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विकुशु के नाम एक पत्र

प्रिय विनोद कुमार शुक्ल जी,

आपको मेरा सादर प्रणाम! मैंने जब ‘हिंद युग्म’ महोत्सव (रायपुर) में आपको पहली बार देखा और आपसे मिली तो मेरे मन में पहले जो भी भ्रांतियों के बादल घिरे थे, सब छँट गए।

सोचा था कि आप इतने बड़े लेखक हैं! थोड़ा अभिमान तो होगा ही अपने बड़े होने पर, इससे पहले अन्य कार्यक्रमों में कई ‘बड़े’ लेखकों को मैं देख चुकी थी—दंभ के ‘बड़े’ क़द वाला भूत बने हुए। मगर मुझे इतनी ख़ुशी है कि आप मेरी सोच से एकदम विपरीत फल, फूल, पत्तियों से लदे किसी वृक्ष की तरह विनम्रता और अपने बड़े होने के बड़प्पन से झुके हुए नज़र आए।

पहली नज़र में आपको देखा तो आप किसी शिशु की तरह मासूम और प्यारे लगे। फिर यकायक मुझे अपने बाबा की छवि आपमें दिखने लगी। उन बाबा की छवि जिनसे मेरा मिलना सिर्फ़ तस्वीरों के ज़रिये ही हो पाया। यह एक पाठक का अपने लेखक को उसकी रचनाओं से अलग देखना और सोचना था, जो किसी लेखक से मिलने पर पहली बार महसूस हुआ। मुझे पहली बार कोई लेखक अपनी रचनाओं जैसा ही जादुई लगा, पहली बार किसी लेखक से मिलकर फिर-फिर मिलने का मन हुआ।

जब आपको तीस लाख रुपये की रॉयल्टी मिली, तब हिंदी साहित्य जगत में उसका मिला-जुला रंग देखने को मिला। कहीं ख़ुशियों की होली तो कहीं राख-सी स्याह आलोचना। आप अपने बड़े होने में उस समय भी लोगों से कहीं बहुत ऊँचे निकले, चाँद-सूरज की तरह प्रत्येक नकारात्मक-सकारात्मक बात से परे अपने लिखने में मशग़ूल!

इस बीच मालूम हुआ कि आप अस्पताल में हैं। आपकी तस्वीर देखी जिसमें आप अस्पताल के बिस्तर पर बैठे हैं। आपके शरीर में ऑक्सीजन की कमी है, आपकी दुर्बल-कृशकाय देह उठने-बैठने से भी लाचार है, नाक पर चोट तथा संक्रमित फेफड़े; फिर भी आप अस्पताल के बिस्तर पर बैठे हुए लिखने में व्यस्त हैं, ज़रूर आपको अपनी दैहिक परेशानियों से अधिक भावों-विचारों के उठते आवेग ने परेशान कर रखा होगा, शब्द चंचल शिशु की तरह आपके मन-मस्तिष्क में ऊधम मचा रहे होंगे, उँगलियाँ क़लम पकड़ने के लिए कुलबुला रही होंगी।

यह सही भी है... आख़िर जिस इंसान ने अपनी साँसों से ज़्यादा शब्दों को जिया हो, उसे ऑक्सीजन से पहले क़लम और काग़ज़ ही चाहिए।

आज आप इंसान होने से पहले तथा बाद में ख़ालिस लेखक दिखाई पड़ रहे हैं, जिसे भोजन-पानी और साँसों से पहले क़लम चाहिए, काग़ज़ चाहिए। शब्दों का एक ऐसा कलाकार जो जीवन-मृत्यु से बेपरवाह बीमारी को घोड़ा बनाकर उसकी पीठ पर क़लम की चाबुक से लिखना-लिखना खेल रहा है।

आपने आज तक जितने भी पुरस्कार पाए, रॉयल्टी पाई... वो सब नहीं, यह... हाँ यह लिखने का जज़्बा, यह जुनून, यह पागलपन, यह प्यार, यह जोगीपन आपको बनाता है—विनोद कुमार शुक्ल।

वह विनोद कुमार शुक्ल जिसे हम सभी प्यार करते हैं—एक लेखक के रूप में और उससे भी अधिक एक मनुष्य और एक व्यक्तित्व के रूप में।

आप शीघ्र ही स्वस्थ हो जाएँगे। शब्द आपकी साँसें हैं, जीवन रस है, ऑक्सीजन की कमी से कुछ नहीं होता, आप शब्दों से जीते हैं और आपके भीतर शब्दों की कोई कमी नहीं है। आप हर एक दौड़ में पहले हैं—विजेता हैं—किसी भी प्रतिस्पर्धा से कोसों दूर, किसी भी ईर्ष्या-द्वेष से परे, भीड़ से अलग, एकदम अलग... 

आप जीने के लिए नहीं, लिखने के लिए जी रहे हैं और लिखना अभी आपके भीतर शेष है, अपार है। लिखना आपकी देह में स्थित श्वेत रक्त-कोशिकाएँ हैं, जो लड़-झगड़कर आपको बीमारी के शिकंजे से छुड़ा ही लाएँगी। वैसे भी आप बीमारी को मुँह ही नहीं लगा रहे हैं, बल्कि उससे मुँह फेरकर काग़ज़-क़लम के प्रेम में लिप्त हैं। देखिएगा, यह आपकी यह अस्वस्थता खिसियाकर भाग ही जाएगी।

आपके अनेक पाठकों में से एक पाठक
आपकी शुभेच्छु
चित्रा पंवार

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