मैं उसे तब से जानता था, जब मैं बहुत छोटा था। वह मेरे पिताजी के जूते बनाता था। अपने बड़े भाई के साथ वह रहता था। छोटी-सी एक गली में दो दुकानों को मिलाकर एक दुकान में बदल दिया गया था, पर अब वह दुकान नहीं रही, उसकी जगह एक बेहद आधुनिक दुकान खड़ी हो गई है। उसकी
दिलफ़िगार एक कँटीले पेड़ के नीचे दामन चाक किए बैठा हुआ ख़ून के आँसू बहा रहा था। वह सौंदर्य की देवी यानी मलका दिलफ़रेब का सच्चा और जान देनेवाला प्रेमी था। उन प्रेमियों में नहीं, जो इत्र-फुलेल में बसकर और शानदार कपड़ों से सजकर आशिक़ के वेश में माशूक़ियत
माँ जब तब कहा करतीं, “हमारे तो करम ही फूट गये हैं।” हम सारी बातों का क्रम जोड़ लेते। माँ ने पिताजी से शाम और अगले दिन सुबह के लिए सब्ज़ियाँ या बाज़ार से कुछ और लाने को कहा होगा। पिताजी ने कहा होगा, “हाँ, हाँ। झोला और पैसे दे दो।” माँ ने पैसे और झोला
शकलदीप बाबू कहीं एक घंटे बाद वापस लौटे। घर में प्रवेश करने के पूर्व उन्होंने ओसारे के कमरे में झाँका, कोई भी मुवक्किल नहीं था और मुहर्रिर साहब भी ग़ायब थे। वह भीतर चले गए और अपने कमरे के सामने ओसारे में खड़े होकर बंदर की भाँति आँखे मलका-मलकाकर उन्होंने
सिपाही को अपनी लाल पगड़ी पर, सुंदरी को अपने गहनों पर और वैद्य को अपने सामने बैठे हुए रोगियों पर जो घमंड होता है, वही किसान को अपने खेतों को लहराते हुए देखकर होता है। झींगुर अपने ऊख के खेतों को देखता, तो उस पर नशा-सा छा जाता। तीन बीघे ऊख थी। इसके 600
एकबारगी यह समझ पाना संभव नहीं था कि क्या हुआ और कैसे हुआ कि दोनों बहनें—एलिज़ाबेथ और कैटरीना पूरे तीस बरस तक कस्बे के बाक़ी बाशिंदों से और तकरीबन हर प्राणी से एकदम कटकर अलग-थलग ज़िंदगी बसर करती रहीं। दोनों बहनें किसी बड़े ज़मींदार की बेटियाँ थीं और आलम
उन लोगों ने निमंत्रण पत्र भेजकर पत्रकारों को न्यौता दिया था कि सप्ताहांत पर वे आएँ और स्वयं अपनी आँखों से देखें कि सरकार के प्रति जनता का समर्थन कितना ज़बर्दस्त है। शायद वे साबित करना चाहते थे कि उस अशांत प्रदेश के बारे में जो कुछ लिखा जा रहा था, वह
चांसलरी लेन में किन्हीं अपरिहार्य व्यस्तताओं के चलते मैं रात को नौ बजे तक व्यस्त रहा आया था और हल्के से सिरदर्द के कारण मेरा मन न तो आगे काम करने का रह गया था और न ही किसी प्रकार के मनोरंजन की तलाश का। ट्रैफ़िक से सँकरी हो चुकी उस गली में झाँकता छोटा-सा
दो कमरों का घर गोल लट्ठों, तख़्तों और पेड़ की छाल से गूँथी गई रस्सियों से बना है। फ़र्श की जगह अंदर चिरे हुए तख़्ते बिछे हैं। घर के एक सिरे पर बना रसोईघर और उसके सामने बना बरामदा आकार में उस घर से भी कहीं बड़े हैं। चारों तरफ़, जहाँ तक नज़र जाती है,
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जश्न-ए-रेख़्ता | 13-14-15 दिसम्बर 2024 - जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, गेट नंबर 1, नई दिल्ली
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