दयाराम के दोहे
लाल लली ललि लाल की, लै लागी लखि लोल।
त्याय दे री लय लायकर, दुहु कहि सुनि चित डोल॥
लाल को लली से और लली को लाल से मिलने की इच्छा है। दोनों मुझे कहते हैं, अरी तू उससे मुझे मिलाकर विरहाग्नि को शांत कर। इनकी बातें सुनते-सुनते मेरा भी चित्त विचलित हो गया है।
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चकमक सु परस्पर नयन, लगन प्रेम परि आगि।
सुलगि सोगठा रूप पुनि, गुन-दारू दूड जागि॥
चकमक के सदृश नेत्र जब आपस में टकराते हैं तो उनसे प्रेम की चिनगारियाँ निकलती हैं। फिर रूप रूपी सोगठे (रूई) पर इनके गिरने से आग सुलग जाती है, किंतु पूर्णतया प्रज्वलित तभी होती है जब उसका संयोग गुण रूपी शराब से होता है।
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संबंधित विषय : प्रेम
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ऐसो मीठो नहिं पियुस, नहिं मिसरी नहिं दाख।
तनक प्रेम माधुर्य पें, नोंछावर अस लाख॥
प्रेम जितना मिठास न दाख में है, न मिसरी में और न अमृत में। प्रेम के तनिक माधुर्य पर ऐसी लाखों वस्तुएँ न्योछावर है।
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गोकुल ब्रंदावन लिहू, मोपें जुगजीवन्न।
पलटें मोको देहु फिर, गोकुल ब्रंदाबन्न॥
कवि कहता है, मेरी इंद्रियो के समूह (गोकुल) को आप लीजिए, अपने वश में कर लीजिए। तुलसीदल (वृंदा) और जल (वन) अर्थात् वृंदावन से ही आपकी मैं मनुहार कर सकता हूँ, अतः कृपा करके इन्हें स्वीकार कीजिए और इनके बदले में आप मुझे अपने प्रिय धाम गोकुल और वृंदावन में रहने का सौभाग्य प्रदान कीजिए।
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बिरहारति तें रति बढ़ै, पै रुचि बढन न कोय।
प्यासो ज़ख्मी जिए तहूँ, लह्यो न त्यागें तोय॥
विरह की पीड़ा से प्रेम बढ़ता है, पर इस तरह (विरह सहकर) प्रेम को बढ़ाने की रुचि किसी की भी नहीं होती। वैसे ही जैसे प्यासा घायल यह जानते हुए भी कि वह तभी जीवित रहेगा जब वह पानी न पिए, पर प्राप्त जल को वह नहीं त्याग पाता।
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सहज संवारत सरस छब, अलि सो का सुच होत।
सुनि सुख तो लखि लाल मो, मुद मोहन चित पोत॥
हे सखि! तू अत्यंत सुंदर होने पर भी बारंबार शृंगार करती है। ऐसा करने में तुझे क्या सुख मिलता है? (उत्तर में नायिका कहती है) सुन! सुख तो मुझे लाल को देखकर होता है क्योंकि (शृंगार करने पर) वे मुदित होकर मुझे निहारते हैं।
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रति बिन रस सो रसहिसों, रति बिन जान सुजान।
रति बिन मित्र सु मित्रसो, रति बिन सब शव मान॥
प्रेम के बिना रस ज़हर के समान, ज्ञान अज्ञान के समान, मित्र अग्नि के समान और वस्तुएँ शव के समान दुखदाई एवं निरर्थक हैं।
कटि सों मद रति बेनि अलि, चखसि बड़ाई धारि।
कुच से बच अखि ओठ भों, मग गति मतिहि बिसारि॥
हे सखी! यदि तू अपने प्रिय से मान करती है तो अपनी कटि के समान क्षीण (मान) कर, यदि प्रीति करती है तो अपनी चोटी के समान दीर्घ (प्रीति) कर, अगर बड़प्पन धारण करती है तो अपने नेत्रों-सा विशाल कर। पर अपने कुचों के समान कठोर (वचन), ओठों के समान नेत्रों की ललाई (क्रोध), भृकुटी के समान कुटिल (मार्ग पर गमन) और अपनी गति के समान (चंचल) मति को सदा के लिए त्याग दे।
