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सीतामऊ नरेश। वास्तविक नाम रामसिंह। काव्य-भाषा ब्रजी।

सीतामऊ नरेश। वास्तविक नाम रामसिंह। काव्य-भाषा ब्रजी।

मोहन के दोहे

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रति-मदहर-वृषभानुजा, मूठि गुलालहि संग।

भेंट कियो ब्रजराज को, चंचल चित्त मतंग॥

सरद-रैनि स्यामा सुभग, सोवति माधौ-संग।

उर उछाह लिपटति सुघर, राजत अंग अनंग॥

प्रियतम को पोख्यो चहैं, प्रेम-पियासे नैन।

आँसु निगोरे चहत हैं, औसर पै दुख दैन॥

एक-रदन विद्या-सदन, उमा-नँदन गुन-कोष।

नाग-बदन मोदक-अदन, बिघन-कदन हर दोष॥

फूलत कहा सरोज! तू, निज छबि अतुलित जान।

मम प्यारी मुख-कंज लखि, मिटि जैहै अभिमान॥

सुबरन तकि सुबरन लखै, पंकज लखि निज नैन।

पेखि कुंभ निरखति कुचनि, पिक-धुनि सुनि मुख-बैन॥

जे तुमको दोषी कहत, ते नहिं मोहिं सुहात।

तुम इन राधा-नयन मैं, स्याम सदा अवदात॥

मंद-हँसनि चितवनि कुटिल, रसना-नूपुर-नाद।

हर्यो चित्त यों लाल को, कछु ना लगत सवाद॥

घुमड़ी नभ उमड़ी घटा, चपला-चमक अतंत।

बारि-बूँद बरसत घनी, बिरहिन-बिथा अनंत॥

जो कछु लघुता करत हौ, सो असीम है ईस!

