मनोहर श्याम जोशी के उद्धरण
यदि प्रथम साक्षात् की बेला में कथानायक अस्थायी टट्टी में बैठा है तो मैं किसी भी साहित्यिक चमत्कार से उसे ताल पर तैरती किसी नाव में बैठा नहीं सकता।
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प्रेम किन्हीं सयानों द्वारा बहुत समझदारी से ठहरायी जानेवाली चीज़ नहीं।
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प्रेम को वही जानता है जो समझ गया है कि प्रेम को समझा ही नहीं जा सकता।
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ज़िन्दगी की घास खोदने में जुटे हुए हम जब कभी चौंककर घास, घाम और खुरपा तीनों भुला देते हैं, तभी प्यार का जन्म होता है। या शायद इसे यों कहना चाहिए कि वह प्यार ही है जिसका पीछे से आकर हमारी आँखें गदोलियों से ढक देना हमें चौंकाकर बाध्य करता है कि घड़ी-दो घड़ी घास, घाम और खुरपा भूल जाएँ।
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स्वार्थ और स्वाधीनता में क्या अन्तर है? प्रतिबद्धता और पराधीनता में कैसे भेद करें? विवेक को कायरता के अतिरिक्त कोई नाम कैसे दें?
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प्रेम होता ही अतिवादी है। यह बात प्रौढ़ होकर ही समझ में आती है उसके कि विधाता अमूमन इतना अतिवाद पसंद करता नहीं। खैर, सयाना-समझदार होकर प्यार, प्यार कहाँ रह पाता है!
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आधुनिक मनोविज्ञान मौन ही रहा है प्रेम के विषय में, किन्तु कभी कुछ उससे कहलवा लिया गया है तो वह भी इस लोक-विश्वास से सहमत होता प्रतीत हुआ है कि 'असंभव' के आयाम में ही होता है प्रेम-रूपी व्यायाम। जो एक-दूसरे से प्यार करते हैं वे लौकिक अर्थ में एक-दूजे के लिए बने हुए होते नहीं।
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अकेलेपन में भी कुछ है जो नितांत आकर्षक है, सर्वथा सुखकर है लेकिन अफ़सोस कि उसे पा सकना अकेले के बस का नहीं।
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प्रेम होता ही अतिवादी है। यह बात प्रौढ़ होकर ही समझ में आती है उसके कि विधाता अमूमन इतना अतिवाद पसंद करता नहीं। खैर, सयाना-समझदार होकर प्यार, प्यार कहाँ रह पाता है!
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मुझे तो समस्त ऐसे साहित्य से आपत्ति है जो मात्र यही या वही करने की क़सम खाए हुए हो।
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क्या हम मानव एक-दूसरे को दुख-ही-दुख दे सकते हैं, सुख नहीं? हम क्यों सदा कटिबद्ध होते हैं एक-दूसरे को ग़लत समझने के लिए? इतना कुछ है इस सृष्टि में देखने-समझने को, फिर भी क्यों हम अपने-अपने दुखों के दायरे में बैठे रहने को अभिशप्त है? अगर हम ख़ुशियाँ लूटना-लुटाना सीख जाएँ तो क्या यही दुनिया स्वर्ग जैसी सुंदर न हो जाए?
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प्रेमी जिन्हें दर्ज़ करते हैं, उन बातों के संदर्भ में यही प्रतिक्रिया होती है कि यह भला कोई बात है!
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प्यार के कैमरे के दो ही फ़ोकस हैं—प्रिय का चेहरा, और वह न हो तो ऐसा कुछ जो अनंत दूरी पर स्थित हो।
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बच्ची से कैसे कहा जाता है तू अब केवल स्त्री है। और अगर कह दिया जाता है ऐसा, तो फिर यह कैसे कहा जाता है कि यही वयस्कता तेरी स्वतंत्रता का हनन करती है। बच्ची! अब हम तेरी हर बात को बचपना मानकर उड़ा नहीं सकते। और स्त्री! तू कभी ऐसी स्त्री हो नहीं सकती कि अपने मन की कर सके। बच्ची-स्त्री, तू अपने को स्त्री जान; स्त्री-बच्ची, तू अपने को हमारी बच्ची-भर मान।
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बहुत अधिक हैं तर्क, बहुत तरह का है प्यार, और संसार साक्षात् नरक है अकेलेपन की यंत्रणा का।
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यही दुर्भाग्य है। सर्वत्र, सर्वदा उपस्थित लोग आवश्यकता से अधिक होते हैं। कोण बन जाते हैं। कोने चुभते हैं। दो ही रह जाएँ तो भी कुल उपस्थिति में एक व्यक्ति फालतू प्रतीत होता है। जब वे सोचते हैं कि हम एक क्यों नहीं हो जाते या जब उनमें से एक सोचता है कि मैं इस दूसरे में खो क्यों नहीं जाता, या मैं इस दूसरे के हित मिट क्यों नहीं जाता, तब उनमें प्रेम हो जाने की बात कही जाती है। लेकिन जब प्रेम नहीं होता तब यह दूसरा इतना चुभता है आत्मा में कि हम कहते हैं वही साक्षात् नरक है।
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प्यार, लिप्सा और वर्जना के ख़ानों पर ज़माने-भर के भावनात्मक मोहरों से खेली जानेवाली शतरंज है। अंतरंगता खेल नहीं है, उसमें कोई जीत-हार नहीं है, आरम्भ और अंत नहीं है। प्यार एक प्रक्रिया है, अंतरंगता एक अवस्था।
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यह मानने का जी नहीं करता कि उसने हम कीड़े-मकोड़ों में से एक-एक का पूरा जीवन-चरित ख़ुद गढ़ा है। मुझे लगता है कि एक विशिष्ट ढंग से उसने फेंक दिया है हमें कि मंडराओ और टकराओ आपस में। समग्र पैटर्न तो वह जानता है, एक-एक कण की नियति नहीं जानता। क़समिया तौर पर वह ख़ुद नहीं कह सकता कि इस समय कौन कण कहाँ, किस गति से, क्या करने वाला है। नियतियों के औसत वह जानता है, किसी एक की नियति नहीं।
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नियति लिखती है हमारी पहली कविता और जीवन-भर हम उसका ही संशोधन किए जाते हैं। और जिस बेला सदा के लिए बंद करते हैं आँखें, उस बेला परिशोधित नहीं, वही अनगढ़ कविता नाच रही होती है हमारे स्नायुपथों पर।
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दो लोग, दो घड़ी, साथ-साथ इतना-इतना अकेलापन अनुभव करें कि फिर अकेले न रह पाएँ।
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आत्मा जिस प्रेम-रहस्य की वाचिका है, वह काया की पोथी में ही लिखा है। इसे बाँच।
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भक्षण प्रेम का अंतिम चरण है। कितना तो प्यारा लग रहा होता है चूहा बिल्ली को, जिस समय वह पंजा मार रही होती है उस पर।
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अगर स्वाधीनता इसलिए चाहिए कि प्रेम हो सके और प्रेम तभी होता हो, जब प्रतिबद्धता हो तो स्वाधीनता का क्या होता है और प्रेम का क्या बनता है?
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नर के लिए प्यार का उन्माद वहीं तक होता है, जहाँ तक कि वह स्वीकार न हो जाए। उसके बाद उतार ही उतार है। उधर मादा के लिए उसकी उठान ही स्वीकार से आरंभ होती है।
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वर्षों-वर्षों बैठा रहूँगा मैं इसी तरह इस गाड़ी में जिसका नाम आकांक्षा है। वर्षों-वर्षों अपनी ही पोटली पर, मैले फ़र्श पर, दुखते कूल्हों, सो जाती टाँगों पर बैठा रहूँगा मैं। संघर्ष का टिकट मेरे पास होगा, सुविधा का रिज़र्वेशन नहीं।
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प्यार होने के लिए न विपुल समय चाहिए, न कोई स्थूल आलंबना उसके लिए कुछ चाहिए तो आक्रांत हो सकने की क्षमता।
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प्रेम में जो भी तुम उसे लिखते हो, ख़ुद अपने को लिखते हो। डायरी भरते हो तुम और क्योंकि वह तुमसे अभिन्न है इसलिए उसे भी पढ़ने देते हो।
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भाषा का तेवर हर किसी का अपना होता है। इसमें तानाशाही नहीं चल सकती पंडितों की।
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जीवन में क्या-क्या नहीं होता, यह जानते-समझते जिज्ञासुओं का पूरा जीवन बीत जाता है। विविध है, विचित्र है, मायावी है जीवन।
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तुतलाहट से आगे क्यों नहीं बढ़ पाती प्रीति की बानी? और क्यों, जब वह इस सीमा का उल्लंघन करना चाहती है, तुतलाहट से भी निम्नतर कोटि-हकलाहट में पहुँच जाती है वह? प्राचीन आचार्य भी इस तथ्य से अवगत रहे। वे कह गए हैं कि प्रेम में संलाप-प्रलाप-अनुलाप-अपलाप आदि ही होता है। हर प्रेमी जानता है कि प्रतिपक्ष क्या चाह रहा है, किंतु जानकर-भी-न-जानते का विधान है।
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नायक ने एक आंग्ल कवयित्री को उद्धृत करते हुए लिखा कि प्रीति एक धधकती हुई किंतु संदर्भहीन सूक्ति है और एक अमरीकी कवयित्री को उद्धृत करते हुए लिखा कि प्रेमी प्रिया की मुक्ति चाहता है—स्वयं अपने तक से!
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यह सही है कि काम अर्थात् इच्छारहित प्रेम नहीं हो सकता, लेकिन यह भी सही है कि जहाँ काम प्रमुख है, वहाँ प्रेम हो नहीं सकता। काम रूप बिन प्रेम न होई, काम रूप जहाँ प्रेम न सोई।
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सभी निर्णय ग़लत निर्णय होते हैं, किसी-न-किसी संदर्भ में। हमें वही निर्णय करना चाहिए जो हमारे अपने लिए, हमारे विचार से सबसे कम ग़लत हो।
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प्रेम, घृणा का रूप भले ही ले ले, उसे मैत्री में परिवर्तित करना असंभव होगा।
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कितना सुंदर है संसार! कितने अभागे हैं हम कि इसे देखने का अवसर, अवकाश नहीं मिलता हमें! कितने मूर्ख हैं हम कि अगर कहीं जाते भी हैं तो अपनी चिंताओं को ही साथ ले जाते हैं! कितनी विराट विविध है यह सृष्टि और कैसी है यह विडंबना कि हमारे लिए अपनी एकविध क्षद्रुता ही हर कहीं सर्वोपरि रहती है! कहीं इसीलिए तो पूर्वज सुरम्य स्थलों पर मंदिर नहीं बनवा गए कि यहाँ तो भूलो, यहाँ तो झुको!
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व्यंग्य और ईर्ष्या का पात्र समझा जाना इस समाज में महत्त्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में मान्य हो जाने की निशानी है।
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अपने वर्तमान पर लानत भेजने का युवाओं को वैसा ही अधिकार है, जैसा मेरे-जैसे वृद्धों को अतीत की स्मृति में भावुक हो उठने का।
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जीवन में कुछ भी फ़्रीज़ नहीं होता। प्रवाहमान नद है जीवन। क्षण-भर भी रुकता नहीं किसी की कलात्मक सुविधा के लिए।
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जो कहते हैं कि हम यह सब तुम्हारी भलाई के लिए कह रहे हैं, वह यह भी कह रहे होते हैं कि तुम्हारी भलाई में ही हमारी भलाई है।
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वे समझते हैं कि किताबें इस तरह समझनी होती हैं कि अनंतर परीक्षक के समक्ष प्रमाणित किया जा सके कि हम इन्हें वैसा ही समझ गए हैं जैसा कि आप और आपके परीक्षक समझे थे। वह उस स्थिति से अनभिज्ञ हैं जिसमें पढ़नेवाला उतना समझ लेता है, जितना उसे समझना होता है।
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प्रेम हो सकने के लिए एक स्तर पर क्षण के सहस्रांश की अवधि पर्याप्त है और दूसरे स्तर पर अनेकानेक कल्पों की भी अपर्याप्त।
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अगर मानवीय तर्क ही हैं तो प्रेम के लिए दो में से एक की बलि अपेक्षित है। प्रश्न यह है कि तू उससे प्रेम करता है या कि तू चाहता है वह तुझसे प्रेम करे?
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विफल दांपत्य संवादहीनता को जन्म देता है। सफल दांपत्य संवाद की अनावश्यकता को। क्या मौन ही विवाह की चरम परिणति है?
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere