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छठ, शारदा सिन्हा और ये वैधव्य के नहीं विरह के दिन थे...

मुझे ख़ूब याद है जब मेरी दादी गुज़र गई थीं! वह सुहागिन गुज़री थीं। उनकी मृत्यु के समय खींची गईं तस्वीरों में एक तस्वीर ऐसी है कि देखकर बरबस रोना आता है। पीयर (पीली) दगदग गोटेदार पुतली साड़ी में लिपटी दादी की देह, नाक से माँग तक लाल टहटह सिंदूर से बहोरी गई माँग की दमक और बाबा की सफ़ेद बनियान-धोती वाली सजीव काया की गोद में! 

जवार भर की महिलाएँ—हर जाति-हर धर्म की—जो भी आ सकती थीं, सिंदूर की एक कोरी गद्दी और टिकुली का एक कोरा पत्ता लेकर दौड़ पड़ी थीं। हर औरत एक चुटकी सेनुर दादी की माँग में और फिर उसकी माँग से छुआया हुआ सेनुर अपनी माँग में भर रही थी। ठीक ऐसे ही अपने-अपने पत्ते से एक टिकुली दादी की माँग में छुआ कर अपनी माँग में सजा रही थीं औरतें! 

“दादी/काकी/माई एहवाती गइल बानी, 
सोहाग के असीरबाद ले लऽ ए बहिना!” 

अहिवात की ऐसी गौरवपूर्ण विदाई अभूतपूर्व थी।

बाबा दादी में कभी-कभार नोंक-झोंक होती तो बाबा दादी को चिढ़ा देते थे। कहते—“हम मर जाएम तऽ तोहरा पिंसिल (पेंशन) मिली, अंगूठा के ठप्पा लगा के पेंशन उठइहऽ!” 

दादी तमक कर कहतीं—“बढ़नी (झाड़ू) से मारेम ओह पइसा के! उ दिन आवे से पहिले हम चल जाएम बेटा भतार के कान्हा (कंधा) पर चढ़ के!” 

और क्या ग़ज़ब संयोग कि ठीक वैसे ही गई वह। तीनों के तीनों बेटे और पति के कंधे पर चढ़ कर ही गईं।

ख़ैर... दादी की बातें फिर कभी। इस स्मरण के माध्यम से मैं कहना यह चाह रहा हूँ कि जिस ग्रामीण समाज से मैं आता हूँ, वहाँ आज भी वैधव्य स्त्री-जीवन के लिए सबसे बड़ा अभिशाप है। ठीक इसके विपरीत अहिवात (अविधवात्व) स्त्री-जीवन का सबसे बड़ा सौभाग्य है। वैसे मेरी व्यक्तिगत राय इसके विरुद्ध है, लेकिन लोक तो लोक है। अस्तु हमारा समाज स्त्रियों को लेकर अभी तक मुक्तमना नहीं हो पाया है। 

आज से बिहार का सबसे बड़ा महापर्व छठ प्रारंभ हुआ है। अपने ढंग का अनोखा और इकलौता यह व्रत—कष्टी व्रत कहलाता है। यहाँ कष्टी व्रत का आशय कृष्टी (कृषि आधारित) का अपभ्रंश न होकर सीधे-सीधे कष्ट सहने वाला व्रत है। तीन दिन का यह कठिन व्रत स्त्री-पुरुष दोनों रखते हैं, लेकिन व्रती पुरुषों की संख्या सिंधुलवणवत होती है। स्त्रियों के ऊपर ही इसकी सारी ज़िम्मेदारी होती है, हाँ यह ज़रूर है कि पुरुष वर्ग इस व्रत की तैयारियाँ उसी मनोयोग से करता है।

छठ के गीतों को ध्यान से सुनें तो इस महान कष्टी व्रत को सहकर इसके सुफल के रूप में स्त्रियाँ नइहर (ज्ञातृ (पिता)+गृह) और ससुराल (श्वसुर आलय) में सबके लिए सुख, समृद्धि, स्वास्थ्य की कामना के बाद अपने नितांत व्यक्तिगत जीवन हेतु क्या माँगती हैं, इसे एक छठ गीत में देखा जा सकता है—

चार पहर राति जल थल सेईलें
सेईलें सरन तोहार, दीनानाथ!
दरसन देहू अपान!

मांगु मांगु तिवई कवन फल मांगेलू
जे तोरा मन में सोहाय,दीनानाथ!
दरसन देहू अपान!

सबके लिए सबकुछ माँगने के बाद व्रती कहती है—

अपना ला मांगी लें अवध सिन्होरवा हो
जनम जनम एहवात, दीनानाथ!
दरसन देहू अपान!

वह स्वयं के लिए अवध्य सिन्होरा (काष्ठ निर्मित सिंदूरदानी) और जन्म-जन्म का अविधवात्व माँगती है!

छठ पर्व एक बड़ा ही निर्दोष और अकुंठ व्रत है। सूर्य देव राजा हैं और संसार उनकी प्रजा। इसलिए गीतों में सूर्य प्रकट होते हैं और व्रती उनसे ऋषि-मुनियों की तरह भक्ति और मोक्ष नहीं माँगता। वह अधिकार से अपनी माँग उनके समक्ष प्रस्तुत करता है। आप राजा हैं, देवता हैं—आप से न माँगे, तो माँगें किससे! मोक्ष माँगेंगे तो कल से हमारे पके हुए धान की फ़सल कौन काटेगा! भक्ति और वैराग्य माँगें तो संसार में कर्मशीलता कैसे बचेगी! ये ऋषि-मुनियों के चोंचले हैं कि भक्ति दे दो और मुक्ति दे दो। हमें नहीं चाहिए। हमें तो उत्तम स्वास्थ्य, धन-धान्य, संतति और अहिवात की कामना है। सूर्य मुस्कुराकर रह जाते होंगे इस भाव पर।

इस बार का छठ पर्व विषाद से भर गया है। एक ऐसी आवाज़ जो सूर्य देव को सबसे ज़्यादा प्रिय थी, वह हमेशा के लिए शांत हो गई। सूर्य इस बार धरती पर कुछ कमी महसूस करेंगे। इस बार सूर्योदय में अधिक विलंब होगा क्योंकि इस विशेष दिन पर सूर्य, शारदा सिन्हा के द्वारा जगाए जाने की आशा में पड़े रहेंगे।

वह गीत सुनकर लगता है—जैसे शारदा जी सूर्य देव से जवाब माँग रही हैं कि आप थे कहाँ? इतनी देर क्यों लगी, उदित होने में? हम व्रती बहनें निर्जला उपवास पर हैं और आपको इसकी परवाह नहीं? और सूर्य देवता इस कारण बताओ नोटिस पर लगते हैं कारणों का हवाला देने—“रास्ते में एक बाँझन मिल गई थी, उसे पुत्र देते देर हुई। एक अंधा मिल गया तो उसे आँख देते देर हुई। एक कोढ़ी मिला तो उसे सुंदर काया देते हुए देर हुई।”  

शारदा सिन्हा की आवाज़ में यह गीत एक चलचित्र-सा दिखने लगता था। एक ओर अनंत तेजोमय भगवान सूर्य दूसरी ओर प्रखर तेजस्विनी शारदा सिन्हा। गीतिमय संवाद—सूर्य ज़रूर शारदा जी की तुलना अपनी माँ अदिति से करते होंगे।

अनंत गायिकाओं ने छठ गीत गाए, लेकिन शारदा सिन्हा में और अन्य के गीतों में एक बड़ा पवित्र-सा अंतर था। शारदा जी व्रती पहले थीं गायिका बाद में। जैसे आज भी बंगाल के दुर्गा पूजा पंडालों में बिरेंद्र कृष्ण भद्र की आवाज़ में गूँजती हुई स्तुति सुनकर देवी के साक्षात् प्रकट हो जाने का भ्रम होता है, वैसे ही शारदा जी की आवाज़ एक गायिका की आवाज़ से ज़्यादा एक व्रती की गुहार लगती है। एक ऐसा स्वर जिससे यह विश्वास उपजता है कि इस स्वर में मेरी भी पीड़ा और पुकार सम्मिलित है।

शारदा सिन्हा के पति के निधन का समाचार सुनकर सबसे पहले ज़ेहन में कौंधा—“जनम जनम अहिवात!” तो क्या इस आजीवन व्रती की जीवनभर की प्रार्थना का कोई अर्थ नहीं!

संसार में कोई किसी के साथ नहीं जाता लेकिन पति के जाने के तुरंत बाद बीमार हो कर महज डेढ़ माह बाद उसी अनंत राह पर निकल जाना यह महज संयोग नहीं है। इसे छठी माई का विधान नियोजन कहें तो भी और दाम्पत्य प्रेम कहें तो भी—यह पराकाष्ठा है! वैधव्य के साथ जीवन शब्द जोड़ दिया गया है, इसका सीधा अर्थ है कि वैधव्य उस अवस्था का नाम है जब पति (धावा) के बिना जीने की शैली आ जाय। पति के जाने के बाद शारदा जी ने जो भी जिया है, वह नितांत विरह है, वैधव्य नहीं।

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