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जापान में आख़िरी दस दिन

तीसरी कड़ी से आगे...

13 अगस्त, 2020

भारत लौटने की 23 अगस्त की फ़्लाइट का कंफ़र्मेशन आ गया है एंबेसी से। अंतत: सीट पक्की हो गई। इतनी अनिश्चितता के बाद, कोई ख़बर आई है, लेकिन इस सूचना का क्या मतलब हुआ? मुझे लौटने की पूर्व निर्धारित तारीख़ 3 अगस्त से 20 दिन बाद की तारीख़ दे दी गई। हफ़्तों का इंतज़ार और आशंका, जुलाई में बंद हुई छात्रवृत्ति के बाद बचत से ख़र्च चलाने की चिंता, अनिश्चितकाल तक लौट नहीं सकने का डर—आज ख़त्म होता नज़र आ रहा है। 

इस सबके बावजूद मैं ख़ुश क्यों नहीं हूँ? ओह! अब यहाँ से सब समेटना होगा। एक ऐसी सुंदर जगह जहाँ सुबह उठते, दो क़दम चलते ही मैं ख़ुद को पहाड़ों के एकदम नज़दीक पाती हूँ, मेरी यह बालकनी अब छूट जाएगी। कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर स्थित का समुद्र-तट, ताकाशी सान से मुलाक़ातें, तोमो के साथ हर शनिवार कहीं घूम आने का नियम, नोज़ोमु से जल्द फिर मिलेंगे कह सकने की गुंजाइश, यह देश, इसके लोग, बेहद शानदार प्रोफ़ेसर—क्या सब यही छोड़ना होगा! कुछ तो होगा यार, जो मेरे इस सूटकेस में आ सके। कुछ तो... 

लेकिन यह समय अब यह सब सोचने का वक़्त नहीं दे रहा। काग़ज़ी कार्यवाहियाँ निपटानी हैं। सबसे पहले ग्रेस सान को मेल करके टिकट के बारे में बता रही हूँ। पेमेंट जापानी येन में बैंक ट्रांसफ़र से ही हो सकता है। किसके साथ जाऊँ यह पूछ रही हूँ। एक के बाद एक मेल। मैसेज। मैं लगभग एक हफ़्ते से हर कुछ देर में ख़ुद को याद दिला रही हूँ कि वार्ड ऑफ़िस जाओ, रेसिडेंट कार्ड और इंश्योरेंस कैंसिल कराओ। पोस्ट ऑफ़िस जाकर बैंक खाता बंद कराओ। फ़्लाइट टोक्यो से है, टोक्यो तक का टिकट बुक करो। सुबह सात बजे रिपोर्ट करना है, एक रात पहले जाओ। होटल बुक करो। एयरपोर्ट के अंदर का होटल खोजो। यह सब इतना महँगा क्यों है... मैं मन ही मन में झुँझला रही हूँ। पैसे ट्रांसफ़र करो। उफ़्, पैसे भेजना इतना मुश्किल क्यों है। एक काम के लिए चार चक्कर। मुझे नहीं जाना वापस। नहीं करना ये सब। उठो उठो, चलते रहो। पानी पियो। बीमार नहीं पड़ना है। खाँसी-ज़ुकाम तो बिल्कुल नहीं। जल्दी सो जाओ, सुबह उठना है।

दस दिन का समय, सब निपटाते-निपटाते कम पड़ जाता है। कुछ चीज़ें अपेक्षा से बहुत ज़्यादा समय ले लेती हैं। सिम-कार्ड बिल्कुल उस सुबह कैंसिल होगा, जिस दिन यहाँ से निकलना है। सिम-कार्ड कैंसिल नहीं करवाने पर, उसका बिल आता रहेगा। जापान में हमारे यहाँ की तरह सिम अपने आप बंद नहीं होते। बहुत-सी मुश्किलें अंतिम समय आ खड़ी होती हैं। कई बार सब छोड़कर बैठ जाने का मन होता है, लेकिन सब किसी तरह से समेट लिया गया। अच्छे जापानी दोस्तों की बदौलत। जो आख़िरी एक हफ़्ते में निरंतर साथ बने रहे। तोमो, कोकोरो, आई और कुछ और जापानी दोस्तों के लिए हृदय में कृतज्ञता और गहरा जाती है। मुझे सबके लिए चिट्ठियाँ लिखनी थीं। लिख नहीं सकी। फिर भी ताकाशी सान, कुछ प्रोफ़ेसरों, इंटरनेशनल सेंटर के ग्रेस और सो सान को जैसे कुछ दोस्तों को चिट्ठियाँ और छोटे तोहफ़े दे सकी, इस बात का संतोष है।

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मैं भारत के बारे में सोच रही हूँ। मुझे इस समय की राजनीतिक और शैक्षणिक स्थिति और मायूस करती है। मैं लौटने से डर रही हूँ। तोमो से कहती हूँ, मुझे नहीं पता वापस जाकर कैसे एडजस्ट कर पाऊँगी। तोमो कहता है, हो जाएगा; लेकिन मैं आश्वस्त नहीं हूँ। जेएनयू से साल भर में कोई अच्छी ख़बर नहीं आई है और अभी कोरोना की वजह से यूनिवर्सिटी कब खुलेगी बिल्कुल पता नहीं। 

मैं घर पर पिछले चार सालों में कभी भी एक महीने से ज़्यादा नहीं रही। लगता है, कैसे रहूँगी इतने महीनों और अभी तो क्वारंटीन में भी रहना होगा। बस! बस!! बस!!! और नहीं सोचना चाहती। मैं नहीं लौटने के ख़याल से कभी भी बहुत उदास नहीं हो पाई हूँ। लगता है रह सकती, तो जापान में महीनों और रह जाती। कितना कुछ बचा हुआ है—देखने को, सीखने को, समझने को। लगता है भारत में सड़कों का हो-हल्ला, धर्म की राजनीति, कपड़ों को लेकर दिए जाने वाले ताने, देह बेधती नज़रें, अकेडमिया की सोचनीय दशा—ये सब मुझे भीतर-भीतर बहुत डरा रहा है। कहीं छुप जाना चाहती हूँ। कहीं जगह नहीं है, टिकट मेरे हाथ में है। एयरपोर्ट ख़ाली है और मुझे अपने कैप्सूल होटल में समय से सो जाना है।

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क़रीब आठ घंटे की यात्रा और भारत आ गया। फ़्लाइट में अनाउंसमेंट हुई है कि कृपया क्रू को अनावश्यक संपर्क से सुरक्षित रखने के लिए अपना कचरा स्वयं ले जाएँ और बाहर उचित जगह में डालें। लखनऊ में भैया के घर आ गई हूँ। अभी घर नहीं गई हूँ। घर आते हुए दिखी सड़कें उतनी व्यस्त नहीं थी, जितनी हमेशा होती थी।

खाना बनाते हुए, सोच रही हूँ कि यहाँ के चाक़ू इतने छोटे क्यों हैं? जापान गई थी तो शुरू-शुरू में बड़े चाक़ू डरावने लगते थे। फिर इस्तेमाल करने के बाद आसान लगने लगे। अब उनकी आदत हो गई थी। बार-बार लग रहा है कि छोटे चाक़ू से नाहक़ ही अधिक समय जा रहा है और यह प्याज़ का कट ही नहीं पा रहा है।

मैं इस सरकारी कॉलोनी के घर के जंगले पर खड़ी होकर बाहर देख रही हूँ और सोच रही हूँ कि मैं जापान में रहकर लौटने के बारे में सोचते हुए; हमेशा राजनीति, शिक्षा और जाने किस-किस बात के लिए घबराती रही, लेकिन किसने सोचा था—लौटते ही जो आदतें सबसे अधिक दिक़्क़त करेंगी वह चाक़ू और प्याज़ होंगी। हमारी आशंकाएँ कितनी अपेक्षित और दृश्य चीज़ों के लिए होती हैं और कितने मज़े की (या दुःख की) बात है कि सच्चाई बेहद जटिल, सूक्ष्म और महीन होती है। मैंने जापान से भैया के लिए लाए हुए बड़े चाक़ू के बारे में उनसे पूछने का ख़याल छोड़ दिया है। हाथ अब छोटे चाक़ू पर सधने लगे हैं। महीनों से छूटी चाय वापस से समय-असमय पी जाने लगी है। बाथ-टब की याद यह लिखने तक नहीं आई थी और अब उठने के बाद मैंने खिड़की से पहाड़ भी नहीं ढूँढ़ा है।

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(समाप्त)

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