दीठी दुरिजन की लगें, सब कहि मो न पत्याय।
एसी सज्जन की लगे, प्रानसंग निठ जाय॥
लोग कहते हैं कि दुर्जन की नज़र लगती है, पर मुझे इस पर विश्वास नहीं होता। क्योंकि प्रेमी की नज़र तो ऐसी लगती है कि प्राणों के संग ही उससे (नीठ) मुक्ति मिलती है।
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संबंधित विषय : प्रेम
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प्यारे मोकौं तीर दिहु, पै जिन देहु कमान।
कमांन लागत तीर सैम, तीर लगत प्रियप्रांन॥
प्रिय देना ही है तो तुम मुझे तीर (निकटता) दो; कमान (अपमान) मुझे न दो। यदि आपने मुझे कमान (अपमान) दिया तो वह बाण के सदृश मुझे चुभेगा और यदि तुम मुझे तीर (निकट रहने का अवसर) दोगे तो वह मेरे प्राणों को अत्यंत प्रिय लगेगा।
कटाछ नोक चुभी कियों, गडे उरोज कठोर।
कें कटि छोटी में हितू, रुची न नंदकिशोर॥
हे सखी! प्रिय के कहीं मेरे कटाक्षों की नोक तो नहीं चुभ गई है? कहीं मेरे कठोर उरोज तो उनके नहीं गड़ गए हैं? अथवा मेरी कटि ही छोटी है जिसके कारण मैं नंदकिशोर को पसंद नहीं आई, बात क्या है?
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चूक जीव कों धरम है, छमा धरम प्रभु आप।
आयो शरन निवाजि निज, करि हरियें संताप॥
भूल करना जीव का धर्म है और हे प्रभु, क्षमा करना आपका धर्म है। मैं आपकी शरण में आ गया हूँ। संतापों को हर कर आप मुझे संतुष्ट कीजिए।
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मोहि मोह तुम मोह को, मोह न मो कहुँ धारि।
मोहन मोह न वारियें, मोहनि मोह निवारि॥
मुझे केवल आपके मोह का मोह है, मेरे मोह को आप अपने अतिरिक्त और कहीं केंद्रित न कीजिए। हे मोहन! आप इसका निवारण भी न कीजिए। यदि करना ही है तो मेरे प्राणों का अंत कीजिए।
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असि माया मोपर करो, चलें न माया ज़ोर।
माया मायारहित दिहू, निज पद नंदकिशोर॥
हे नंदकिशोर! मुझ पर ऐसी ममता रखिये, जिससे माया का कुछ भी ज़ोर न चले। माया-रहित करके आप मुझे अपने चरण-कमलों का प्रेम दीजिए।
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सोई भाजन प्रेमरस, प्रकट कृष्ण के गात्र।
पय पुंडरिकनी को न जो, रहि बिन कंचन पात्र॥
वही प्रेम-रस का पात्र है जो श्रीकृष्ण के गात्र से उत्पन्न हो (अर्थात पुष्टिमार्गी हो)। सिंहनी का दूध कंचन के पात्र के अतिरिक्त अन्य पात्र में नहीं रह सकता।
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प्रीत निभाई द्वे सकें, इकसु न निबहनहारि।
देखी सुनि न कहु बजी, एक हाथ सूं तारि॥
एक के निभाये प्रीत नहीं निभती, दोनों के निभाये ही वह निभती है। जैसे कि एक हाथ से कभी ताली बजी हो, ऐसा देखने सुनने में नहीं आया।
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बीच अमल का समल बिच, दोहु कलेजों खाय।
दीठि असित तें सित बुरी, कछू न जाहि उपाय॥
