संघर्ष पर

हॉकी के सुप्रसिद्ध खिलाड़ी धनराज पिल्लै जब पैतींस वर्ष के हो गए, उनका एक साक्षात्कार विनीता पांडेय ने लिया था। इस साक्षात्कार का संपादित अंश यहाँ दिया जा रहा है।

विनीता—खिड़की, पुणे की तंग गलियों से लेकर मुंबई के हीरानंदानी पवई कॉम्प्लेक्स तक आपका सफ़र बहुत लंबा और कष्टसाध्य रहा है। उस सफ़र के बारे में कुछ बताएँ।

धनराज—बचपन मुश्किलों से भरा रहा। हम बहुत ग़रीब थे। मेरे दोनों बड़े भाई हॉकी खेलते थे। उन्हीं के चलते मुझे भी उसका शौक़ हुआ। पर, हॉकी-स्टिक ख़रीदने तक की हैसियत नहीं थी मेरी। इसलिए अपने साथियों की स्टिक उधार माँगकर काम चलाता था। वह मुझे तभी मिलती, जब वे खेल चुके होते थे। इसके लिए बहुत धीरज के साथ अपनी बारी का इंतज़ार करना पड़ता था। मुझे अपनी पहली स्टिक तब मिली, जब मेरे बड़े भाई को भारतीय कैंप के लिए चुन लिया गया। उसने मुझे अपनी पुरानी स्टिक दे दी। वह नई तो नहीं थी लेकिन मेरे लिए बहुत क़ीमती थी, क्योंकि वह मेरी अपनी थी।

मैंने अपनी जूनियर राष्ट्रीय हॉकी सन् 1985 में मणिपुर में खेली। तब मैं सिर्फ़ 16 साल का था—देखने में दुबला-पतला और छोटे बच्चे जैसा चेहरा...। अपनी दुबली क़द-काठी के बावजूद कोशिश नहीं करता था। मैं बहुत जुझारू था—मैदान में भी और मैदान से बाहर भी। 1986 में मुझे सीनियर टीम में डाल दिया गया और मैं बोरिया-बिस्तरा बाँधकर मुंबई चला आया। उस साल मैंने और मेरे बड़े भाई रमेश ने मुंबई लीग में बेहतरीन खेल—हमने ख़ूब धूम मचाई। इसी के चलते मेरे अंदर एक उम्मीद जागी कि मुझे ओलंपिक (1988) के लिए नेशनल कैंप से बुलावा ज़रूर आएगा, पर नहीं आया। मेरा नाम 57 खिलाड़ियों की लिस्ट में भी नहीं था। बड़ी मायूसी हुई। मगर एक साल बाद ही ऑलविन एशिया कप के कैंप के लिए मुझे चुन लिया गया। तब से लेकर आज तक मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा।

विनीता—आपका विद्यार्थी जीवन कैसा रहा? अपने स्कूल के दिनों से आपकी किस प्रकार की यादें जुड़ी हैं?

धनराज—मैं पढ़ने में एकदम फिसड्डी था। किसी तरह दसवीं तक पहुँचा, मगर उसके आगे तो मामला बहुत कठिन था। एक बात कहूँ अगर मैं हॉकी खिलाड़ी न होता तो शायद एक चपरासी की नौकरी भी मुझे न मिलती। आज मैं बैचलर ऑफ़ साइंस या आर्ट्स भले ही न होऊँ पर गर्व से कह सकता हूँ कि मैं बैचलर ऑफ़ हॉकी हूँ। (हँसते हुए)...और मेरी शादी के लिए आप मुझे मास्टर ऑफ़ हॉकी कह सकते हैं।

विनीता—आप इतने तुनुकमिज़ाज क्यों हैं? कभी-कभी आप आक्रामक भी हो जाते हैं!

धनराज—इस बात का संबंध मेरे बचपन से जुड़ा हुआ है। मैं हमेशा से ही अपने आपको बहुत असुरक्षित महसूस करता रहा। मैंने अपनी माँ को देखा है कि उन्हें हमारे पालन-पोषण में कितना संघर्ष करना पड़ा है। मेरी तुनुकमिज़ाजी के पीछे कई वजहें हैं। लेकिन मैं बिना लाग-लपेट वाला आदमी हूँ। मन में जो आता है, सीधे-सीधे कह डालता हूँ और बाद को कई बार पछताना भी पड़ता है। मुझसे अपना ग़ुस्सा रोका नहीं जाता। दूसरे लोगों को भी मुझे उकसाने में मज़ा आता है। मुझे ज़िंदगी में हर छोटी-बड़ी चीज़ के लिए जूझना पड़ा, जिससे मैं चिड़चिड़ा हो गया हूँ। साथ-ही-साथ मैं बहुत भावुक इंसान भी हूँ। मैं किसी को तकलीफ़ में नहीं देख सकता। मैं अपने दोस्तों और अपने परिवार की बहुत क़द्र करता हूँ। मुझे अपनी ग़लतियों के लिए माफ़ी माँगने में कोई शर्म महसूस नहीं होती।

विनीता—आपके परिवार की आपके लिए क्या अहमियत है?

धनराज—सबसे अधिक प्रेरणा मुझे अपनी माँ से मिली। उन्होंने हम सब भाई-बहनों में अच्छे संस्कार डालने की कोशिश की। मैं उनके सबसे नज़दीक हूँ। मैं चाहे भारत में रहूँ या विदेश में, रोज़ रात में सोने से पहले माँ से ज़रूर बात करता हूँ। मेरी माँ ने मुझे अपनी प्रसिद्धि को विनम्रता के साथ सँभालने की सीख दी है। मेरी सबसे बड़ी भाभी कविता भी मेरे लिए माँ की तरह हैं और वह भी मेरे लिए प्रेरणा-स्रोत रही हैं।

विनीता—आपने सबसे पहले कृत्रिम घास (एस्ट्रो टर्फ़) पर हॉकी कब खेली?

धनराज—मैंने सबसे पहले कृत्रिम घास तब देखी जब राष्ट्रीय खेलों (नेशनल्स) में भाग लेने 1988 में नई दिल्ली आया । मुझे याद है कि किस तरह सोमय्या और जोक्विम कार्वाल्हो मुझे एक कोने में ले जाकर कृत्रिम घास पर खेलने के गुर बता रहे थे। और जब वे बताने में लगे हुए थे, मैं झुक-झुककर उस मैदान को छू रहा था। मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि विज्ञान इस कदर तरक़्क़ी कर सकता है, जिससे कृत्रिम घास तक उगाई जा सके!

विनीता—हर युवक का यह सपना होता है कि उसके पास एक कार हो। आपके पास अपनी पहली कार कब आई?

धनराज—मेरी पहली कार एक सेकेंड हैंड अरमाडा थी, जो इम्प्लॉयर ने दी थी। तब तक मैं काफ़ी नामी खिलाड़ी बन चुका था। मगर यह कोई ज़रूरी नहीं कि शोहरत पैसा साथ लेकर आए! मैं तब भी मुंबई की लोकल ट्रेनों और बसों में सफ़र करता था। क्योंकि टैक्सी में चढ़ने की हैसियत मुझमें नहीं थी। मुझे याद है, एक बार किसी फ़ोटोग्राफ़र ने एक भीड़ से भरे रेलवे स्टेशन पर मेरी तस्वीर खींचकर अगली सुबह अख़बार में यह ख़बर छाप दी कि 'हॉकी का सितारा पिल्लै अभी भी मुंबई की लोकल ट्रेनों में सफ़र करता है।' उस दिन मैंने महसूस किया कि मैं एक मशहूर चेहरा बन चुका हूँ और मुझे लोकल ट्रेनों में सफ़र करने से बचना चाहिए। लेकिन मैं कर ही क्या सकता था? मैं जो भी थोड़ा बहुत कमाता, उससे अपना परिवार चलाना पड़ता था। धीरे-धीरे पैसे जमा करके बहन की शादी की और अपनी माँ के लिए हर महीने पुणे पैसा भेजना शुरू किया। आज मेरे पास एक फ़ोर्ड आइकॉन है, जिसे मैंने सन् 2000 में ख़रीदा था। मगर वह किसी कॉरपोरेट हाउस का दिया हुआ तोहफ़ा नहीं, बल्कि मेरी मेहनत की गाढ़ी कमाई से ख़रीदी हुई कार है।

विनीता—सफलता का आपके लिए क्या महत्त्व है? हॉकी को आपने इतना कुछ दिया, इसके बदले आपको क्या मिला?

धनराज—कुछ रुपए ईनाम में मिले थे, मगर आज खिलाड़ियों को जितना मिलता है, उसके मुक़ाबले में पहले कुछ नहीं मिलता था। मेरी पहली ज़िम्मेदारी थी परिवार में आर्थिक तंगी को दूर करना और उन सबको एक बेहतर ज़िंदगी देना। विदेश में जाकर खेलने से जो कमाई हुई, उससे मैंने 1994 में पुणे के भाऊ पाटिल रोड पर दो बेडरूम का एक छोटा सा फ़्लैट ख़रीदा। घर छोटा ज़रूर है पर हम सबके लिए काफ़ी है। 1999 में महाराष्ट्र सरकार ने मुझे पवई में एक फ़्लैट दिया। वह ऐसा घर है जिसे ख़रीदने की मेरी ख़ुद की हैसियत कभी नहीं हो पाती।

विनीता—सेलेब्रिटीज़ के साथ एक ही मंच पर बैठना कैसा लगता है?

धनराज—बहुत अच्छा! जब हम राष्ट्रपति से मिले तब यह महसूस हुआ कि हम कितने ख़ास हैं। हॉकी ही है जिसके चलते हर जगह प्रतिष्ठा मिली।

विनिता पांडेय

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