हेमचंद्र के दोहे
अगलिअ-नेह-निवट्टाहं जोअण-लक्खु वि जाउ।
वरिस-सएण वि जो मिलइ सहि सोक्खहं सो ठाउ॥
अगलित स्नेह में में पके हुए लोग लाखों योजन भी चले जाएँ और सौ वर्ष बाद भी यदि मिलें तो हे सखि, मैत्री का भाव वही रहता है।
अङ्गहिं अङ्ग न मिलिउ हलि अहरेँ अहरु न पत्तु।
पिअ जोअन्तिहे मुह-कमलु एम्वइ सुरउ समत्तु॥
हे सखि, अंगों से अंग नहीं मिला; अधर से अधरों का संयोग नहीं हुआ; प्रिय का मुख-कमल देखते-देखते यों ही सुरत समाप्त हो गई।
साव-सलोणी गोरडी नवखी क वि विस-गंठि।
भडु पच्चलिओ सो मरइ जासु न लग्गइ कंठि॥
सर्वांग सुंदर गोरी कोई नोखी विष की गाँठ है। योद्धा वास्तव में वह मरता है जिसके कंठ से वह नहीं लगती।
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दिवेहि विढत्तउँ खाहि वढ़ संचि म एक्कु वि द्रम्मु।
को वि द्रवक्कउ सो पडइ जेण समप्पइ जम्मु॥
हे मूर्ख, दिन-दिन कमाये धन को खा, एक भी दाम संचित मत कर। कोई भी ऐसा संकट आ पड़ेगा जिससे जीवन ही समाप्त हो जाएगा।
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जइ ससणेही तो मुइअ अह जीवइ निन्नेह।
विहिं वि पयारेंहिं गइअ धण किं गज्जहिं खल मेह॥
यदि वह प्रेम में है (और प्रिय के साथ नहीं है) तो मर गई और यदि जीवित है व स्नेह से वंचित है (तब भी मर गई)। धन्या दोनों ही तरह से गई; हे दुष्ट मेघ, अब क्यों गरजते हो?
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जइ केवँइ पावीसु पिउ अकिआ कुड्डु करीसु।
पाणिउ नवइ सरावि जिवं सब्बंगें पइसीसु॥
यदि किसी प्रकार प्रिय को पा लूँगी तो अनोखे खेल करूँगी। पानी नए पुरवा में जैसे प्रविष्ट हो जाता है, मैं भी सर्वांग से प्रिय (के अंग-अंग) में प्रवेश कर जाऊँगी।
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ओ गोरी-मुह-निज्जिअउ बद्दलि लुक्कु मियंकु।
अन्नु वि जो परिहविय-तणु सो किवँ भवइँ निसंकु॥
ओ देख! गोरी के मुँह (की सुंदरता) से पराजित होकर चंद्रमा बादल में छिप गया। और जो कोई हारे हुए तन वाला है वह निःशंक कैसे भ्रमण कर सकता है!
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हियडा जइ वेरिअ घणा तो किं अब्भि चडाहुँ।
अम्हाहिं बे हत्थडा जइ पुणु मारि मराहुँ॥
हे मन, यदि दुश्मन बहुत हैं तो क्या बादल पर चढ़ जाऊँ? हमारे भी दो हाथ हैं, मार कर मरेंगे।
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पाइ विलग्गी अन्त्रडी सिरु ल्हसिउँ खन्धस्सु।
तो वि कटारइ हत्थडउ बलि किज्जउं कंतस्सु॥
पाँव तक अँतड़ियाँ लटक रही हैं, सिर (कटकर) कंधे से झूल गया है, लेकिन हाथ कटारी पर है। ऐसे कंत की मैं बलि जाऊँ।
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जो गुण गोवइ अप्पणा पयडा करइ परस्सु।
तसु हउँ कलि-जुगि दुल्लहहो बलि किज्जउँ सुअणस्सु॥
जो अपना गुण छिपाए और दूसरे का गुण प्रकट करे, कलिकाल में दुर्लभ उस सज्जन पर मैं बलि-बलि जाऊँ।
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ढोल्ला मइँ तुहुँ वारिया मा कुरु दीहा माणु।
निद्दए गमिही रत्तडी दडवड होइ विहाणु॥
हे ढोला, मैंने तुम्हें मना किया कि लंबे समय तक मान मत कर। रात नींद में ही चली जाएगी और शीघ्र ही विहान (सुबह) हो जाएगी।