दृष्टि उज्ज्वल हो चाहे मैली, दोनों में भेद ही क्या है? दोनों ही कलेजे को खाती है। लेकिन मैली दृष्टि से उज्ज्वल दृष्टि बहुत बुरी है क्योंकि (मैली दृष्टि 'नज़र' का तो इलाज भी है पर) उज्ज्वल दृष्टि (प्रेम) का कोई उपचार नहीं।
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मो उर में निज प्रेम अस, परिदृढ़ अचलित देहू।
जैसे लोटन-दीप सों, सरक न ढुरक सनेहु॥
हे श्रीकृष्ण! जेसे लौटन दीप से उलटा करने पर भी उसका तेल नहीं गिरता, (उसी तरह विपरीत परिस्थितियों एव प्रलोभनों में भी आपके प्रति मेरा प्रेम सदैव एक-सा बना रहे) ऐसा एकनिष्ठ प्रेम आप मेरे हृदय में दीजिए।
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समता सब बिधि नेह अति, तृप्ति न अचल मिलाप।
दुहु कों निर्भय यह त्हरें, पैयें दें हरिं आप॥
दानों में (गुण,कर्म और स्वभावादि) सब प्रकार की समता, परस्पर अत्यधिक स्नेह, मिलने की आतुरता (अतृप्ति) और निर्भय चिर-मिलन; ये (चार बातें) तो तभी संभव है जब हे हरि आप दें।
पीर न न्यारी मेन ए, नारी नारी में न।
अली अयानों भिषक ए, इशक-किशक समुझें न॥
यह पीड़ा और कुछ नहीं, काम-पीड़ा है। इसका निदान नारी की नाड़ी में कहाँ होगा? हे सखि, यह वैद्य भी अनाड़ी है। 'प्रेम की पीड़ा' को समझता ही नहीं।
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नोंघा प्होंप सुगंधि ते, हरि हरि मन सुच पाय।
दसई पंकज प्रेम बिन, रुके कहूँ नहिं जाय॥
श्रीकृष्ण का भ्रमर रूपी मन नवधा भक्ति रूपी पुष्प की सुगंध से संतुष्ट होता है, किंतु कमल रूपी (दसई) प्रेमलक्षणा भक्ति के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं रुकता नहीं।
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पीतांबर परिधान प्रभु, राधा नील निचोल।
अंग रंग सँग परस्पर, यों सब हारद तोल॥
प्रभु पीतांबर धारण करते हैं और राधा नीली ओढ़नी पहनती है। इसका हारद तोल (हार्दिक भाव का रहस्य मर्म) यह है कि ऐसा करने से दोनों को (प्रिय के) अंग रंग के संग होने की प्रतीति होती है।
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मुकर मुकर सब वस्तु भई, नयन अयन किय लाल।
दृग पसारूँ जित-जित अली, तित-तित लखूँ गुपाल॥
जब से लाल नयनों में बसे हैं, सब वस्तुएँ जैसे दर्पण की हो गई हैं। क्योंकि मैं दृष्टि उठाकर जिधर देखती हूँ, उधर गोपाल ही गोपाल दिखाई देते हैं।
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करें सहोदर ते सरस, दे बिसराई बेर।
प्रेमी पानी परस तें, सुधा सरस हुई झेर॥
प्रेम बैर को मिटाकर (शत्रु को) भाई से भी अधिक प्यारा बना देता है। प्रेम पात्र के हाथ के स्पर्श-मात्र से ज़हर भी अमृत हो जाता है।
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दीनबंधु अधमुद्धरन, नाम ग़रीब निवाज़।
यह सब में मैं कोन जो, सुधि न लेत ब्रजराज॥
हे ब्रजराज! आप दीनबंधु हैं तो क्या मैं दीन नहीं हूँ, आप अधमों का उद्धार करने वाले हैं तो क्या मैं अधम नहीं हूँ, आप ग़रीबनिवाज़ हैं, तो क्या मैं ग़रीब नहीं हूँ। इन सब में से क्या मैं कुछ भी नहीं हूँ जो आप अब तक मेरी सुध नहीं लेते!
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हरि हरिवदनी सों लिख्यौं, हम ध्यावत तुम ध्याउ।
का चिंता हम तुम बनें, तुम हमसे ह्वै जाउ॥
हरि (श्रीकृष्ण) ने हरिवदनी (राधिका) को लिखा, मैं तुम्हारा ध्यान करता हूँ तो तुम भी मेरा ध्यान करो। चिंता की क्या बात है? यदि तुम्हारा ध्यान करने से मैं तुम-सा बन जाऊँगा तो तुम मेरा ध्यान करके मुझ-सी बन जाओ।
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स्यामा स्याम पुकारती, स्यामा रटते स्याम।
अली अचंभो आज बड, जुगल जपत निज नाम॥
हे सखि पहले श्याम श्यामा को और श्यामा श्याम का नाम रटा करते थे, पर आज बड़ा अचंभा देखा, दोनों अपने-अपने नाम रट रहे थे।
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प्यारी प्रीतम सों लिख्यौं, मत परियौ मौ ध्यान।
तुम मोसे ह्वै जाउगे, करिहों का पें मान॥
प्यारी ने अपने प्रियतम को लिखा कि तुम मेरा ध्यान न धरना अन्यथा तुम भी मुझ से हो जाओगे। फिर मैं मान किस पर करूँगी?
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आगी ते बेली बढ़े, जल सींचत कुमलाय।
सिर के पलटें फल मिलें, मुख बिन खायो जाए॥
एक बेल ऐसी है कि जो आग से फलती-फूलती है और पानी से कुम्हला जाती है। उसका फल सिर के बदले में मिलता है और बिना मुँह के खाया जाता है। अर्थात् प्रेम रूपी बेल विरह रूपी आग से फलती-फूलती है और मिलन रूपी जल से कुम्हला जाती है। इस बेल पर आनंद रूपी फल लगता है, जिसका आस्वादन हृदय करता है। यह फल बड़ा महंगा है। लोकलाज और कुल की मर्यादा को त्यागकर और जान की बाज़ी लगाने से ही यह फल मिलता है।
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सहि न परे रुझ बिबि दई, मिलन कठिन अति नेहु।
मिति मिलाप निति सुगम दें, नांतर प्रीती लेहु॥
(प्रियतम से) मिलन अत्यंत कठिन है और प्रेम अत्यधिक है। ये दो पीड़ाएँ (एक) साथ सही नहीं जाती। इसलिए हे विधाता, या तो नित्य ही सुगमतापूर्वक मित्र मिलाप दे, नहीं तो यह प्रेम (वापस) ले ले।
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बड़ कौतिक इक ए दिख्यों, रति आरति ही रूप।
तामें होत प्रतीति सुख, निपुन रंक का भूप॥
प्रेम पीड़ा का ही दूसरा रूप है। (किंतु) आश्चर्य की बात यह देखी कि इसमें निपुण, रंक और भूप-सबको सुख की प्रतीति होती है।
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लह्यों प्रेम जब जानिये, विरह विकल तम दीन।
कुछ न कहूँ सुहाय छिनु, दुति पे होई अधीन॥
प्रेम हुआ है, यह तब समझना चाहिए जब विरह से व्याकुल होकर तन क्षीण हो जाए। कहीं क्षण भर के लिए भी किसी चीज़ में मन न लगे और प्रिय की द्युति के पूर्णतया अधीन हो जाए।
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अनल भखे शशि रति हितू, चकोर गिनत न ताप।
भस्म होई भवभाल लगु, हुइ कबु मित्त मिलाप॥
चकोर ताप की परवाह न करके अंगारे खाता है। वह चाहता है कि भस्म होकर ही वह (अपने प्रिय के निकट) शिव के ललाट तक पहुँच जाए
और शायद इसी बहाने प्रिय से मिलाप हो जाए।
