मृत्यु पर कवितांश
मृत्यु शब्द की की व्युत्पत्ति
‘म’ धातु में ‘त्यु’ प्रत्यय के योग से से हुई है जिसका अभिधानिक अर्थ मरण, अंत, परलोक, विष्णु, यम, कंस और सप्तदशयोग से संयुक्त किया गया है। भारतीय परंपरा में वैदिक युग से ही मृत्यु पर चिंतन की धारा का आरंभ हो जाता है जिसका विस्तार फिर दर्शन की विभिन्न शाखाओं में अभिव्यक्त हुआ है। भक्तिधारा में संत कवियों ने भी मृत्यु पर प्रमुखता से विचार किया है। पश्चिम में फ्रायड ने मनुष्य की दो प्रवृत्तियों को प्रबल माना है—काम और मृत्युबोध। इस चयन में प्रस्तुत है—मृत्यु-विषयक कविताओं का एक अद्वितीय संकलन।
मैं मरूँगा दो बार
एक बार प्रेम में
दूसरी बार जीवन में मरूँगा।
मुलाक़ातें रहती हैं समय में
मृत्यु से भी ज़्यादा देर तक।
अगर तुम चाहते हो
कि कोई तुम्हें बहुत प्रेम करे
और दुःख भी न दे
तो तुम्हें मरना पड़ेगा।
धूप कितनी क्रूर है
जिस घर में कोई मर गया
उसी के आँगन में खिल आती है
इसके पूर्व मुत्यु के बारे में
मैं नहीं जान पाया
अब मैं इसको जान गया—
वह उसकी बड़ी-बड़ी
आक्रामक आँखें ही हैं
जीवित मनुष्य की
दो आँखें होती हैं
एक अंक
दूसरी अक्षर
मरे हुए आदमी को
हम याद कर सकते हैं
उसे प्यार नहीं कर सकते