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सरिहिँ न सरेहि न सरवरेहिँ न वि उज्जाण-वणेहिं।
देस रवण्णा होंति वढ़ निवसन्तेहिँ सुअणेहिं॥
हे मूढ़, न सरिताओं से, न सरों से, न सरोवरों से, और न उद्यानों और वनों से भी! किंतु बसते हुए सज्जनों से देश रमणीय होते हैं।
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जीविउ कासु न वल्लहउं घणु पणु कासु न इट्ठु।
दोणिण वि अवसर-निवडिअइं तिण-सम गणइ विसिट्ठु॥
जीवन किसे प्यारा नहीं? धन किसे इष्ट नहीं? किंतु मौक़ पड़ने पर महान पुरुष दोनों को तिनके के समान गिनता है।
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बलि-अब्भत्थणि महु-महणु लहुईहूआ सोइ।
जइ इच्छहु वड्डत्तणउं देहु म मग्गहु कोई॥
बलि की अभ्यर्थना करने से (दान मांगने से) विष्णु भी छोटे हो गए। यदि बड़प्पन चाहते हो तो (दान) दो, किसी से माँगो मत।
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एक्कु कइअह वि न आवही अन्नु वहिल्लउ जाहि।
मइँ मित्तडा प्रमाणिअउ पइँ जेहउ खलु नाहिं॥
एक तो कभी भी आता नहीं, दूसरे तुरंत चला जाता है। हे मीत, मैंने प्रमाणित किया कि तुम्हारे जैसा खल कोई नहीं है।
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रक्खइ सा विस-हारिणी बे कर चुम्बिवि जीउ।
पडिबिम्बिउ-मुंजालु जलु जेहिं अडोहिउ पीउ॥
वह पनिहारिन अपने उन दोनों हाथों को चूमकर जी रही है, जिनसे मुंज- प्रतिबिंबित जल प्रिय को पिलाया था।
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वम्भ ते विरला के वि नर जे सव्वंग छइल्ल।
जे बंका ते वंचयर जे उज्जुअ ते बइल्ल॥
हे ब्रह्मन्, वे नर कोई विरले ही होते हैं जो सर्वाङ्ग छैल हों। जो बाँके हैं, वे वंचक होते हैं और जो सरल होते हैं, वे बैल होते हैं।
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भल्ला हुआ जु मारिआ बहिणि महारा कंतु।
लज्जेज्जंतु वयंसिअहु जइ भग्गा धर एंतु॥
हे बहिन, भला हुआ मेरा कंत मारा गया। यदि भागा हुआ घर आता तो मैं सखियों में लजाती।
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पिय-सङ्गमि कउ निद्दडी पिअहो परोक्खहो केम्व।
मइँ विन्नि वि विन्नासिआ निद्द न एम्व न तेम्व॥
प्रिय के संगम में नींद कहाँ! प्रिय के वियोग में भी नींद कैसी! मैं दोनों ही प्रकार विनष्ट हुई; नींद न यों न त्यों।
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जे महु दिण्णा दिअहडा दइएँ पवसन्तेण।
ताण गणन्तिए अंगुलिउ जज्जरिआउ नहेण॥
जो दिन मुझे प्रवास पर जाते हुए प्रिय ने दिए थे, उन्हें गिनते हुए मेरी अंगुलियाँ नख से जर्जरित हो गईं।
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एइ ति घोड़ा एह थलि एइ ति निसिआ खग्ग।
एत्थु मणीसिम जाणिअइ जो नवि वालइ वग्ग॥
ये वे घोड़े हैं, यह वह स्थली है, ये वे निशित खड्ग हैं, यहाँ यदि घोड़े की बाग न मोड़े तो पौरुष जानिए।
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पुत्ते जाएँ कवणु गुणु अवगुणु कवणु मुएण।
जा बप्पी की भुंहडी चम्पिज्जइ अवरेण॥
पुत्र के जन्म लेने से क्या लाभ और उसके मरने से क्या हानि यदि पिता की भूमि शत्रु द्वारा दबा ली जाए!
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खग्ग-विसाहिउ जहिँ लहहुँ पिय तहिंदेसहिँ जाहुँ।
रण-दुब्भिक्खें भग्गाइं विणु जुज्झें न वलाहुँ॥
हे प्रिय, जहाँ खड्ग का व्यवसाय हो उसी देश में चलें। रण के अभाव में हम क्षीण हो गए हैं, बिना युद्ध के स्वस्थ नहीं रह पाएँगे।
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ब्रासु महारिसि एउ भणइ जइ सुइ-सत्थु पमाणु।
मायहँ चलण नवंताहं दिवि-दिवि गंगा-एहाणु॥
व्यास महर्षि कहते हैं कि यदि श्रुति-शास्त्र प्रमाण है तो माताओं के चरणों में नमन करने वालों का दिन-दिन गंगा-स्नान है।
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अम्बणु लाइवि जे गया पहिअ पराया के वि॥
अवस न सुअहिँ सुहच्छिअहि जिवं अम्हइँ तिवं ते वि॥
प्रीत लगाकर जो कोई बटोही पराए की तरह चले गये वे भी अवश्य ही सुख की सेज पर न सोते होंगे, जैसे हम हैं वैसे वे भी।
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सायरु उप्परि तणु धरइ तलि धल्लइ रयणाइं।
सामि सुभिच्चु वि परिहरइ संमाणेइ खलाइं॥
सागर तिनके को जल के ऊपर रखता है और रत्नों को तल में डाल देता है। स्वामी सुभृत्य को भी छोड़ देता है और खलों का सम्मान करता है।
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जइ रच्चसि जाइट्ठिअए हिअडा मुद्ध-सहाव।
लोहें फुट्टणएण जिवँ घणा सहेसइ ताव॥
हे मुग्ध स्वभाव वाले हृदय! जो जो देखा उसी पर यदि मुग्ध हो गया, तो फूटने वाले लोहे के समान बहुत ताप सहना पड़ेगा।
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बिट्टीए मइँ भणिय तुहुँ मा कुरु बङ्की दिट्ठि।
पुत्ति सकण्णी भल्लि जिवँ मारइ हियइ पइट्ठि॥
हे बिटिया, मैंने तुमसे कहा था कि चितवन बाँकी मत कर। हे पुत्री, वह नोकदार बर्छी की तरह हृदय में समाकर मारती है।
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चलेहिँ चलन्तेहिँ लोअणेहिँ जे तइँ दिट्ठा बालि।
तहिं मयरद्धय दडवडउ पडइ अपूरइ कालि॥
हे बाले, जिनको तूने अस्थिर चंचल नयनों से देखा, उन पर समय से पहले ही मकरध्वज (कामदेव) का आक्रमण हो जाता है।
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दिअहा जंति झडप्पडहिं पडहिँ मनोरह पच्छि।
जं अच्छइ तं माणिअइ होसइ करतु म अच्छि॥
दिन झटपट बीतते जाते हैं, मनोरथ पीछे पड़े रह जाते हैं। इसलिए जो है, उसी को मानिये। ‘होगा', यह सोचते हुए मत रहिए।
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साहु वि लोउ तडप्फडइ वड्डत्तणहो तणेण।
वड्डप्पणु परि पाविअइ हत्थिं मोक्कलडेण॥
सभी लोग बड़प्पन के लिए तड़फड़ाते हैं, पर बड़प्पन उदारता के गुण से मिलता है।
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गुणहिं न संपइ कित्ति पर फल लिहिआ भुंजति।
केसरि न लहइ बोड्डिअवि गय लक्खेहिं घेप्पन्ति॥
गुणों से सम्पत्ति नहीं, परंतु कीर्ति मिलती है; फल तो लिखे हुए ही भोगते हैं। सिंह का मूल्य एक कौड़ी भी नहीं, गज लाखों में ख़रीदे जाते हैं।
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तणहँ तइज्जी भंगि नवि तें अवड-यडि वसंति।
अह जणु लग्गिवि उत्तरइ अह सह सइँ मज्जंति॥
तृणों की तीसरी दशा नहीं है; वे अवट तट में बसते हैं। या तो लोग उनको पकड़कर पार उतरते हैं या वे उनके साथ स्वयं डूब जाते हैं।
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भमर न रुणझुणि रण्णडइ सा दिसि जोइ म रोइ।
सा मालइ देसंतरिअ जसु तुहुँ मरहि विओइ॥
हे अलि, वन में मत गुनगुना और उधर (उस दिशा में) देखकर मत रो। वह मालती देशांतरित हो गई जिसके वियोग में तू मर रहा है।
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कहिं ससहरु कहिँ मयरहरु कहिँ बरिहिणु कहिं मेहु।
दूर-ठिाएँ वि सज्जणहँ होइ असड्ढलु नेहु॥
कहाँ चंद्रमा और कहाँ समुद्र! कहाँ मोर और कहाँ मेघ! दूर रहने पर भी सज्जनों का असाधारण स्नेह होता है।
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एसी पिउ रूसेसु हउँ रुट्ठी महँ अणुणेइ।
पग्गिम्व एइ मणोरईं दुक्करु दइउ करेइ॥
प्रिय आएगा, मैं रूठूँगी। मुझ रूठी को वह मनाएगा। प्रायः ये मनोरथ कठोर प्रिय करवाता है।