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लही न अंत अकास कहूँ, चिंतामनी न मोल।
संख्या नाहीं जीउ की, तेसे प्रेम अतोल॥
जैसे आकाश का अंत नहीं मापा जा सकता और चिंतामणि का मोल नहीं आंका जा सकता, जिस प्रकार जीवों को संख्या की गणना नहीं की जा सकती उसी प्रकार प्रेम को भी नहीं तोला जा सकता।
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प्रीती ह्वा नीति नहीं, नीती ह्वा नहिं प्रीत।
स्यानप अरु मदछाक जिमि, नहिं इकत्र कहु रीत॥
प्रीति होती है, वहाँ नीति नहीं ठहरती और जहाँ नीति होती है वहाँ प्रीति नहीं रहती। ये दोनों वस्तुएँ उसी प्रकार एकत्र नहीं हो सकती जिस प्रकार मदिरा की मस्ती और चतुराई।
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कृपन होत क्यों कृपाकर, तनक देत नहिं खोट।
दीनपात्र हों दिहू दया, दान खांन इक कोट॥
हे कृपाकर, आप कृपण क्यों हो गए हैं? मुझे थोड़ा दे देने से आपके भंडार में कमी नहीं होगी। मैं दीन पात्र हूँ, आप मुझे दया का दान दीजिए। आप की एक खान की करोड़ खानें होंगी।
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झां मन बेली ह्वां न श्रम, ब्रिड प्रमाद अघ भीति।
धन तन जीवन सहज दे, भै चित प्रीति प्रतीति॥
जिस वस्तु पर चित्त में प्रीति और प्रतीति दृढ़ हो जाए, और मन बेली हो जाए उसके लिए प्रयत्न करने में शर्म, लज्जा, आलस्य और पाप का अनुभव नहीं होता। प्रेमपात्र के प्रति प्रेमी, वन, तन और जीवन भी सहज ही अर्पित करने के लिए तत्पर रहता है। ऐसा है प्रेम।
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मिलतहु दुख बिछरतहु दुख, सुख प्रिय अचल मिलाप।
सुन पतंग सारिंग ज्यों, कहा जुड़ाव निति ताप॥
मिलने में भी दुख है और बिछुडने में भी; सुख तो केवल प्रिय से अचल मिलाप में है। देखिए, पतंग और सारंग का शांतिदायी मिलन कहाँ हो पाता है? उन्हें तो नित्य ताप ही सहन करना पड़ता है।
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रति चहलें मातंग मन, फस्यो न निकसन पाय।
बल करि निकस्यो चहत है, त्यों-त्यों धसत ही जाय॥
प्रेम-रूपी गड्ढे में मन रूपी हाथी यदि फँस जाय तो निकल नहीं पाता। बल लगाकर वह ज्यों-ज्यों निकलने का प्रयत्न करता है, त्यों-त्यों वह (कीचड़ में) गहरा धँसता ही जाता है।
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व्याध फंद मृग परतु है, बंध अहेरी ह्वे न।
प्रेम अजब बागूर में, पारनहार बचें न॥
शिकारी के फंदे में मृग फँसता है, स्वंय अहेरी नहीं फँसता। पर यह प्रेम का फंदा बड़ा अजीब है, इसमें जाल बिछाने वाला स्वयं भी फँसे बिना नहीं रहता।
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व्रिड सुधि बुधि बल लखतही, माशुक आशुक जाय।
अलि कठोर ज्यों बस कट, मृदु सरोज मुरझाय॥
प्रिया को देखते ही प्रियतम की लज्जा, सुधि, बुद्धि और शक्ति वैसे ही तिरोहित हो जाती है जैसे कठोर बाँस को काटने वाले भौंरे की शक्ति कोमल कमल के सामने फीकी पड जाती है।
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योग यज्ञ जप तप तिरिथ, ग्यांन धरम व्रत नेम।
