छायावाद के पास और कुछ न सही तो व्यापक आध्यात्मिक विश्व-स्वप्न था, साथ ही राष्ट्रीय सांस्कृतिक प्रेरणा थी। उसके पास अपना एक दर्शन था। स्वाधीनता की प्राप्ति के अनंतर, पूँजीवाद के संपूर्ण प्रभुत्व के बाद, उसकी भावनाओं का भी दार्शनिक औचित्यीकरण था।
छायावाद एक प्रकार से अज्ञातकुलशील बालक रहा, जिसे सामाजिकता का अधिकार ही नहीं मिल सका, फलतः उसने आकाश, तारे, फूल, निर्झर आदि से आत्मीयता का संबंध जोड़ा और उसी संबंध को अपना परिचय बनाकर मनुष्य के हृदय तक पहुँचने का प्रयत्न किया।
छायावाद के कवि-चतुष्टय में से प्रसादजी, समाज और सभ्यता की व्याख्या करते हुए अरूप आध्यात्मिक सामरस्य्वाद की ओर निकल गए, संसारातीत, रहस्यवाद की आनंदमयी भूमि में विचरण करने लगे, महादेवीजी समाज और सभ्यता के प्रश्नों के चक्कर में ही नहीं पड़ीं, काव्य द्वारा। केवल निराला संघर्षानुभवों द्वारा आज की जनस्थिति की ओर उन्मुख हुए।
छाया भारतीय दृष्टि से अनुकृति और अभिव्यक्ति की भंगिमा पर अधिक निर्भर करती है। ध्वन्यात्मकता, लाक्षणिकता, सौंदर्यमय प्रतीक-विधान और उपचारवक्रता के साथ स्वानुभूति की विवृति छायावाद की विशेषताएँ हैं। अपने भीतर से मोती के पानी की तरह आंतर स्पर्श करके भाव-समर्पण करने वाली अभिव्यक्ति छाया कांतिमयी होती है।
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छायावादी काव्य, दिशा से अधिक, काल को वाणी देता रहा है।
छायावाद की शाखा के भीतर धीरे-धीरे काव्य-शैली का बहुत अच्छा विकास हुआ, इसमें संदेह नहीं। उसमें भावावेश की आकुल व्यंजना, लाक्षणिक वैचित्र्य, मूर्त्त प्रत्यक्षीकरण, भाषा की वक्रता; विरोध-चमत्कार, कोमल पद-विन्यास इत्यादि काव्य का स्वरूप संघटित करने वाली प्रचुर सामग्री दिखाई पड़ी।
पंडित रामचंद्र शुक्ल छायावादी रचना-प्रक्रिया को नहीं समझते थे, इसीलिए उसका विरोध करते रहे।