...इस साल का आख़िरी ख़त
अंचित
31 दिसम्बर 2024

एमजे के लिए इस साल का आख़िरी ख़त
एक
बीत गए में कुछ जोड़ना जितना मुश्किल है, उतना ही मुश्किल है उसे याद करना। एक ताख़े पर कुछ किताबें जुड़ जाती हैं, जैसे उनका कुछ ख़ुद से जुड़ जाता है। एक मन होता है, जिस पर कुछ घाव पहले से होते हैं, उस मन पर कुछ निशान फिर लग जाते हैं। जैसे मिल्टन से उधार लेते हुए यह कहा जा सकता है कि नींद और रात का एक दूसरे से कोई संबंध नहीं होता, क्या यह कह सकते हैं कि हालिया बीत गए से पहले बीता क्या कुछ जुड़ पाता है? अर्थहीनता अगर अर्थहीनता से गुणा होगी तो क्या कुछ मुकम्मल बनेगा?
क्या एक पूरा साल, एक शहर को दुबारा खोजते हुए बिताया जा सकता है? कवाफ़ी की शहर वाली कविता एक भविष्यवाणी, या एक सत्य की तरह निरंतर पीछा करती है। तुम्हारे पीछे, मैं तुमसे अलग, एक पूरा शहर फिर से खोजता हुआ, बिताता हूँ। तुम्हारे पीछे, मैं तुमसे अलग, एक पूरा ‘होना’, एक पूरी मोहब्बत खोजते हुए बिताता हूँ।
‘मोहब्बत’ कितना हल्का शब्द है और कविता में इस्तेमाल करने लायक़ नहीं है, पर करने लगा हूँ। ‘प्रेम’ भी बहुत ज़्यादा शोषित है, बहुत अधिक इस्तेमाल होता हुआ और इतनी आसानी से उपलब्ध कि कहीं भी देखते ही, इस शब्द से कोफ़्त होती है। शेली को इस शब्द से पूरी सहानुभूति थी। मुझे नहीं है। प्रेम की परिभाषाएँ खोजना, उसको कविता में लिखना, कितना ख़राब है!
कुछ, जिसको जानबूझकर ही सही, हमेशा द्वंद्वों से दूर होना चाहिए, पूजनीय होना चाहिए, एक शब्द की सीमा में बँध जाए और थोड़ा भी अमूर्त न रह जाए, रोज़ गिरता जाए, रोज़ कमतर होता जाए, यह कितना जायज़ है?
फिर, सुंदरता का आग्रह, सुंदरता का मिल जाना नहीं है। द्वंद्वों से आज़ादी की कामना भी कभी पूरी नहीं होती। और ‘हो सकती है’ की शुतुर्मुर्गीय स्थापना मुझे कभी बाँध नहीं सकेगी, इसलिए मैं उसी शहर में भटक रहा हूँ। जैसे मैं एक ही कविता में भटक रहा हूँ। कवाफ़ी की कविता की तरह वही चौराहे, वही गलियाँ, वही सड़कें, मेरे रास्ते आती हैं जिनपर मैं गिरता हूँ, घुटने छिलवा, मरहम लगा, फिर भटकने लगता हूँ।
कोई रास्ता नहीं है, कोई आस्था नहीं है जो मुझे बचा लेगी। वहाँ भी यही सवाल पीछा करता है कि वह मिल जाएगा तो अधूरा नहीं हो जाएगा?