फिरि यह मो पायन परन, अति अनुचित ब्रजधीस॥

जिन कजरारे नैन ने, कजरारो मुख कीन।

तिनपै बेगि सिधाइये, मोहन! परम प्रवीन॥

सुबरन! जो सुबरन चहत, सम प्यारी के अंग।

तपहिं तपे बिन पाइहौ, किमि वह सुंदर रंग॥

बल बाढ़्यो रितुपति-पवन, पुहुप कीन बलवीर।

मदन-उरग-उर-बिच डसत, लाँघि उरग तिय-धीर॥

गति गयंद केहरी कटि, मंद हँसनि मुख इंदु।

नयन उभय सोभित भये, द्वै दल मनु अरविंदु

आयो ना रितुराज पै, है यह दल जमराज।

सुमन सस्त्र सों मारिहै, बिना मित्र ब्रजराज॥

पद पखारि मृदु बैन तैं, आदर कीन्हों पूर।

ज्यों पिय आवत तिय निकट, त्यों हँसि भाजति दूर॥

श्रवन परत जाकी ध्वनी, भूलत पसु तन-भान।

जो सुनि मूढ़न रीझिहै, चूक बीन सुजान॥

मेघराज! तब लौं सदा, बरस गरजि करि रोस।

द्रव्यराज! जौलौं नहीं, जो बरसत निसि-द्योस॥

‘मोहन’ के मुख लागि वह, बिसरि गई तुहि बात।

यातैं तू निरदइ भई, करन लगी यों घात॥

कमल विमल तैं पूजिबो, सिव को अधिक सोहात।

जैंहौं तिनको ताल पै, लेन अकेलो प्रात॥

मो तैं कछु अपराध नहिं, बन्यो भूलि सुख-दान।

बंक भौंह तुव लसति मनु, पूरन खिंची कमान॥

मैं ना सखी निहारिहौं, इन नैनन ब्रज-चंद।

मम हिय अति डरपत सदा, फँसि जैहौं छलछंद॥

मलयाचल-चन्दन सदा, पन्नग जो लपटाय।

सो किमि जावै नीम-ढिंग, अचरज मोंहि लखाय॥

चूक भई मोतैं नहीं, संक कछु उर धार।

भौंह बंक करि मोहि क्यों, देत सुमन की मार॥

गज-मुक्ता-फल! करु मद, निज अमोलता जान।

तुव कारन पितु-द्विरद के, गये बिपिन बिच प्रान॥

सखी! गई हौं सदन मैं, भई पिय सों भेंट।

दीपक की दीपति लगी, मनौ घाम दिन जेठ॥

सोंच करु एला-लता! ऊँट-अनादर मान।

गाहक तव सुभ गुनत के, अगनित गुनी जहान॥

पेखि सेज हितु-बिनु भयो, प्रभा-रहित मुखचंद।

जैसे व्याकुल भृंग लखि, कंज हीन-मकरंद॥

जब तैं मोहन-नैन तैं, जुरे निगोड़े नैन।

दरस बिना धीर धरत, निसि-दिन रहत अचैन॥

मधुकर! जदपि गुलाब-वन, नित तू करत विलास।

फिरि-फिरि चित चाहत तऊँ, अमल कमल को बास॥

हे पिक! तजि या अंब कौ, भजि जाओ थल आन।

यहाँ प्रान बचिहैं नहीं, मच्यो काग-घमसान॥

यदपि कुसुम केतकि बड़ो, करत अलि तहँ नाद।

तहाँ सबै गुन गाइहैं, जहाँ मिलत रस-स्वाद॥

हरि फारत गज देखि यों, जंबुक! क्यों अनखात?

बिधि नै मोहि क्यों नहिं दियो, एतो बल बिच गात॥

हाव, भाव, तिरछे नयन, चित मेरो बस कीन।

कितिक बात बसु देन की, असु जब तव आधीन॥

सागर! तू निज तनय लखि, क्यों एतो इतराय।

रतनाकर गौरव कहा, दोषाकर-सुत पाय॥

कर-लाघव विधि नै लह्यो, रचि कै प्रथम निसेस।

यातैं यह तव बिधु-बदन, बिधु तैं बन्यो बिसेस॥

नाग-लता! खेद करौ, लखि कुसुमिति तरु कुंज।

रुचिकर इन सब सुमन तैं, हीन तव दल पुंज॥

सुमन-माल राखि सकौं, अलि! सकौं उतार।

अलि रीझे हरि खीझि हैं, पग-पग होत विचार॥

धन्य पद्मिनी जासु नित, अचल नेह रबि माहिं।

जाको लखि बिकसित सखी, बिन देखे मुरझाहिं॥

अंक-युक्त ससधर जबै, ताप-हरन परबीन।

क्यों करै बिधु-बदन, अंक-हीन दुख छीन॥

नित नव मधु चाखत मधुप, तऊँ पावत तोष।

मान भूलि बंधन सहत, पान-प्रीति के दोष॥

नागफनी! तू सूल-पय, राखत विषधर पास।

तापै फल लघु कंटकित, कौन करै तव आस॥

नबला! सखी-समाज मैं, लाज रही तन छाय।

नाह कहन नाहीं कियो, अब तू क्यों कुम्हिलाय॥

नेह-बिनासक उर-मलिन, उज्वल उपरि अपार।

सलभ! दीप तैं प्रीति करि, क्यों जरि होवत छार॥

डारत रंग कुसुंभ नहिं, राधे हरि पै आय।

गेरति है अनुराग-रँग, जो उर बढ़ि उफनाय॥

जदुपति सब महिलान-संग, रच्यो मनोहर फाग।

बरसायो इमि रंग को, इक रही बिन राग॥

झूलत जोर हिंडोर जब, चढ़ि अंबर-बिच जायँ।

तड़ित-मुदिर-महँ मिलि रहे, लली-लाल लखायँ॥

कलिका जदपि गुलाब की, सरस नहीं दरसाय।

तउ सेवती सेइबो, मधुकर! उचित लखाय॥

मधुर वीन-बिच-लीन करि, मृग मारत सर साध।

यों सु रसिक-जीवन-हरन, नहिं सुहात मोंहि ब्याध!

चुप साधे राधे प्रिये! इमि किमि बैठी आज।

सिसकति यह बोली बचन, अनुकंपा ब्रजराज॥

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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