृदयों में प्रतिबिंबित और प्रकाशित होते हैं, फिर भी वे उनके पाप-पुण्यों और प्रकाश से अलग रहते हैं। (इसी प्रकार वह व्रह्म भी सब के हृदय में विद्यमान रहते हुए भी उनके पाप-पुण्यों से सदा निर्लिप्त रहता है।)

गरजन में पुनि आपु ही, बरसन में पुनि आपु।

सुरझन में पुनि आपु त्यौं, उरझन में पुनि आपु॥

बादलों के गरजने में भी वह ब्रह्म ही है एवं उनके बरसने में भी वही व्याप्त हो रहा है। सुलझने में भी वही है और उलझने में भी वही है। अर्थात सारे संसार में उसके सिवाय और दूसरा कोई नहीं है।

अब तो प्रभु तारै बनै, नातर होत कुतार।

तुमहीं तारन-तरन हौ, सो मोरै आधार॥

हे भगवान! अब तो मेरा उद्धार करने से ही बात बनेगी नहीं तो सब बात बिगड़ जाएगी। भक्तों का उद्धार करने वाले हे प्रभू! एक तुम्हीं मेरे आधार हो।

जब देखौ तब भलन तैं, सजन भलाई होहि।

जारै-जारै अगर ज्यौं, तजत नहीं खस बोहि॥

भले पुरुषों से सज्जनों की भलाई ही होती है। जैसे कि अगर को जलाया जाए तो उससे सुगंध ही आती है वह जलने पर भी अपनी सुगंधि को नहीं छोड़ता। इसी प्रकार सज्जन कष्ट सहकर भी दूसरों का उपकार करते हैं।

धनि गोपी धनि ग्वाल वे, धनि जसुदा धनि नंद।

जिनके मन आगे चलै, धायौ परमानंद॥

रसनिधि कहते हैं कि वे गोपी, ग्वाल, यशोदा और नंद बाबा धन्य हैं, जिनके मन के आगे आनंदकंद श्रीकृष्ण सदा दौड़ा करते थे।

अद्भुत गति यह रसिकनिधि, सरस प्रीत की बात।

आवत ही मन साँवरो, उर कौ तिमिर नसात॥

रसनिधि कहते हैं कि श्रीकृष्ण की रसभरी प्रीति की बड़ी अनोखी बात है कि मन में साँवले (काले रंग) के आते ही हृदय का अंधकार नष्ट हो जाता है। आश्चर्य यही है कि काली चीज़ के आने पर तो अंधेरा बढ़ना चाहिए, पर यहाँ पर तो वह अंधेरा काली वस्तु से नष्ट हो जाता है।

पसु पच्छी हू जानहीं, अपनी अपनी पीर।

तब सुजान जानौं तुमैं, जब जानौ पर-पीर॥

रसनिधि कहते हैं कि अपने दुःख-दर्द को तो पशु-पक्षी भी पहचानते हैं, पर सज्जन तो वही है जो दूसरों के दुखः-दर्द को पहचाने और उन्हें दूर करने का यत्न करे।

परम दया करि दास पै, गुरु करी जब गौर।

रसनिधि मोहन भावतौ, दरसायौ सब ठौर॥

जब गुरुदेव ने अपने इस दास पर बड़ी भारी दया कर के कुछ ध्यान दिया तो सभी स्थानों में अर्थात सृष्टि के अणु-अणु में उस परम प्रिय श्रीकृष्ण का दर्शन दिया।

कहुँ गावै नाचै कहूँ, कहूँ देत है तार।

कहूँ तमासा देखही, आपु बैठ रिझवार॥

वह ब्रह्म कहीं नाचता है, कहीं गाता है, कहीं ताल देता है और कहीं बैठा प्रसन्न होकर दर्शक के रूप में तमाशा देखता है। भाव यह कि ब्रह्म ही अनेक रूपों में व्याप्त है।

धरि सौने कै पींजरा, राखौ अमृत पिवाइ।

विष कौ कीरा रहत है, विष ही मैं सुख पाइ॥

ज़हर के कीड़े को चाहे सोने के पिंजरे में भी क्यों रखें और अमृत भी क्यों पिलाएँ फिर भी वह तो ज़हर खाकर ही प्रसन्न होगा। भाव यह है कि दुष्ट पुरुष अपनी दुष्टता कभी नहीं छोड़ता, चाहे उसे कितना ही सुख क्यों दो।