क्या यह कम दुखदायी है कि हर क्रिया के पक्ष में और उसके विरुद्ध हमारे पास सिर्फ़ तर्क हैं और कुछ ठोस नहीं? बीत गए को भी तार्किकता से नहीं बचाया जा सकता। जबकि सब अ-बस है, हमलोग, जीने के पक्ष में तर्क खोजते हुए जीने वाली सदी हैं।
दो
तुम्हारी आवाज़ मुझे बहुत दूर से पुकारती है और मैं सिर्फ़ एक भाव, एक ध्वनि के सहारे इन सब से दूर चला जाना चाहता हूँ। ये साल क़ैदख़ाने हैं और कोई सज़ा अबतक मुक़र्रर नहीं। फिर तुम घटती नहीं, बढ़ती जाती हो, बढ़ती जाती हो, बढ़ती जाती हो। जैसे मैं फ़ैज़ के एक मिसरे से उबरता हूँ और दूसरा मुझे चोटिल कर देता है।
मैं दोहरावों की एक बासी किताब हो गया हूँ जो इस साल उतनी ही खुली जितना मेरे भीतर तक लगी दीमक ने उसे खुलने दिया। मैं खुलना चाहता था, और पढ़ा जाना भी। और मैंने बेतहाशा कोशिशें कीं।
मैं छुआ जाना चाहता था, और चाहता था मेरे ज़ख़्म सहलाए जाएँ। और मैंने बेतहाशा कोशिशें कीं।
कोई तो अपनी कामनाओं की सूची में मुझे सबसे ऊपर रखे, कि कोई अपने सारे ज़रूरी काम छोड़ कर मेरी तरफ़ आए, कि मैं किसी के सिरहाने, किसी के तकिये के पास, भले ही ख़ामोश पड़ा रहूँ—तब तक, जब तक अगला किसी के प्रणय संदेशों का जवाब दे रहा हो, कंप्यूटर पर काम कर रहा हो या बॉलकनी में बैठा सिगरेट पीता हो। और मैंने बेतहाशा कोशिशें कीं।
जैसे जो नहीं आया, वह कभी नहीं आएगा। जैसे जिसके हिस्से ख़ाली रहना है, उसको ख़ाली ही रहना है। इस साल मुझे मान लेना चाहिए था कि तुम उसी साल जीत गई थी। मैं, तब ही हार गया था।
यहाँ चीज़ें नहीं बदलतीं। ऊपर से भले रूप बदलता हो, तात्विक कोई अंश एक रेशा भी इधर-उधर नहीं होता। हम यथास्थितियों की सदी हैं।
तीन
मेरी सारी ग़लतियाँ प्यार नहीं, मुझे मोहब्बत कहना चाहिए—मोहब्बत की तलाश से बनी हैं और इस अस्वीकार से कि तुम अब मेरे लिए नहीं हो। आदमी भटक में ग़लतियाँ करता है और भटक के दिनों से ही उसकी ग्लानि बनी होती है। यह भटक न सिर्फ़ ख़ुद को कम कर देने की है, तुमको भी कम करने की है जिसकी कोशिशों में मैं पूरे साल उलझा रहा।
‘इटरनल सनशाइन ऑफ़ द स्पॉटलेस माइंड’ याद आती रहती है। इतने सालों पहले देखी हुई और उस देखने से बनी चाहतें। लेकिन अस्ल जीवन में ऐसा नहीं होता। कभी नहीं होता। अपने को कम कर देने से, तुमको कम कर देने से कुछ सुलझता नहीं बल्कि जो तयशुदा था उससे और दूर हो जाता हूँ। एक कवि के लिए यह कोई अच्छी स्थिति नहीं है। वह ऐसे ही ख़ाली होता है। मैं कम कवि होना चाहने लगा हूँ और उससे भी कम मनुष्य होना। मैं इब्लीस होता अगर इब्लीस का इल्म और उसकी दृढ़ता मेरे भीतर होती। लेकिन न मैं पूरा हुआ, न मैं आधा हो सका।
आदमी बहुत सरलता से कह देता है कि उसे किसी चीज़ का अफ़सोस नहीं है। स्वीकार करता हूँ कि कई बार सोचता हूँ कि क्या कुछ और संभावनाएं थीं जिनकी तरफ़ जाया जा सकता था या जाना चाहिए था? भागता हुआ भाषा के पास जाता हूँ कि वह मुझे कुछ दे सकेगी, नहीं दे पाती। जो साधारण है, वह मुझे नहीं चाहिए था और अब वह भी मेरे पास नहीं बचा। उसका उल्लास मुझे परेशान करता है और अभी इस साल के जाते-जाते मैं उसके लिए भी तैयार था कि मेरा वर्तमान साधारण किसी और साधारण से बदल जाता।
यह जड़ता है, जो बेचैन करती है। क्या यही बूढ़ा होना है? या आत्मसमर्पण की ओर बढ़ता हुआ जीवन? कामू कहते हैं—आत्महत्या वह आख़िरी प्रश्न है जो हमें सुलझाना है पर वह भी तो संभावनाओं का निषेध है। ईमानदारी हमें कहीं लेकर नहीं जाती, और हम ऐसे भी कहीं नहीं जा रहे। हम बर्फ में जमे हुए लोग हैं और हमारी देह अब कुछ महसूस नहीं करती।
चार
जो आने वाला है, उसके बारे में सोचना दुखकर है। अभी दुष्कर नहीं हुआ, यह भी आश्चर्य है। जो बीत गया वह दीमक की तरह था, जो आने वाला है उन विषाणुओं की तरह जो मेरे फेफड़े खाते रहे और मैं देह के दुखों का उत्सव करता रहा। यह कवि होना तो नहीं है, न वह सूली है जिसपर मैं अब शहीद होना चाहता हूँ। पर दीवार पर नया पेंट लगा देने से भी दीवार वही रहती है। मैं पेड़ नहीं हूँ कि कोई डाल काट दी जाए तो नई कोंपलें उग आएँगी। मैं नया दिन भी नहीं जो रोज़ एक वादा लिए आता है। मैं सूख गई नदी हो सकता हूँ, जिसके दीयरे में उपलब्धि के नाम पर एक जंगाई नाव का एक टूटा हिस्सा पड़ा है।
अब तो मैं पूर्ण निराशा के लिए भी प्रस्तुत हूँ पर वह भी नहीं है। मैं अभिधा के लिए भी प्रस्तुत हूँ पर वह मुझे संतुष्ट नहीं करती। जो आने वाला है उससे कैसे जूझना है, मैं नहीं जानता। जो चला गया उसको कैसे अलविदा कहना है, यह भी नहीं। जो प्रचारित है, जो उत्साहित है, जो गर्व और विजयों से भरा है, वह लघुतर होता जाता है। न उसका तिरस्कार ही मुझसे हो सका है, न उसमें किसी तरह का भरोसा। उसको मैं हतप्रभ देख रहा हूँ।
मैं सोचता हूँ, मैं नई कहानियाँ सुनाऊँगा। मैं, जो एक पहाड़ से बँधा है अनंतकाल तक शापित। मैं, जिसका माँस खाने रोज़ एक गिद्ध आता रहेगा।
'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए
कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें
आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद
हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे
बेला पॉपुलर
सबसे ज़्यादा पढ़े और पसंद किए गए पोस्ट
07 अगस्त 2025
अंतिम शय्या पर रवींद्रनाथ
श्रावण-मास! बारिश की झरझर में मानो मन का रुदन मिला हो। शाल-पत्तों के बीच से टपक रही हैं—आकाश-अश्रुओं की बूँदें। उनका मन उदास है। शरीर धीरे-धीरे कमज़ोर होता जा रहा है। शांतिनिकेतन का शांत वातावरण अशांत
10 अगस्त 2025
क़ाहिरा का शहरज़ाद : नजीब महफ़ूज़
Husayn remarked ironically, “A nation whose most notable manifestations are tombs and corpses!” Pointing to one of the pyramids, he continued: “Look at all that wasted effort.” Kamal replied enthusi
08 अगस्त 2025
धड़क 2 : ‘यह पुराना कंटेंट है... अब ऐसा कहाँ होता है?’
यह वाक्य महज़ धड़क 2 के बारे में नहीं कहा जा रहा है। यह ज्योतिबा फुले, भीमराव आम्बेडकर, प्रेमचंद और ज़िंदगी के बारे में भी कहा जा रहा है। कितनी ही बार स्कूलों में, युवाओं के बीच में या फिर कह लें कि तथा
17 अगस्त 2025
बिंदुघाटी : ‘सून मंदिर मोर...’ यह टीस अर्थ-बाधा से ही निकलती है
• विद्यापति तमाम अलंकरणों से विभूषित होने के साथ ही, तमाम विवादों का विषय भी रहे हैं। उनका प्रभाव और प्रसार है ही इतना बड़ा कि अपने समय से लेकर आज तक वे कई कला-विधाओं के माध्यम से जनमानस के बीच रहे है
22 अगस्त 2025
वॉन गॉग ने कहा था : जानवरों का जीवन ही मेरा जीवन है
प्रिय भाई, मुझे एहसास है कि माता-पिता स्वाभाविक रूप से (सोच-समझकर न सही) मेरे बारे में क्या सोचते हैं। वे मुझे घर में रखने से भी झिझकते हैं, जैसे कि मैं कोई बेढब कुत्ता हूँ; जो उनके घर में गंदे पं