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मतिराम

रीतिकाल के महत्त्वपूर्ण कवि। निश्छल भावुकता, सूक्ष्म कल्पनाशीलता और सुकुमार भावों के अत्यंत ललित चित्रण के लिए प्रसिद्ध।

रीतिकाल के महत्त्वपूर्ण कवि। निश्छल भावुकता, सूक्ष्म कल्पनाशीलता और सुकुमार भावों के अत्यंत ललित चित्रण के लिए प्रसिद्ध।

मतिराम के दोहे

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फूलति कली गुलाब की, सखि यहि रूप लखै न।

मनौ बुलावति मधुप कौं, दै चुटकी की सैन॥

एक सखी दूसरी सखी से चटचटा कर विकसित होती हुई कली का वर्णन करती हुई कहती है कि हे सखि, इस खिलती हुई गुलाब की कली का रूप तो देखो न। यह ऐसी प्रतीत होती है, मानो अपने प्रियतम भौंरे को रस लेने के लिए चुटकी बजाकर इशारा करती हुई अपने पास बुला रही हो।

तेरी मुख-समता करी, साहस करि निरसंक।

धूरि परी अरबिंद मुख, चंदहि लग्यौ कलंक॥

हे राधिके, कमल और चंद्रमा ने तुम्हारे मुख की समता करने का साहस किया, इसलिए मानो कमल के मुख पर तो पुष्परज के कण रूप में धूल पड़ गई, और चंद्रमा को कलंक लग गया। यद्यपि कमल में पराग और चाँद में कलंक स्वाभाविक है तथापि उसका यहाँ एक दूसरा कारण राधा के मुख की समता बताया गया है।

प्रतिपालक सेवक सकल, खलनि दलमलत डाँटि।

शंकर तुम सम साँकरैं, सबल साँकरैं काटि॥

सब सेवकों का पालन करने वाले और दुष्टों का दमन करने वाले—नष्ट-भ्रष्ट कर देने वाले—हे भगवान् शंकर! आपके समान दु:खों या कष्टों की मज़बूत शृंखलाओं—ज़ंजीरों को काटने वाला भला मेरे लिए और दूसरा कौन है!

रोस करि जौ तजि चल्यौ, जानि अँगार गँवार।

छिति-पालनि की माल में, तैंहीं लाल सिंगार॥

हे लाल! यदि तुझे कोई गँवार मनुष्य, जो तेरे गुणों को नहीं पहचानता, छोड़कर चला भी गया तो भी कुछ बुरा मत मान; क्योंकि गँवार लोग भले ही तुम्हारा आदर करें पर राजाओं के मुकुटों का तो तू ही शृंगार है। भाव यह है कि किसी विद्वान् गुणी व्यक्ति का कोई मूर्ख यदि आदर भी करे तो भी उसे दु:खी नहीं होना चाहिए, क्योंकि समझदार लोग तो उसका सदा सम्मान ही करेंगे।

कपट वचन अपराध तैं, निपट अधिक दुखदानि।

जरे अंग में संकु ज्यौं, होत विथा की खानि॥

अपराध करने से भी अपराध करके झूठ बोलना और कपट-भरे वचनों से उस अपराध को छिपाने का प्रयत्न करना बहुत अधिक दु:ख देता है। वे कपट वचन तो जले हुए अंग में मानो कील चुभाने के समान अधिक दु:खदायक और असत्य प्रतीत होते हैं।

सुबरन बेलि तमाल सौं, घन सौं दामिनी देह।

तूँ राजति घनस्याम सौं, राधे सरिस सनेह॥

सोने की बेल तमाल वृक्ष से और बादल से बिजली का शरीर जिस प्रकार शोभित होता है, हे राधिका! सदृश स्नेह के कारण तू वैसे ही घनश्याम से शोभित होती है। भाव यह है कि तमाल वृक्ष, बादल और कृष्ण, इन तीनों श्याम वर्ण वालों से स्वर्णलता, बिजली और राधिका ये तीनों गौर वर्ण वाली अत्यंत सुशोभित होती हैं।