बिहिन वल्लवी वल्लभा, करि हरि इक बल प्रेम॥
योग, यज्ञ, जप, तप, तीर्थ, ज्ञान, धर्म, व्रत और नियम विहीन होने पर भी श्रीकृष्ण ने गोपियों को केवल प्रेम के बल पर ही अपना प्रिय बना लिया।
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प्रीती सो सहराइयें, असु अनन्य द्वे अंग।
गति इक की सों ओंर की, जिमि कारंड विहंग॥
प्रेम वही सराहनीय है जिसमें अंग दो होते हुए भी प्राण एक हो, एक की गति हो वही दूसरे की हो, कारड विहंग की भाँति।
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सोइ नेह नदलाल में, प्रकटि न पावें जान।
जस असि सूराचित्र कों, एंच्यो होइ न म्यान॥
जिस प्रकार तलवार तानकर खड़े शूरवीर के चित्र में तलवार सदैव तनी ही रहती है और म्यान में वापस नहीं जाती, उसी प्रकार का प्रेम नंदलाल के प्रति होना चाहिए कि एक बार प्रकट होने पर पुनः कम न होने पावे।
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देखि जिएँ परसि न छूटें, माशुक आशक धन्य।
जैसे लोह चमक लगी, टरे न लखि चैतन्य॥
जो देखकर जीयें, मिलकर अलग न हो, ऐसे आशिक-माशूक धन्य हैं। जैसे कि लोहा चकमक-स्पर्श होने पर वियुक्त नहीं होता और चैतन्य हो जाता है।
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रसिक नैन नाराच की, अजब अनोखी रीत।
दुसमन को परसे नहीं, मारे अपनो मीत॥
रसिकों के नयन वाणों की भी अनोखी रीत है। दुश्मन का तो स्पर्श तक नहीं करते और अपने मित्र को मारते हैं।
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रति सुख दुख जानें नको, बिन इक अनुभौंकारि।
विदित न पीर प्रसूति जिमि, बंध्या नागरि नारि॥
अनुभव किए बिना प्रेम के सुख-दुख को कोई नहीं जान सकता जैसे कि चतुर वंध्या स्त्री भी प्रसूति की पीड़ा को नहीं जान सकती।
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फूलूँ हों लखि लाल को, पिघरें घेना गात।
सो हितु क्यों वे दूर जब, दुहुँ की उलटी बात॥
हे सखि, मैं प्रियतम को देखकर फूल जाती हूँ। पर मेरे इन गहनों का शरीर न जाने क्यों उस समय दुबला हो जाता है! और जब वे दूर रहते हैं तब उलटी ही बात होती है। मेरा शरीर दुबला हो जाता है और गहनों का शरीर फूल जाता है।
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यार चामिकर मन मनी, मेनभाय तुछ लाख।
ता बिन जमत न स्वाद श्री, भूषन रति वे खाख॥
प्रिय स्वर्ण है, मन मणि है, कामभाव तुच्छ लाख है। किंतु इस लाख के बिना, जो बाद में जलकर भस्म हो जाती है, प्रेमाभूषणों में आनंद और शोभा की वृद्धि नहीं होती।
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फिरि-फिरि के वे ही कहें, अरुच न न हुई रतिवात।
नां निबटें नूतन लगें, अनुभों जानी जात॥
बार-बार वही बातें करते हैं पर (प्रेमियों को) प्रेम की बात अरुचिकर नहीं होती। वह पूरी भी नहीं होती और सदा नई मालूम होती है। अनुभव से ही (इस कथन की) सचाई का पता लग सकता है।
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere