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नए लेखकों के लिए 30 ज़रूरी सुझाव

पहला सुझाव तो यह कि जीवन चलाने भर का रोज़गार खोजिए। आर्थिक असुविधा आपको हर दिन मारती रहेगी। धन के अभाव में आप दार्शनिक बन जाएँगे लेखक नहीं। 

दूसरा सुझाव कि अपने लेखक समाज में स्वीकृति का मोह छोड़ दें। जो आपको पहले से पढ़ रहे हैं वे आपको तभी तक सुझाव-सलाह देंगे—जब तक आप उनसे बुरा लिख रहे हैं। जैसे ही आप ठीक या अच्छा लिखने लगेंगे वे आपको दुलत्ती लगाने पर आ जाएँगे।

तीसरा सुझाव यह कि अपनी रचना को किसी भी माध्यम से जितना प्रसारित कर सकें उतना करें। आप किसी ऐसी पत्रिका में प्रकाशित होकर चुप न बैठ जाएँ जो सात सौ लोगों तक भी नहीं जाती है। 

चौथा सुझाव यह कि संपादक और तथाकथित आलोचक जो कि अब ठीक से समीक्षक भी नहीं रह गए हैं, उनके द्वारा मान्यता पाने का कोई निरर्थक प्रयत्न न करें। यदि वे आपके लिखे को क्लासिक या महान् कह भी दें तो क्या? लिखे का आकलन समय पर निर्भर करता है! हर दशक के लोकप्रिय लेखक बदल जाते हैं। 

पाँचवाँ सुझाव—हिंदी साहित्य का प्राचीन युग से आधुनिक तक का सारा क्लासिक साहित्य बाँच लें! ख़ासकर सिद्ध, नाथ, भक्ति और रीति साहित्य। आगे का भी जो संभव हो पढ़िए। 

छठा सुझाव—संस्कृत, प्राकृत, पाली, अपभ्रंश आदि का साहित्य—वह कविता हो या नाटक या महाकाव्य—सभी पढ़ने का प्रयत्न करें।

सातवाँ सुझाव—जितना हो सके भारतीय साहित्य जिसमें बांग्ला, मराठी, तमिल, तेलुगू, गुजराती, मलयालम, उर्दू आदि का प्रतिष्ठित साहित्य अवश्य पढ़ें।

आठवाँ सुझाव—संस्कृत, हिंदी और उपलब्ध अन्य साहित्य भाषा का व्याकरण शास्त्र और काव्य शास्त्र अवश्य पढ़ें। 

नवाँ सुझाव—लोक-साहित्य जिस भी भाषा का मिले उसे अवश्य पढ़ें। वह कविता हो, गीत हो, कथा हो, वृत्तांत हो या गाथा हो। उससे आप पाएँगे कि लोक में कौन-सी बात क्यों टिकी है और कौन-सा महान् शास्त्र किताबों में बंद पड़ा है। 

दसवाँ सुझाव—देश का पूरा इतिहास अवश्य पढ़ें। वह भी मान्य प्रामाणिक किताबों से। काल क्रम से न पढ़ें तो भी चलेगा—लेकिन पढ़ें अवश्य।

ग्यारहवाँ सुझाव—देश और विदेश के दार्शनिक और राजनीतिक चिंतकों को अवश्य पढ़ें। भारत का दार्शनिक इतिहास और राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, सामाजिक इतिहास अवश्य ध्यान में रहे।

बारहवाँ सुझाव—अन्य धर्मों के मूल ग्रंथों को अवश्य पढ़ लें। साथ ही अपने धर्म के ग्रंथ या किताब को अवश्य समझ लें। संहिता साहित्य जैसे विषयों के अध्ययन से भी न्याय और विधि का विकास समझ में आएगा। 

तेरहवाँ सुझाव—अपने धर्म के मुख्य व्यक्तियों के साथ अन्य धर्मों पर प्रमुख महापुरुषों के जीवन और उनकी शिक्षाओं को ठीक से समझें। साथ ही उनके समय की राजनीति, सामाजिक बदलाव, जातियों और धर्मों के आपसी संघर्ष पर भी निगाह रखते हुए अपने वर्तमान समय के भी सामाजिक-राजनीतिक-धार्मिक-जातिगत संघर्ष पर दृष्टि रखें!

चौदहवाँ सुझाव—अपनी भाषा के अलावा किसी एक और भाषा में पढ़ने की क्षमता विकसित करें। केवल अनुवाद पर निर्भर रहना ठीक नहीं। बल्कि कुछ बेहतर अनुवाद आप भी करें। 

पंद्रहवाँ सुझाव—लिखने के अतिरिक्त कोई एक और गुण सिद्ध करें। जैसे—संगीत, गायन, वादन, नृत्य, नाट्य निर्देशन, अभिनय आदि-आदि। चुगली या कलह को कला नहीं मान लें। 

सोलहवाँ सुझाव—अपनी विधा के अतिरिक्त अन्य विधाओं में आवागमन करें। जैसे कविता लिखते हैं तो कहानी या उपन्यास लिखने का और उस पर बोलने का यत्न करें। विधिवत तैयारी करके।

सत्रहवाँ सुझाव—अपनी बात रखने के लिए बोलने का अभ्यास करें। यह सफ़ाई हासिल करें कि जो बात आप कहना चाहते थे—वह पूरी तरह और साफ़-साफ़ कह ले जाएँ। 

अठारहवाँ सुझाव—यह कि आप अपने समकालीन लिखने वालों की कलात्मकता और कहन शैली पर पूरा ध्यान रखें। यह देखने के लिए कि लोग कैसे लिख या कह रहे हैं।

उन्नीसवाँ सुझाव यह कि कुछ नया कहने का यत्न करें। वह बात न कहें जो किसी ने बहुत अच्छे से कह दी हो। समाज विचित्र पाठकों से भरा है कोई-न-कोई धर लेगा। चाहे बहुत ख़राब ढंग से कहें, लेकिन बात में कुछ नयापन हो तो बात स्वीकार की जाएगी। देश रहीम, रसखान, कबीर, तुलसी सबको पढ़ता है। केवल उनके कहने के अलगपन से भी पसंद किया जाता है।

बीसवाँ सुझाव—अमर और क्लासिकल साहित्य की जगह आवश्यक साहित्य लिखें। अमर और क्लासिकल साहित्य लिखने के चक्कर में अक्सर लिखना छूट जाता है। 

इक्कीसवाँ सुझाव—साहित्य मैराथन दौड़ है, यह मान कर नहीं दौड़ें। जितना लिख पाएँ—लिखें। समाज में कोई-न-कोई कभी-न-कभी आपको अवश्य पढ़ेगा। 

बाईसवाँ सुझाव—किसी एक व्यक्ति, एक समुदाय, एक समाज को संबोधित करके लिखिए, जैसे चिट्ठी लिखते हैं। यदि एक आदमी समझ लेगा तो सारा संसार समझ जाएगा आपका भाव-मर्म-संदेश! 

तेईसवाँ सुझाव—अपने लिखने का एक उद्देश्य तय करें। यह ध्यान में रखकर कि साहित्य का उद्देश्य किसी को भी क्षति पहुँचाना, किसी समूह, व्यक्ति, समाज, पंथ या मजहब-धर्म का अनादर करना नहीं हो सकता। 

चौबीसवाँ सुझाव—यदि किसी रचना से प्रभावित होकर लिख रहे हो तो उस रचना और रचनाकार का आभार स्वीकार करो। इससे आपका अपमान नहीं सम्मान ही बढ़ेगा। आगे आप स्वयं से प्रभाव लेने की परिधि से बाहर आ जाएँगे। 

पच्चीसवाँ सुझाव—किसी को गुरू भले मान लें लेकिन एकलव्य बनने के लिए कभी भी तैयार न हों। साहित्य में श्रवण कुमार भी न बनें। साहित्यिक श्रवण कुमार अक्सर किसी को ढोने में समाप्त हो जाते हैं। यह यात्रा किसी कंधे पर संभव नहीं! वह किसी की भी हो! 

छब्बीसवाँ सुझाव—अपने इलाक़े के बुज़ुर्ग कवियों-लेखकों की सोहबत करें। वे आपको क्या नहीं पढ़ना है बताएँगे। कहाँ समय नष्ट नहीं करना है वे आपको समझायेंगे! बुज़ुर्ग लेखक-लेखिका एक चलता-फिरता पुस्तकालय और समाजशास्त्र होते हैं, इतिहास होते हैं। उनकी लेखकीय सफलता-असफलता से उनका आकलन नहीं करें। एक घोर असफल लेखक-कवि भी अच्छे सुझाव दे सकता है। उसके अनुभव का प्रतिफल व्यापक होता है। 

सत्ताईसवाँ सुझाव—अपने शहर की किताबों की दुकानों पर महीने में एक बार अवश्य जाएँ। पुस्तकालय में आते-जाते रहें। समकालीन पत्र-पत्रिकाएँ अवश्य देखें। केवल साहित्य ही नहीं अन्य विषयों की भी पत्रिकाएँ पढ़ें। 

अट्ठाईसवाँ सुझाव यह कि अपने लिखे को अपने परिवार में और आस-पास के लोगों को सादर सप्रेम अवश्य सुनाएँ, लेकिन उनको घेरकर या बंधक बना कर नहीं! जिनके साथ काम करते हों, सहपाठियों आदि में से भी बेहतर सुझाव पाए जा सकते हैं। यदि पति, पत्नी, प्रेमी प्रेमिका सलाह दें तो बेहतर परिणाम पाया जा सकता है! जिसे भी सुनाएँ प्रभावित करने के लिए नहीं—केवल उनका सुझाव पाने के लिए सुनाएँ। 

उनतीसवाँ सुझाव यह कि यह सब सुझाव उन लोगों के लिए भी हैं जो सुविधा संपन्न युवक हैं, जो सौंदर्य प्राप्त स्त्री हैं, बड़े घर की बहू या सेठ की पत्नी या बड़े पद के अफ़सर हैं या कुलीन ख़ानदानों से हैं या संगठनों में जुड़े हैं। यदि आप लिखना चाहते हैं तो यह सब उपाय पिछले समय के आचार्यों का सुझाया-अपनाया हुआ है। 

तीसवाँ लेकिन अंतिम सुझाव यह है कि यह सब बात समझने में मुझे चालीस साल लगे हैं। आप भी आराम से अपने हिसाब से ही इन पर अमल करें। जितना कर पाएँ उतना ही करें। आवश्यक नहीं कि सब किया ही जाए!

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