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चाणक्य

चाणक्य के उद्धरण

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शास्त्र अनेक हैं, विद्याएँ भी बहुत हैं, समय थोड़ा है, विघ्न भी बहुत हैं। अतएव जैसे हंस जल-मिश्रित दूध में से दूध को ले लेता है, उसी प्रकार जो कुछ सारभूत हो, उसी को ग्रहण कर लेना चाहिए।

जैसा अन्न खाया जाता है, वैसी ही प्रजा होती है। दीपक अँधेरे को खाता है और काजल को उत्पन्न करता है।

मनुष्य गुणों से उत्तम बनता है, कि ऊँचे आसन पर बैठा हुआ उत्तम होता है। जैसे ऊँचे महल के शिखर पर बैठकर भी कौआ, कौआ ही रहता है, गरुड़ नहीं बनता।

योग्य पुरुषों के लिए कोई भी कार्य अत्यंत कठिन नहीं होता, उद्योगी मनुष्यों के लिए कोई स्थान दूर नहीं होता, विद्वानों के लिए कोई देश, विदेश नहीं होता और प्रिय वचन बोलने वालों के लिए कोई व्यक्ति पराया नहीं होता।

अस्थिर चित्त वाला मनुष्य मनुष्यों में सुखी होता है और वन में। मनुष्यों के बीच उनका संसर्ग पीड़ित करता है और वन में संसर्ग का अभाव।

जिस प्रकार जल में रहती हुई मछलियाँ जल पीती हुई नहीं ज्ञात होतीं, उसी प्रकार अर्थ कार्यो पर नियुक्त हुए राज कर्मचारी धनों का अपहरण करते हुए ज्ञात नहीं होते।

उपार्जित धन का सत्पात्र में त्याग ही उसकी रक्षा है जैसे जलाशय में स्थित जलों का बहाव उनकी रक्षा करता है।

गुणी पुरुष का आश्रय लेने से, गुणहीन भी गुणी हो जाता है।

अत्यंत चमकता हो तो भी जुगनू अग्नि नहीं होता।

काम-वासना के समान कोई दूसरा रोग नहीं। मोह के समान कोई दूसरा शत्रू नहीं। क्रोध के समान कोई आग नहीं। ज्ञान से बड़ा कोई सुख नहीं।

प्रजा का कोप सब कोपों से बड़ा होता है।

क्रम से जल की एक-एक बूँद गिरने पर कलश भर जाता है, यही रहस्य सभी विद्याओं, धर्म और धन के संबंध में है।

सुवर्ण के बने आभुषणों में निम्नलिखित गुण होते हैं—एक-सा रंग होना, भार रूप आदि में एक-दूसरे के समान होना, बीच में कहीं गाँठ आदि का होना, टिकाऊ होना, अच्छी तरह साफ़ करके चमकाया हुआ होना, ठीक ढंग पर बना हुआ होना, विभक्त अवयवों वाला होना, धारण करने में सुखद होना, स्वच्छ, कांतियुक्त मनोहर आकृति वाला होना, एक-सा होना, मन नेत्रों को अभिराम लगने वाला होना।

अकुलीन मनुष्य राजा होने पर, मूर्ख का पुत्र पंडित बनने पर तथा निर्धन धन पाकर जगत् को तृणवत् समझते हैं।

आकाश में उड़ते पक्षियों की गति को जाना जा सकता है परंतु गुप्त रूप से कार्य करते हुए अर्थ-सबंधी कार्यो पर नियुक्त अधिकारियों की गति को जानना संभव नहीं है।

बुरे ग्राम का रहना, बुरे आदमी की सेवा, बुरा भोजन, क्रोधमुखी पत्नी, मूर्ख पुत्र और विधवा कन्या—ये छह आग के बिना ही शरीर को जलाते हैं।

उद्योग ही धन-संपत्ति का मूल कारण है और उद्योगी होना अनर्थों का कारण है।

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अग्नि से जलते हुए एक ही सूखे वृक्ष से समस्त वन इस प्रकार जल जाता है जैसे एक ही कुपुत्र से संपूर्ण कुल।

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शत्रु का भी अच्छा गुण ग्रहण करने योग्य होता है।

सोते हुए इन सात प्राणियों को जगा देना उचित है—विद्यार्थी, सेवक, यात्री, भूखा, भयभीत, भांडार-अधिकारी और द्वारपाल। सोए हुए इन सात प्राणियों को जगा देना उचित नहीं है—सर्प, राजा, सिंह, सुअर, बालक, पराया कुत्ता और मूर्ख।

कर्मचारी उस अर्थ का थोड़ा भी स्वाद लें, यह संभव नहीं।

व्यवहार में पक्षपात नहीं करना चाहिए। व्यवहार धर्म से भी महत्वपूर्ण है।

मेघ के जल के समान दूसरा जल नहीं। आत्म-जल के समान दूसरा बल नहीं। चक्षु के समान दूसरा तेज़ नहीं। अन्न के समान कोई प्रिय नहीं।

अतिरूपवती होने से सीता का अपहरण किया गया। अतिगर्वी होने से रावण मारा गया। उदारता के कारण बलि का नाश हुआ। अतः ‘अति’ सर्वत्र त्यागनी चाहिए।

धन, जीवन, स्त्री और भोजन के विषय में सब प्राणी अतृप्त होकर गए, जाते हैं और जाएँगे।

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मन से विचारे हुए कार्य को वाणी से नहीं कहना चाहिए। मंत्रणा द्वारा गुप्त बात की रक्षा करे। और फिर क्रियात्मक रूप से कर देना चाहिए।

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