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जाइज्जइ तहिं देसडइ लब्भइ पियहो पमाणु।
जइ आवइ तो आणिअइ अहवा तं जि निवाणु॥
उस देश में जाइए जहाँ प्रिय का पता मिले। यदि आए तो लाइए, अथवा वह मेरा निर्वाण हो।
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एत्तहे तेत्तहे वारि घरि लच्छि विसंठुल धाइ।
पिअ-पब्भठ्ठ व गोरडी निच्चल कहिं वि न ठाइ॥
लक्ष्मी इधर-उधर घर-द्वार अस्थिर होकर दौड़ रही है। प्रिय से बिछड़ी युवती की तरह कहीं भी निश्चल नहीं रहती।
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पइँ मेल्लन्तिहे महु मरणु मइँ मेल्लन्तहो तुज्झु।
सारस जसु जो वेग्गला सो वि कृदन्तहो सज्झु॥
तुझे छोड़ते हुए मेरा मरण है और मुझे छोड़ते हुए तेरा। सारस के समान जो दूर रहेगा वह यम का साध्य होगा।
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विप्पिअ-आरउ जइ वि पिउ तो वि तं प्राणहि अज्जु।
अरिंगण दड्ढा जइवि घरु तो ते अग्गिं कज्जु॥
प्रिय यद्यपि अप्रिय-कारक है तो भी आज उसे ला। आग से यद्यपि घर जल जाता है तो भी उस आग से काम पड़ता ही है।
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बिम्बाहरि तणु रयण-वणु किह ठिउ सिरि आणन्द।
निरुवम-रसु पिएं पिअवि जणु सेसहो दिएणी मुद्द॥
तन्वी के बिंबाधर पर दंत-क्षत की आनंद श्री कैसी स्थित है! अनुपम रस पीकर प्रिय ने मानो शेष पर मुहर लगा दी है।
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बप्पीहा कइँ बोल्लिएण निरिघण वार इ बार।
सायरि भरिअइ विमल-जलि लहहि न एक्कइ धार॥११६॥
हे पपीहा! हे निर्दय! बारंबार बोलने से क्या लाभ? विमल जल से सागर भरने पर भी तू एक भी बूँद न पाएगा।
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केम समप्पउ दुट्ठ दिणु किध रयणी छुडु होइ।
नव-वह-दंसण-लालसउ वहइ मणोरह सोइ॥
दुष्ट दिन कैसे समाप्त हो? रजनी कैसे शीघ्र हो? नव-वधू के दर्शन की लालसा वाला वह (नायक) ये मनोरथ वहन करता है।
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जइ भग्गा पारक्कडा तो सहि मज्झु पिएण।
अह भग्गा अम्हहं तणा तो ते मारिअडेण॥
हे सखी, यदि शत्रु भागे हैं तो मेरे प्रिय (के डर) से, और यदि हमारे लोग भागे हैं तो उनके मारे जाने से।
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जिवँ तिवँ वकिंम लोअणहं णिरु सामलि सिक्खेइ।
तिवँ तिवँ वम्महु निअय-सर खर-पत्थरि तिक्खेइ॥
ज्यों-ज्यों श्यामा उत्तरोत्तर लोचनों को बंकिमा सिखाती है, त्यों-त्यों काम अपने शरों को खरे पत्थर पर तीखा करता है।
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बच्छहे गृण्हइ फलइँ जणु कडु-पल्लव बज्जेइ।
तो वि महद्दुमु सुअणु जिवँ ते उच्छंगि धरेइ॥
लोग वृक्षों से फलों को ग्रहण करते हैं और कड़वे पत्तों को छोड़ देते हैं; तो भी सज्जन की तरह महान् वृक्ष उन्हें गोद में धारण किए रहता है।
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सत्थावत्थहँ आलवणु साहु वि लोउ करेइ।
आदन्नहँ मब्भीसडी जो सज्जणु सो देइ॥
ठीक स्थिति वालों से मेलजोल (आलापन) सभी लोग करते हैं। लेकिन दुःखी जनों को अभय-दान वही देता है जो सज्जन है।
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महु कंतहो गुट्ट-ट्टिअहो कउ झुम्पडा वलन्ति।
अह रिउ-रुहिरें उल्हवइ अह अप्पणे न भन्ति॥
मेरे कंत के बस्ती में रहते हुए झोपड़े कैसे जलते हैं? या तो वह शत्रु के रक्त से बुझा देता है या अपने रक्त से, इसमें संदेह नहीं है।
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दूरुड्डाणें पडिउ खलु अप्पणु जणु मारेइ।
जिह गिरि-सिंगहुँ पडिअ सिल अन्न वि चूरु करेइ॥
ऊँची उड़ान लेकर गिरा हुआ दुष्ट अपने ही परिजनों को मारता है, जैसे पहाड़ की चोटी से गिरी हुई शिला अन्य शिलाओं को भी चूर करती है।
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जइ पुच्छह घर वडड्डाइं तो वड्डा घर ओइ।
विहलिअ-जण-अब्भुद्धरणु कंतु कुडीरइ जोइ॥
जो बड़े घरों को पूछते हो तो बड़े घर वे रहें। दुःखी जनों का उद्धार करने वाले मेरे कंत को इस कुटीर में देखो।
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere