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भूपति

रीतिकाल के नीतिकवि। कविता में दृष्टांत और उदाहरण अलंकारों का कलापूर्ण और प्रभावोत्पादक प्रयोग।

रीतिकाल के नीतिकवि। कविता में दृष्टांत और उदाहरण अलंकारों का कलापूर्ण और प्रभावोत्पादक प्रयोग।

भूपति के दोहे

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आदर करि राखो कितो, करि है औगुन संठ।

हर राखो विष कंठ में, कियो नील वै कंठ॥

संगति दोष पंडितनि, रह खलनि के संग।

बिषधर विष ससि ईस में, अपने-अपने रंग॥

सर सर जद्यपि मंजु हैं, फूले कंज रसाल।

बिन मानस मानस मुदित, कहुँ नहिं करत मराल॥

वह रसाल है औरई, जौन सुखद हिय माँह।

अरे पथिक भटकत कहा, लखि की छाँह॥

हरि तिय देखे ही बने, अचिरिजु अंग गुन गेह।

कटि कहिबे की जानिये, ज्यों गनिका को नेह॥

छुटै संपति बिपति हू, ऊँचे जन को संग।

बसन फटेहु ना छुटै, ज्यों मजीठ को रंग॥

वसन गहो अब बस है, लखि कै नेकु स्वरूप।

बसन भयो मन बस है, तरुनि तिहारे रूप॥

लखि-लखि स्याम सरूप सखि, कह्यो कछू नहिं जाइ।

तजि कुरंग गति नैन ये, गज गति लेत बनाइ॥

मुख जोरे कोरे लगी, दृगनि करत चलि नीच।

अब साँचे दृग मीन भे, चढ़ि तिय बेनी बीच॥

स्याम दुति ईठि तुव, कोऊ लखति ईठि।

तुम राधा संग ही दुरो, परति राधिका दीठि॥

झुकति पलक झूमति चलति,अलक छुटी सुखदानि।

नहिं बिसरै हिय में बसी, वा अलसौहीं बानि॥

अलप अरुन छवि अलप तम, अलप नखत दुति जाल।

लियो विविध रंग नभ बसन, जनु प्राची बर बाल॥

लपटि बेलि सी जाति अँग, निघुटि नटी लौ जाइ।

कोटि नवोढ़ा बारिये, वाकी बोलनि पाइ॥

ये समीर तिहुँ लोक के, तुम हौ जीवन दानि।

पिय के हिय में लागि के, कब लगिहौ हिय आनि॥

नीले जरबीले छुटे, केस सिवार समाज।

कै लपट्यो ब्रजराज रंग, कै लपट्यो रसराज॥

छोटी संगति के मिले, होति छोटिये बात।

ससि राख्यो सस-अंक में, सों कलंक ठहरात॥

नथ दुर मुकुता तिय वदन, परसत परम प्रकास।

मानहुँ ससि भ्रम नखत वर, तजि आयो नभ वास॥

संग छुटत हू ना छुटै, सज्जन को अनुराग।

तोरि लीजिये कंज को, तऊ टूटत ताग॥

कहा मीन अकुलात तू, पर्यो रेसमी जाल।

तरफत कित बेफाइदा, नहिं छूटैगौ हाल॥

होत अचेतन हूहिए, सकल प्रेम की बात।

अस्ताचल दिनमनि चलत, नलिनी दल मुरझात॥

सुर नर असुर फनीस सब, बंदत हैं सब काल।

तेउ कुसंगति के परे, कहवावत हैं ग्वाल॥

जहाँ बीज उपजत तहाँ, गुन नहिं जानों जात।

ज्यौं-ज्यौं दूरहि जात है, दूनो मोल बिकात॥

दूरि रहै नहिं कछु घटै, भये प्रेम सों पूर।

कहुँ मयूर कहुँ मेघ है, कहुँ सरोज कहुँ सूर॥

सजि सिंगार तिय भाल मों, मृगमद बेंदी दीन।

सुवरन के जयपत्र में, मदन मोहर-सी कीन॥

जाकी जौन परी हिये, नहिं छूटे वह वाक।

जटित हेम के साज गज, तऊ चढ़ावत ख़ाक॥

रसाल जानत नहीं, तू कछु हिये विचार।

कोकिल बायस एक संग, बैठावत है डार॥

संगति दोष पंडितनि, रहे खलनि के संग।

विषधर विष ससि ईश में, अपने अपने रंग॥

अचल रहै तिय पिय निकट, नरम सचिव के काज।

हिमकर कर गहि जनु फिरत, सदन सदन रतिराज॥

कच सिवार पंकज नयन, राजति भुजा मृणाल।

पावत पार मीन मन, सरस रूप को ताल॥

एक रूप गुन एक सम, एक रीति सुभ साज।

कुटिल अलक लखि जानियत, कुटिल रूप रसराज॥

संपति लखिकै कृपिन की, करौ मन में भूल।

सुनिबे ही को होत है, ज्यौं गूलरि को फूल॥

सुधा सरौवर तिय वदन, तिहि ढिग चिबुक निपान।

करत रहत है रोज ही, दृग खंजन रस पान॥

कुंदकली हूँ ते सरस, बढ़ी दसन में काँति।

राजति है कैधौं गुही, मंजुल मुकता पाँति॥

पाइ निकट बहु कुसुम सर, करत कुसुमसर ज़ोर।

अब बृंदाबन जाइबो, सखी कठिन नहिं थोर॥

लग्यौ सरस जावक सरस, कौन करे परभाग।

की अंतर ते बढ़ि चल्यो, लाल बाल अनुराग॥

छोट बढ़ाये बढ़त दुख, सुनि रावन की बात।

हरहू जुत कैलास को, किय उठाइ उतपात॥

नीचे नर ते ना करो, भूलिहु मन में संग।

परे गाँठ ज्यौं जातु है, छूटि कुसुम को रंग॥

विज्जु छटा प्रगटी मनौ, ठटी रूप ठहराति।

नहिं आवति मेरी अँटी, नटी नटी-सी जाति॥

होत छोट छोटी करत, जदपि लिए गुन मोट।

बलि छलिबे को मन कियो, भये आनि हरि छोट॥

जाकी जौन परी हिये, नहिं छूटै वह बानि।

सुधा सलिल सींचे नहीं, होति इदारुनि आनि॥

मिली ललकि उठि लाल को, टूटी लाल की माल।

मनौ कढ़ी उर ते परै, विरह अनल की ज्वाल॥

रच्यौ कुरंग सुरंग दृग,जान्यो बिधि रसभंग।

वै कानन मैं करि दये, ये कानन के संग॥

मंजुल मुकुत निते गुहे, छुटे बार छवि देत।

तारन सहित सुहावनी, छवि नभ की हरि लेत॥

केहू विधि नहिं छोड़िये, निज स्वभाव रो सोध।

जलधर जल बरसो करै, कहा कूर गृह रोध॥

लेति आनि निसि घेरि के, सीत तेज तन लागि।

राखति प्रानन नाह बिन, सुरति नाह हिय लागि॥

नीचेऊ बढ़ि जात हैं, सतसंगति के साथ।

पान संग मिलि पातऊ, जात बड़ेन के हाथ॥

सुखी बँसुरी आपु है, क्यौं जाने पर पीर।

बजि-बजि रोजहिं आपु लौ, कियो चहत है बीर॥

नई दुलहिया देह दुति, को बरनै अवदात।

सहज रंग लखि अधर को, सौती पान खात॥

जदपि नूत मृदु मंजरी, रही कंटकनि घेरि।

तऊ जात अति जतन ते, लेत मधुप मग हेरि॥

सर-सर यद्यपि मंजु है,फूले कंज रसाल।

बिन मानस मानस मुदित, कहु नहिं करत मराल॥

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