उड़ौ फिरत जो तूल सम, जहाँ-जहाँ बेकाम।

ऐसे हरुये कौ धर्यौ, कहा जान मन नाम॥

जो मन रुई के समान व्यर्थ ही इधर-उधर उड़ता फिरता है, ऐसी हल्की वस्तु का जाने क्यों ‘मन’ अर्थात चालीस किलो वज़न का इतना भारी नाम रखा है।

कहुँ नाचत गावत कहूँ, कहूँ बजावत बीन।

सब मैं राजत आपुही, सब ही कला प्रबीन॥

वह ब्रह्म कहीं गाता, कहीं बीन बजाता, कहीं नाचता है। सभी कलाओं में निपुण वह ईश्वर ही सब रूपों में सुशोभित हो रहा है।

मैं जानी रसनिधि सही, मिलि दुहुनि की बात।

जित दृग तित चित जात है, जित चित तित दृग जात॥

रसनिधि कहते हैं कि मैंने यह भली-भाँति जान लिया है कि मन और आँखों ने परस्पर अपनी बात बना ली है क्योंकि जहाँ नेत्र जाते हैं वहीं मन चला जाता है और जहाँ मन जाता है वहाँ आँखें भी चली जाती हैं।

चल सकै निज ठौर तैं, जे तन द्रुम भिराम।

तहाँ आइ रस बरसिबौ, लाजिम तुहि घनस्याम॥

रसनिधि बादल को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हे बादल! जो बेचारे सुंदर वृक्ष अपने स्थान से चल नहीं सकते, उन वृक्षों के पास आकर रस की वर्षा करना तुम्हारा ही काम है।

तेरी है या साहिबी, बार पार सब ठौर।

रसनिधि कौ निसतार लै, तुही प्रभू कर गौर॥

रसनिधि कवि कहते हैं कि हे भगवान! इस संसार के आर या पार सभी स्थानों में तेरी प्रभुता व्याप्त हो रही है। इसका आदि अंत भला कौन पा सकता है, यह तुम्हीं बताओ।

जलहूँ में पुनि आपु ही, थलहूँ में पुनि आपु।

सब जीवन में आपु है, लसत निरालौ आपु॥

वह ब्रह्म जल में भी स्वयं है स्थल में भी आप ही शोभित हो रहा है। सब जीवों में निराला वह प्रभु स्वयं ही सुशोभित हो रहा है। भाव यह कि परमात्मा सर्वव्यापक है।

घरी बजी घरयार सुन, बजिकै कहत बजाइ।

बहुकि पैहै यह घरी, हरिचरनन चित लाइ॥

एक-एक घंटे के बाद घंटे में टन से घड़ी बजती है। एक बार बजकर वह फिर बजती है और तुम्हें यह कहती है कि मनुष्य-जन्म की ऐसी सुंदर घड़ी फिर नहीं आएगी। इसलिए भगवान के चरणों में अपना चित्त लगाओ।

नंदलाल संग लग गए, बुध बिचार बर ज्ञान।

अब उपदेसनि जोग ब्रज, आयो कौन सयान॥

ब्रज में उपदेश देने के लिए उद्धव को आया जानकर गोपियाँ परस्पर कहती हैं कि हमारी बुद्धि, विचार और ज्ञान पहले ही श्रीकृष्ण के साथ चले गए, अब यहाँ ऐसा कौन है जो किसी का उपदेश सुन सके! फिर जाने कोई चतुर हमें उपदेश देने क्यों आया है। भाव यह कि हम यहाँ उद्धव के निर्गुणवाद का उपदेश नहीं सुनना चाहती।

कपटौ जब लौं कपट नहिं, साँच बिगुरदा धार।

तब लौं कैसे मिलैगौ, प्रभु साँचौ रिझवार॥

हृदय में सच्चा उत्साह उत्पन्न करके जब तक तुम अपने हृदय के कपट को दूर नहीं कर दोगे, तब तक वह सच्चा प्रेमी परमप्रभु भला तुम्हें कैसे मिल सकता है!

जौ कुछ उपजत आइ उर, सो वे आँखें देत।

रसनिधि आँखें नाम इन, पायो अरथ समेत॥

रसनिधि कवि कहते हैं कि हृदय में जो कुछ विचार उत्पन्न होते हैं, उन्हें ये आँखें ‘आख’ देती हैं अर्थात कह देती हैं। इसीलिए इनका यह सार्थक ‘आँखे’ नाम है। (पंजाबी में ‘कह’ ‘देने’ को ‘आख देना’ कहते हैं।)

गंग प्रगट जिहि चरण तैं, पावन जग कौ कीन।

तिहि चरनन कौ आसरौ, आइ रसिकनिधि लीन॥

रसनिधि कहते हैं कि भगवान विष्णु के जिन चरणों से प्रकट हुई गंगा ने सारे संसार को पवित्र कर दिया, मैंने भगवान के उन्हीं चरणों का सहारा ले लिया है।

प्रीतम इतनी बात कौ, हिय कर देखु बिचार।

बिनु गुन होत सु नैकहूँ, सुमन हिए कौ हार॥

हे सज्जनों, तुम अपने मन में इस बात को विचार कर देख लो कि बिना गुणों के कोई भी व्यक्ति किसी भी शुद्ध मन वाले व्यक्ति के हृदय का हार नहीं हो सकता। जैसे कि बिना धागे के कोई भी हृदय का हार नहीं बन सकता। फूल जब धागे में पिरोएँ जाते हैं, तभी हार बनकर दूसरों के हृदयों पर स्थान प्राप्त कर सकते हैं। इसी प्रकार मनुष्य भी तभी किसी के हृदय में स्थान प्राप्त कर सकता है जब उसमें गुण हों। बिना गुणों के कोई किसी को नहीं पूछता।

तेरे घर विधि कौं दयौ, दयौ कोऊ खात।

गोरस हित घर-घर लला, काहे फिरत ललात॥

घर-घर मक्खन चुराते हुए श्रीकृष्ण को रोकती हुई यशोदा कहती है कि हे लाल! हमारे घर भगवान का दिया बहुत कुछ है। हम किसी का दिया नहीं खाते। फिर तुम गोरस अर्थात दूध आदि के लिए घर-घर में क्यों ललचाते फिरते हो। तुम्हारे लिए यह उचित नहीं कि तुम दूध-दही के लिए दूसरों घर भटकते फिरो।

गह्यौ ग्राह गज जिगि समै, पहुँचत लगी बार।

और कौन ऐसे समै, संकट काटनहार॥

जिस समय हाथी को मगरमच्छ ने पकड़ लिया और ग्राह उसे खींच कर पानी में ले जाने लगा तो भगवान द्वारा गज को बचाने में कुछ भी देर नहीं लगी। ऐसे समय में भक्तों के संकट को काटने वाले भगवान के सिवाय भला और कौन हो सकता है।

प्यास सहत पी सकत नहिं, औघट घाटनि पान।

गज की गरुवाई परी, गज ही के गर आन॥

हाथी प्यास सह लेता है पर औघट अर्थात कम गहरे घाट में पानी नहीं पी सकता। इस प्रकार हाथी के बड़प्पन का दोष हाथी के गले ही पड़ा कि कम गहरे पानी से पानी नहीं पी सकता और प्यासा ही रहता है।

रस ही में रसिक में, आपुहि कियौ उदोत।

स्वाति-बूँद में आपु ही, आपुहि चात्रिक होत॥

उस ब्रह्म ने रस में भी अपना प्रकाश किया हुआ है और रसिक में भी वह स्वयं ही प्रकाशित हो रहा है। पपीहा जिसके लिए तरसता रहता है, उस स्वाति नक्षत्र की वर्षा की बूँद में भी वही है और पपीहा भी वही है।

जदपि रहौ है भावतौ, सकल जगत भरपूर।

बल जैयै वा ठौर की, जहँ ह्वै करै जहूर॥

यद्यपि वह परम प्रियतम परब्रह्म सर्वत्र व्याप्त हो रहा है, फिर भी राम-कृष्ण आदि के जिन-जिन विग्रहों या शरीरों के द्वारा वह अपनी कांति का प्रकाश करता है, मैं उनकी बलिहारी हूँ।

सज्जन पास कहु अरे, ये अनसमझी बात।

मोम-रदन कहुँ लोह के, चना चबाये जात॥

हे भाई सज्जनों के पास कोई मूर्खता की बात मत कहो भला कहीं मोम के दाँतों से भी लोहे के चने चबाए जा सकते हैं। भाव यह है कि जैसे मोम के दाँतों से लोहे के चने नहीं चबाये जा सकते वैसे ही समझदार मूर्खता की बात को नहीं मान सकते।

रूप दृगन स्रवनन सुजस, रसना में हरिनाम।

रसनिधि मन में नित बसैं, चरन कमल अभिराम॥

मेरे नेत्रों में भगवान का स्वरूप, कानों में भगवान के गुणगान के शब्द, जिह्वा में भगवान का नाम और मन में भगवान के सुंदर चरण-कमल सदा निवास करें।

जल समान माया लहर, रबि समान प्रभु एक।

लहि वाके प्रतिबिंब कौं, नाचत भाँति अनेक॥

यह माया तो जल की लहर के समान है और वह एक प्रभु परमात्मा सूर्य के समान है। उस परमात्मा रूपी सूर्य के प्रतिबिंब माया रूपी जल की लहरों में अनेक रूप धारण कर प्रतिबिंब हो रहे हैं।

हरि बिनु मन तुव कामना, नैकु आवै काम।

सपने के धन सौं भरे, किहि लै अपनौ धाम॥

भगवान के बिना तेरी कोई कामना किसी काम आएगी। भला बताओ तो सही कि सपने के धन से किसने अपना घर भरा है अर्थात किसी ने नहीं भरा। जैसे स्वप्न के धन से कोई अपना घर नहीं भर सकता, वैसे ही भगवान के बिना किसी की इच्छा पूरी नहीं हो सकती। इसलिए और सब कामों को छोड़कर भगवान का स्मरण करना चाहिए।

लखि वड़यार सुजातिया, अनख धरै मन नाहिं।

बड़े नैन लखि अपुन पै, नैनन सही सिहांहि॥

कुलीन लोग अपनी जाति वालों को बढ़ता देखकर मन में जलन नहीं रखते हैं जैसे बड़ी आँखों को देखकर आँखें अत्यंत प्रसन्न शीतल हो जाती हैं।

बैठत इक पग ध्यान धरि, मीनन कौं दुख देत।

बक मुख कारै हो गए, रसनिधि याही हेत॥

ये बगुले ऊपर से तो ऐसे दीखते हैं कि मानो एक पाँव पर खड़े होकर तपस्या कर रहे हैं और भगवान का ध्यान कर रहे हैं, ये मछलियों को पकड़ कर खा जाते हैं; इस प्रकार उन्हें दुःख देते हैं। रसनिधि कहते हैं कि मानो इसी पाप के कारण ही बगुलों के मुख और चोंच काली हो गई है।

गुल गुलाब अरु कमल कौ, रस लीन्हौं इक ताक।

अब जीबन चाहत मधुप, देख अकेली आक॥

इस भौंरे ने अब तक तो गुलाब और कमल के फूलों का मन भर के रसपान किया है पर अब उसे अकेले आक के पौधों में अपना जीवन बिताना पड़ रहा है। भाव यह कि जो मनुष्य पहले बहुत सुख देखता है, बाद में उसे दुःख भी देखने पड़ते हैं।

बीज आपु जर आपु ही, डार पात पुनि आपु।

फूलहि में पुनि आपु फल, रस में पुनि निधि आपु॥

बीज में और जड़ में भी वह ब्रह्म स्वयं ही समाया हुआ है। शाखाओं या डालियों, पत्तों, फूलों, फलों और रसों में भी वह स्वयं ही व्याप्त हो रहा है।

इतनौई कहनौ हतौ, प्रीतम तौसौं मोहि।

मान राखबी बात तौ, मान राखनौ तोहि॥

हे प्रियतम, मुझे तुमसे इतना ही कहना था कि यदि तुम अपनी बात मनाना चाहते हो तो तुम्हें दूसरे का मान करना चाहिए। भाव यह कि तुम दूसरे का मान करोगे तो दूसरे भी तुम्हारी बात मानेंगे।

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