अति सुढार अति ही बड़े, पानिप भरे अनूप।

नाक मुकत नैनानि सौं, होड़ परि इहिं रूप॥

इस सुंदरी के नाक के आभूषण के मोती और नैनों में मानो होड़-सी लग गई है, क्योंकि दोनों ही सुंदर, अनुपम और कांति से परिपूर्ण हैं। मोती भी सुंदर है आँखें भी। मोती भी सुडौल है, आँखें भी वैसी ही हैं। अत: मानों दोनों में होड़-सी लगी है कि कौन किस से सुंदर है।

मुकुत-हार हरि कै हियैं, मरकत मनिमय होत।

पुनि पावत रुचि राधिका, मुख मुसक्यानि उदोत॥

श्रीकृष्ण के हृदय पर पड़ा हुआ सफ़ेद मोतियों का हार भी उनके शरीर की श्याम कांति से मरकत मणि-नीलम-के हार के समान दिखाई देता है। किंतु राधा के मुख की मुस्कराहट की श्वेत-कांति से नीलम का-सा बना हुआ वह मोतियों का हार फिर श्वेत-वर्ण कांति वाला बन जाता है।

राधा मोहन-लाल को, जाहि भावत नेह।

परियौ मुठी हज़ार दस, ताकी आँखिनि खेह॥

जिनको राधा और कृष्ण का प्रेम अच्छा नहीं लगता, उनकी आँखों में दस हज़ार मुट्ठी धूल पड़ जाए। भाव यह कि जो राधा-कृष्ण के प्रेम को बुरा समझते हैं, उन्हें लाख बार धिक्कार है।

स्याम-रूप अभिराम अति, सकल विमल गुन-धाम।

तुम निसिदिन मतिराम कइ, मति बिसरौ मतिराम॥

हे संपूर्ण श्रेष्ठ निर्मल गुणों के भंडार अत्यंत सुंदर भगवान् राम! तुम मतिराम का विचार अपने हृदय में से क्षण भर भी दूर मत करो अर्थात् तुम सदा मेरा ध्यान रखते रहो।

अधम अजामिल आदि जे, हौं तिनकौ हौं राउ।

मोहूँ पर कीजै दया, कान्ह दया दरियाउ॥

हे भगवान्! अजामिल आदि जितने भी नीच पापी हुए हैं, मैं उनका भी सरदार हूँ। इसलिए हे श्रीकृष्ण, हे दया के सागर, जिस प्रकार आपने अजामिल आदि अनेक पापियों का उद्धार किया वैसे ही मेरा भी उद्धार कीजिए।

अंग ललित सित-रंग पट, अंग राग अवतंस।

हंस-बाहिनी कीजियै, बाहन मेरौ हंस॥

अपने सुंदर अंगों पर श्वेत वस्त्र धारण किए हुए और अपने मस्तक की माँग में सिंदूर लगाए हुए हे हंसवाहिनी सरस्वती! आप मेरे मन रूपी हंस को ही अपना वाहन बनाइए। अर्थात् हे भगवती सरस्वती! आप मेरे मन में ही वास कीजिए।

मो मन मेरी बुद्धि लै, करि हर कौं अनुकूल।

लै त्रिलोक की साहिबी, दै धतूर कौ फूल॥

हे मेरे मन, मेरी बुद्धि को लेकर भगवान् शंकर के अनुकूल बना दे, अर्थात् मुझे भगवान् शंकर का भक्त बना दे, क्योंकि उन पर भक्त केवल धतूरे के पुष्प चढाकर ही तीनों लोकों का आधिपत्य प्राप्त कर लेता है। भाव यह कि भगवान् शंकर आशुतोष हैं, वे तत्काल प्रसन्न हो जाते हैं। अत: उन्हीं की भक्ति करनी चाहिए।

सरद चंद की चाँदनी, को कहियै प्रतिकूल।

सरद चंद की चाँदनी, कोक हियै प्रतिकूल॥

शरद ऋतु के चंद्रमा की चाँदनी किसके हृदय के विरुद्ध है—किसके हृदय को अच्छी नहीं लगती, इसका उत्तर यह है कि ‘कोक हिये’ अर्थात् कोक (चकवे) के हृदय को शरद् ऋतु के चाँद की चाँदनी भी अच्छी नहीं लगती।

मेरी मति मैं राम हैं, कबि मेरे ‘मतिराम’।

चित मेरौ आराम में, चित मेरे आराम॥

कवि मतिराम कहते हैं कि मेरी बुद्धि में सदा राम बसे हुए हैं। मेरे चित्त में बडा आराम या शांति है और मेरे मन में चारों ओर से भगवान् राम व्याप्त हो रहे हैं।

करौ कोटि अपराध तुम, वाके हियै रोष।

नाह-सनेह-समुद्र में, बूड़ि जात सब दोष॥

एक सखी दूसरी मानवती सखी को संबोधित करती हुई कहती है कि तुम अपने प्रियतम के प्रति चाहे करोड़ों अपराध क्यों करो, उसके हृदय में तुम्हारे प्रति कभी क्रोध नहीं आता। उसके प्रेम रूपी समुद्र में तुम्हारे सब दोष डूब जाते हैं।

देखैं हूँ बिन देखि हूँ, लगी रहै अति आस।

कैसे हूँ बुझाति है, ज्यौं सपने की प्यास॥

एक सखी दूसरी सखी से कहती है कि प्रियतम को यदि देखती हैं तो भी उनको और अधिक देखते रहने की इच्छा बनी रहती है और यदि वे नहीं दीखते हैं तो इच्छा का बना रहना स्वाभाविक ही है। जिस प्रकार स्वप्न की प्यास किसी प्रकार नहीं बुझती वैसे ही प्रियतम के दर्शन की लालसा भी उन्हें देखें या देखें दोनों ही अवस्था में बनी रहती है।

भौंर भाँवरैं भरत हैं, कोकिल-कुल मँडरात।

या रसाल की मंजरी, सौरभ सुख सरसात॥

इस ग्राम की मंजरी पर कहीं तो भँवरे मँडरा रहे हैं और कहीं कोयल मस्त हो रही है; इस प्रकार यह आम्रमंजरी सुगंधि और सुख को सरसा रही है।

जो निसिदिन सेवन करै, अरु जो करै विरोध।

तिन्हैं परम पद देत प्रभु, कहौ यह बोध॥

हे भगवन्! आपकी भी यह क्या समझ है कि जो लोग रात-दिन आपका भजन करते हैं, उन्हें तो भला आप मोक्ष देते ही हैं किंतु जो लोग (रावण आदि) आपका विरोध करते हैं, उन्हें भी आप मोक्ष दे देते हैं। अर्थात् भगवान् शत्रु और मित्र को समभाव से देखते हैं।

मुंज गुंज के हार उर, मुकुट मोर पर-पुंज।

कुंज बिहारी बिहरियै, मेरेई मन-कुंज॥

हृदय पर गुंजाओं की माला धारण किए हुए, मस्तक पर मोर के पंखों से सुशोभित मुकुट पहने हुए कुंज-बिहारी—कुंजों में विहार करने वाले हे श्रीकृष्ण! आप मेरे ही मनरूपी कुंजों में विहार कीजिए।

दिन में सुभग सरोज है, निसि में सुंदर इंदु।

द्यौस राति हूँ चारु अति, तेरो बदन गोबिंदु॥

कमल तो दिन में ही खिलता और सुंदर लगता है और चंद्रमा रात्रि ही को चमकता है। पर हे श्रीकृष्ण! तुम्हारा मुख दिन तथा रात्रि में भी दोनों ही समय सुशोभित होता रहता है। अर्थात् तुम्हारा मुख कमल एवं चंद्रमा दोनों से अधिक सुंदर है।

निडर बटोही बाट में, ऊखनि लेत उखार।

अरे ग़रीब गँवार तैं, काहै करत उजार॥

हे गँवार! तू ईख के खेत को क्यों व्यर्थ में उखाड़ रहा है क्योंकि इसके लगे रहने से राह चलते यात्री ईख को तोड़ कर या उखाड़ कर उसका रस चूसकर अपने पय-श्रम अर्थात् थकावट को मिटा लिया करते हैं। भाव यह है कि दूसरों का उपकार करने वाले सज्जनों को दुर्जन हानि पहुँचाते ही रहते हैं।

तनु आगैं कौं चलतु है, मन वाही मग लीन।

सलिल सोत में ज्यौं चपल, चलत चड़ाऊ मीन॥

शरीर तो आगे की ओर जाता है पर मन अपने प्रियतम की ओर पीछे लगा रहता है, जैसे नदी के पानी का प्रवाह आगे की ओर बढ़ता है किंतु चंचल चढ़ाऊ मछली उस प्रवाह के विरुद्ध जिधर से पानी रहा है उधर की ओर चढ़ती जाती है।

अद्भुत या धन को तिमिर, मो पै कह्यौ जाइ।

ज्यौं-ज्यौं मनिगन जगमगत, त्यौं-त्यौं अति अधिकाइ॥

इस धन का अंधकार बड़ा ही अद्भुत है, मैं इसका वर्णन नहीं कर सकता; क्योंकि ज्यों-ज्यों मणियों के समूह जगमगाते या चमकते हैं, त्यों-त्यों यह अंधकार बढ़ता ही जाता है। भाव यह है कि धन के आने पर मनुष्य की आँखों पर अँधेरा छा जाता है और अभिमान का अंधकार ज्यों-ज्यों संपत्ति बढ़ती है त्यों-त्यों बढ़ता ही जाता है। धन बढ़ने पर मनुष्य बड़ा अभिमानी हो जाता है।

दु:ख दीनै हूँ सुजन जन, छोड़त निज सुदेस।

अगरु डारियत आगि में, करत सुबासित देस॥

सज्जन दु:ख देन पर भी अपना स्वभाव नहीं छोड़ता। जैसे अगर को आग में भी डालो तो भी वह सारे स्थान को सुगंधित ही कर देता है। भाव यह कि सज्जन को चाहे कितना ही कष्ट क्यों दे पर वह तो दु:ख में पड़ कर भी दूसरे का उपकार ही करता है तथा अपने सज्जनता के स्वभाव को कभी नहीं छोड़ सकता। जैसे अगर को जलाने पर भी वह सुगंधि ही देता है अर्थात् आग में जल कर भी वह अगर दूसरों को सुगंधि द्वारा प्रसन्न करता है।

अनामिष नैन कहै कछु, समुझै सुनै कान।

निरखैं मोर पखानि कैं, भयो पखान समान॥

श्रीकृष्ण के मोरमुकुट को देखकर मैं इस प्रकार अपनी सुध-बुध खो बैठा और पत्थर के समान स्तब्ध हो गया कि टकटकी लगाए हुए जिन नेत्रों ने उस शोभा को देखा वे तो उसका वर्णन नहीं कर सकते और कान भी उसका वर्णन इसलिए नहीं कर सकते क्योंकि उन्होंने देखा नहीं।

कोटि-कोटि मतिराम कहि, जतन करौ सब कोइ।

फाटे मन अरु दूध में, नेह कबहूँ होइ॥

मतिराम कहते हैं कि चाहे कोई करोड़ों यत्न क्यों कर ले, फिर भी फटे दूध और फटे मन में कभी भी स्नेह (प्रेम और मक्खन) नहीं निकल सकता। दो मित्रों के हृदय यदि फट जाएँ, उनमें बैर-विरोध के भाव जाएँ तो फिर उनकी वैसी मित्रता नहीं हो सकती जैसे फटे दूध से मक्खन नहीं निकल सकता।

सेवक सेवा के सुनें, सेवा देव अनेक।

दीनबंधु हरि जगत है, दीनबंधु हर एक॥

सेवा करने वाले सेवक हैं और सेवा करने पर तो अनेक देवता प्रसन्न हो जाते हैं, किंतु संसार भर में दीन दुखियों के बंधु तो एक भगवान् ही हैं।

गुन औगुन कौ तनकऊ, प्रभु नहिं करत बिचार।

केतकि कुसुम आदरत, हर सिर धरत कपार॥

भगवान् अपने भक्तों के गुण या अवगुणों का विचार कभी नहीं करते। जैसे कि शिवजी केवड़े के सुगंधित पुष्प को भी अपने सिर पर धारण नहीं करते, और कपाल को प्रेमपूर्वक धारण करते हैं। भगवान् किसी के गुण या दोषों पर विचार कर सभी पर समान रूप से प्रेम करते हैं।

सुबरन बरन सुबास जुत, सरस दलनि सुकुमार।

ऐसे चंपक को तजै, तैंहीं भौंर गँवार॥

कवि कहता है कि हे भौंरे! तू बड़ा मूर्ख है जो तूने स्वर्ण के समान वर्ण-वाली अत्यंत कोमल और सुगंध से युक्त चंपे की कली को भी छोड़ दिया अर्थात् उसके पास भी नहीं जाता। यहाँ भौंरा पुरुष का प्रतीक है और पुष्प स्त्री का।

पीत अँगुलिया पहिरि कै, लाल लकुटिया हाथ।

धूरि भरे खेलत रहैं, ब्रजबासिन ब्रजनाथ॥

श्रीकृष्ण गले में पीला झग्गा या कुर्ता पहन कर हाथ में लाल छड़ी पकड़ कर धूल से भरे हुए अपने ब्रजवासी सखाओं के साथ खेलते हुए शोभित होते थे।

कौन भाँति कै बरनियै, सुंदरता नंद नंद।

तेरे मुख की भीख लै, भयौ ज्योतिमय चंद॥

हे श्रीकृष्ण! तुम्हारी सुंदरता का हम किस प्रकार वर्णन करें। तुम्हारी ही भीख को पाकर मानो यह चंद्रमा प्रकाशमान हो गया है। चंद्रमा को भी मानो तुमने अपनी ही थोड़ी-सी कांति दे दी है जिससे यह चमक रहा है।

पिसुन-बचन सज्जन चितै, सकै फोरि फारि।

कहा करै लगि तोय में, तुपक तीर तरवारि॥

चुग़लख़ोरों की बातें सज्जनों के दो मिले हुए हृदयों को फाड़ नहीं सकतीं। पानी में लगी हुई तोप, तीर, तलवार और भाला उसका क्या बिगाड़ सकते हैं। जिस प्रकार तीर, तोप या तलवार के लगने पर पानी वैसे का वैसा ही रहता है; वैसे ही दुष्ट चुग़लख़ोरों के इधर-उधर की बातें बनाने पर भी सज्जनों के मिले हुए हृदय अलग नहीं हो पाते। दुष्ट चाहे कितनी ही फूट डलवाने की चेष्टा करें तो भी दो सज्जनों के हृदय फट नहीं सकते।

पगीं प्रेम नंदलाल कैं, हमैं भावत जोग।

मधुप राजपद पाइकै, भीख माँगत लोग॥

गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे भ्रमर! श्रीकृष्ण के प्रेम में तन्मय हुई हमें तुम्हारी यह योग की बातें अच्छी नहीं लगतीं। राज्य-पद को पाकर भला भीख माँगना किसको अच्छा लगेगा। भाव यह है कि जैसे राज्य पाकर कोई भीख नहीं माँग सकता वैसे ही श्रीकृष्ण के प्रेम के सामने तुम्हारे योग की बातें भी हमें अच्छी नहीं लगतीं।

निज बल कौं परिमान तुम, तारै पतित बिसाल।

कहा भयौ जु हौं तरतु, तुम खिस्याहु गोपाल॥

हे भगवान्, जितनी आप में शक्ति और सामर्थ्य थी, उतनी शक्ति के अनुसार आपने छोटे-मोटे कई पापियों का उद्धार कर दिया। किंतु आप यदि मुझ एक महान् पापी का उद्धार नहीं कर पाए तो इसमें क्या हुआ; क्योंकि आप उतना ही तो कार्य कर सकते हैं जितनी आप में सामर्थ्य है। पर स्मरण रखिए कि मेरा उद्धार करने से आप ही को लज्जित होना पड़ेगा कि एक ऐसा बड़ा पापी आया जिसका उद्धार भगवान् भी कर सके।

बसिबे कौं निज सरबरनि, सुर जाकौं ललचाहिं।

सो मराल बकताल में, पैठन पावत नाहिं॥

जिन तालाबों पर रहने के लिए देवता लोग भी ललचाते हैं, उस मानसरोवर पर हंसों के झुँड में बगुले नहीं टिक सकते। भाव यह कि सज्जनों में दुर्जन नहीं रह सकते।

मुरलीधर गिरिधरन प्रभु, पीतांबर घनस्याम।

बकी-बिदारन कंस-अरि, चीर-हरन अभिराम॥

श्रीकृष्ण वंशी बजाने वाले, गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाले, पीतांबर पहनने वाले, घन के समान श्याम वर्ण वाले, बकासुर का नाश करने वाले, कंस को मारने वाले और यमुना में निर्वसन स्नान करती हुई गोपियों के वस्त्रों का हरण करने वाले परम सुंदर हैं।

छोड़ि नेह नंदलाल कौ, हम नहिं चाहति जोग।

रंग बाति क्यों लेत हैं, रतन-पारखी लोग॥

गोपियाँ योग का उपदेश देने आए हुए उद्धव को कहती हैं कि श्रीकृष्ण के प्रेम को छोड़कर हमें तुम्हारा यह योग अच्छा नहीं लगता। भला रत्नों के परीक्षक जौहरी लोग असली रत्नों को छोड़कर नक़ली रत्न क्यों लेंगे!

होत जगत में सुजन कौं, दुरजन रोकनहार।

केतकि कमल गुलाब के, कंटक मय परिहार॥

सज्जनों को रोकने के लिए इस संसार में हर जगह दुष्ट घेरे रहते हैं, जैसे कि कमल, केवड़ा और गुलाब के कांटे उन्हें चारों ओर से घेरे रहते हैं।

अब तेरौ बसिबौ इहाँ, नाहिंन उचित मराल।

सकल सूखि पानिप गयौ, भयौ पंकमय ताल॥

हे हंस! अब तेरे लिए इस तालाब पर रहना उचित नहीं है, क्योंकि इस तालाब का पानी तो सारा सूख गया है और अब इसमें कीचड़ ही कीचड़ शेष रह गया है।

खल बचननि की मधुरई, चाखि साँप निज श्रौन।

रोम-रोम पुलकित भए, कहत मोद गहि मौन॥

दुष्टों के वचनों की मधुरता को साँप ने अपने कानों से चखा-सुना और उनका रोम-रोम पुलकित हो गया, उसका वर्मन करते-करते वे तन्मय होकर मौन हो गए। भाव यह है कि दुष्टों के वचन कभी मधुर नहीं होते, क्योंकि साँप के कान नहीं होते इसलिए वह किसी के वचन को सुन ही नहीं सकता। कवि ने कहा है कि दुष्टों के वचनों की मधुरता केवल साँप ही अपने कानों से सुन पाता है, दूसरा कोई नहीं।

कहा भयौ मतिराम हिय, जौ पहिरी नँदलाल।

लाल मोल पावै नहीं, लाल गुंज की माल॥

हे रत्तियों की माला, यदि श्रीकृष्ण ने भी तुम्हें अपने हृदय पर धारण कर लिया तो भी क्या हुआ! क्योंकि लाल रत्तियों की माला लाल रत्नों का मूल्य कभी नहीं पा सकती। अर्थात् कोई मूर्ख यदि किसी बड़े पद पर भी पहुँच जाय तो भी वास्तव में बड़ों के समान आदर नहीं पा सकता।

तरु ह्वै रह्यौ क़रार कौ, अब करि कहा क़रार।

उर धरि नंद-कुमार कौ, चरन-कमल सुकुमार॥

हे वृद्ध मनुष्यों! अब तुम नदी किनारे के वृक्ष हो गए हो। तुम अब लोगों के साथ और कितनी नई-नई प्रतिज्ञाएँ करते रहोगे कि हम यह करेंगे और वह करेंगे। अब तुम्हें चाहिए कि तुम संसारी धंधों को छोड़कर श्रीकृष्ण के सुकोमल चरणों का अपने हृदय में ध्यान करो।

इतै उतै सकुचत चितै, चलत डुलावति बाँह।

दीठ बचाय सखीन की, छिनक निहारति छाँह॥

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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