अभावभाव को प्रकट करती रचनाओं से एक चयन।
''एक राजा निरबंसिया थे”—माँ कहानी सुनाया करती थीं। उनके आसपास ही चार-पाँच बच्चे अपनी मुठ्ठियों में फूल दबाए कहानी समाप्त होने पर गौरों पर चढ़ाने के लिए उत्सुक-से बैठ जाते थे। आटे का सुंदर-सा चौक पुरा होता, उसी चौक पर मिट्टी की छः ग़ौरें रखी जातीं, जिनमें
हरगोबिन को अचरज हुआ—तो आज भी किसी को संवदिया की ज़रूरत पड़ सकती है। इस ज़माने में जबकि गाँव-गाँव में डाकघर खुल गए हैं, संवदिया के मारफ़त संवाद क्यों भेजेगा कोई? आज तो आदमी घर बैठे ही लंका तक ख़बर भेज सकता है और वहाँ का कुशल संवाद मँगा सकता है। फिर उसकी बुलाहट
जुगनू की तबीअत इन दिनों कुछ नासाज़ सी है। पर काम नहीं करेगी तो चलेगा कैसे? इस बीच नियमित ग्राहकों के अलावा एक झोले वाला आदमी भी उसके पास आने लगा है। वह आदमी है मदनलाल। इस बीच बीमारी बढ़ती है, पर कुछ समय बाद मजबूरी जुगनू को दुबारा इस पेशे में आने के लिए
—तेरा नाम क्या है? —राही। —तुझे किस अपराध में सज़ा हुई? —चोरी की थी सरकार। —चोरी? क्या चुराया था? —नाज की गठरी। —कितना अनाज था? —होगा पाँच छह सेर। —और सज़ा कितने दिन की है? —साल भर की। —तो तूने चोरी क्यों की? मज़दूरी करती
उसने अपने बिस्तरे का अंदाज़ लेने के लिए मात्र आध पल को बिजली जलाई। बिस्तरे फ़र्श पर बिछे हुए थे। उसकी स्त्री ने सोते-सोते ही बड़बड़ाया, ‘आ गए’ और बच्चे की तरफ़ करवट लेकर चुप हो गई। लेट जाने पर उसे एक बड़ी डकार आती मालूम पड़ी, लेकिन उसने डकार ली नहीं। उसे
सड़क के मोड़ पर लगी रेलिंग के सहारे चंदर खड़ा था। सामने दाएँ-बाएँ आदमियों का सैलाब था। शाम हो रही थी और कनॉट प्लेस की बत्तियाँ जगमगाने लगी थीं। थकान से उसके पैर जवाब दे रहे थे। कहीं दूर आया-गया भी तो नहीं, फिर भी थकान सारे शरीर में भरी हुई थी। दिल और
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