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नल-दमयंती कथा : परिचय, प्रेम और पहचान

“...और दमयंती ने राजा नल को परछाईं से पहचान लिया!”

स्वयंवर से पूर्व दमयंती ने नल को देखा नहीं था, और स्वयंवर में भी जब देखा तो कई नल एक साथ दिखे। इनके बीच से असली नल को पहचान लेना संभव नहीं था। 

लेकिन पहचान का प्रश्न ही कहाँ उठता था! दमयंती ने तो नल को देखा तक नहीं था पहले कभी! कैसे पहचाने! स्वयंवर में वर माला लिए जब दमयंती प्रत्येक राजा के सम्मुख जाती, तब उसके परिचय की उद्घोषणा की जाती। राजा नल के समक्ष जब वह खड़ी हुई; उद्घोष हुआ—निषध देश के अधिराज राजेश्वर, राजा वीरसेन के पुत्र, सर्व शस्त्रास्त्र पारंगत, विद्या वारिधी, सर्व कला दक्ष राजेंद्र श्री नल! 

राजा नल! दमयंती के हृदय का मंजिष्ठा राग अचानक आए वसंत-सा खिल उठा! अंग-प्रत्यंग शिरीष के फूल से हल्के हो आए और शृंगार हरसिंगार होकर झर जाने की उत्कंठा से भर गए! नयनों के भृंग रूप के मधु में आसक्ति के स्नेहक से श्लिष्ट हो गए! हाथ की वरमाला हाथी की सूँड़-सी भारी लगने लगी! दमयंती की इच्छा हुई कि वहीं बैठ जाए। लेकिन बैठने पर तरल होकर बह जाने की भीति ने उसे रोक रखा था!

दमयंती की सखी ने एक स्पर्श से उसकी जड़ता को भंग किया। प्रकृतस्थ होते ही दमयंती ने अपने नयनों के कोण को विपथित करना चाहा और जैसे ही उसने दूसरी ओर देखा वहाँ भी राजा नल ही दृष्टि गोचर हुए! अपनी आँखें भींचकर दमयंती ने पुनः तीसरी ओर देखा वहाँ भी नल!

यह क्या हो गया उसे! क्या अब तक जो स्वरूप पद रूप में हृदय में बसा था, वह पदार्थ होकर आँखों में चला आया? क्या नेत्र की पुत्तली पर नल का चित्र खिंच गया! क्या नयनों की दृश्यता ने अपने सर्वोत्तम प्राप्य को पाकर अब और कोई रूप देखने से विद्रोह कर दिया! क्या नयन रूपी जीव रूप रूपी ब्रह्म में लीन हो गए! 

दमयंती को लगा कि राजा नल का रूप उसकी आँखों में बस गया है। शायद इसीलिए वह जिधर देख रही है उधर नल ही नज़र आ रहे। दमयंती इस विचार के स्मरण मात्र से ऐसे सकुचा गई जैसे—किसी के हाथ का संसर्ग पाते ही छुईमुई सकुचा जाती है। परंतु!! सारी सभा में नल का दिखाई देना महज दमयंती का भ्रम नहीं था! सारी सभा सचमुच नल के स्वरूप को धारण कर चुकी थी।

दमयंती को याद आया वह हंस! राजहंस!! वर्ष भर पहले जब माघ महीने की सुहावनी धूप में दमयंती अपने राज प्रसाद की छत पर बैठी नीले आकाश में रूई के श्वेत फाहों से उड़ते हुए बादल देखकर उनके सौंदर्य पर रीझ रही थी, तभी उसने देखा सूर्य के साथ अठखेलियाँ करते हुए बादलों में से एक शिशु बादल नीचे धरती की ओर आ रहा था। दमयंती ने उस बादल को अपने आँचल में रोक लेने के लिए अपनी रेशमी साड़ी के आँचल को फैला दिया। 

बादल का वाह श्वेताभ खंड आकाश में तिरता-तिरता उसके आँचल में आ बैठा! अरे यह क्या! कैसा इंद्रजाल है यह! बादल हंस कैसे हो गया!

दमयंती ने आगत अतिथि का स्वागत किया। अपने मौक्तिक हार को तोड़कर कमल की पंखुड़ी जैसे लाल करपात्र में तारों के जैसे मोती सजाकर हंस को चुगाती हुई कोकिलकंठी दमयंती ने अपनी छंदमयी वाणी में पूछा—हे मुनियों के चित्त के समान पवित्र आभा और स्त्रियों के प्रेम के समान सुकोमल देह वाले राजहंस तुम कहाँ से आए हो? क्या किसी देवता ने स्वर्ग से मेरे लिए कोई प्रस्ताव भेजा है! या बादलों के साथ अठखेलियाँ करते हुए श्रमित होकर तुम विश्राम की लालसा से मेरी गोद में आए हो?

दमयंती की इस पृच्छा पर वह राजहंस जिसकी क्रेंकार शरदकाल रूपी नव वधू के नुपुरों के क्वणन के रूप में समादृत है, बोला—

तुम्हारे प्रश्न का उत्तर मैं अवश्य दूँगा परंतु उससे पूर्व मुझे यह बताओ कि, जिसके केश अतिशय क्षीण मृणाल के तंतुओं के समान स्वर्णाभ, मसृण और सुदीर्घ हैं, जिसके जूड़े में संपूर्ण जगति के प्रेमासिक्त मन बँध जाते हैं, जिसकी वेणी में सत्, तम् और रज् तीनों गुणों का समुचित समाहार हो जाता है... जिसके केशों की सुगंधि से सुवासित ब्यार चंदन के वनों को सुवासित करती है, क्या वह सुकेशिनी दमयंती तुम्हीं हो? जिसके मस्तक कर दीप्त बिंदी से बालार्क प्रतिस्पर्धा करता है, जिसकी बिंदी चंद्रमा के ऊपर मंगल ग्रह की युति का बिंब प्रस्तुत करती है, जिसकी बिंदी पर ध्यान केंद्रित कर योगी अपने आत्म-तत्त्व पर पहुँच जाते हैं, जिसकी बिंदी का अनुसंधान कर सामुद्रिक सिद्ध करने वाले साधक त्राटक आदि विद्याओं की सिद्धि सहज ही पा जाते हैं, जिसकी बिंदी सौंदर्य के शास्त्र में प्रमाण की तरह समादृत है, ऐसे कुंकुम तिलकित भाल वाली हे सुंदरी! दमयंती तुम्हीं हो न?

जिसके भ्रुभंग रूपी धनु चंचल चित्तों के चलायमान लक्ष्य को बेधने में दक्ष हैं, जिसके भ्रुवों को अशब्द संवाद करने की क्षमता ब्रह्मा ने दी है, जिसके भ्रुवों के अवसान (ढलान) को देखकर सूर्य नित्य अवसान को स्वीकार करता है, हे बंक भ्रुवों वाली सुंदरी, तुम दमयंती ही हो न!

जिसके नेत्र विश्व की आदि कविता के सृजन के स्रोत के समान हैं, जिसके नेत्रों में श्वेतिमा की गंगा, श्यामलता की कालिंदी और रतनार सरस्वती का संगम है, जिसकी आँखें दैहिक, दैविक और भौतिक तापों को नष्ट करने वाली हैं, जिसकी आँखें दरिद्र को धनी और धनी को दरिद्र बना देने में सक्षम हैं, जिसकी आँखों में असंख्य आकाशगंगाओं के अवगाहन की लालसा का प्रकाश भरा है, हे विशाल लोचने! तुम वह दमयंती ही हो न!

भद्रे! क्षीर सागर में खिला हुआ एक मात्र लीला कमल जिसे भगवान विष्णु के हाथ में सुशोभित होने का गौरव प्राप्त है, उसकी पंखुड़ी से निर्मित जिसके अधरपुट हैं, जिन भ्रमरों के सौभाग्य की सीमा देवताओं में इंद्र, मनुष्यों में सम्राट दिलीप, पशुओं में कामधेनु, पक्षियों में शुकदेव, नदियों में गंगा, पर्वत में कैलास के समान हो उसके द्वारा पान किए जाने वाले ये अधर पुष्प जिसके हैं, जिन अधरों के आकार और रंग से इंद्रधनुष को ईर्ष्या होती है, जिन अधरों की कोमलता का दर्शन कर गांडीव, पिनाक और सारंग जैसे धनु कामदेव की पुष्प धन्वा हो जाना चाहते हों, ऐसे अधरों पर मुस्कान रूपी अमृतत्व धारण करने वाले शरों का संधान करने वाली हे सुहासिनी! तुम दमयंती के सिवा कोई अन्य स्त्री तो नहीं हो न!

आकाश से पृथ्वी की ओर बढ़ते हुए युगल पर्वत शृंग और उनके बीच बहती एक उथली नदी की छटा प्रस्तुत करने वाला चिबुक (ठोड़ी) जिसके हैं, जिसे देखकर यह विश्वास होता है कि विधाता ने किसी मनुष्य की पीठ को इतना सौभाग्यशाली बनाया है, जिन पर केलि विलास के सघन क्षणों में नग्न हो इस चिबुक से गुदगुदी पाने का सुख लिखा है, ऐसे सौभाग्य की दात्री हे सुंदरी, तुम दमयंती ही हो न?

कपोलों के सौभाग्य में अनंत वर्धन करने वाले जिसके ये कपोल कभी चंद्र और कभी सूर्य की दशाओं का आभास देते हैं, लोध्र रेणु से सज्जित रक्तिम कपोल पर तिल ऐसा प्रतीत होता है—जैसे राहु सूर्य से क्षमा याचना कर रहा हो, वही कपोल जब रात्रि में शृंगार त्याग देने के बाद श्वेताभ हो उठते हैं; तब तिल देख कर ऐसा प्रतीत होता है—जैसे चंद्रमा के बिछौने पर शालिग्राम स्वरूप भगवान विष्णु विश्राम कर रहे हैं। कोमलता के अक्षय भंडार की स्वामिनी, जब तुम लजाती हो तब ये कपोल ओला वृष्टि के पूर्व में लाल हो उठे आकाश की भांति सुरम्य हो उठते हैं। पुष्प वाटिका में जब कभी सूर्य की किरण तुम्हारे कपोलों को छू जाती है, तब उनकी लालिमा इतनी बढ़ जाती है कि उन्हें देखकर अग्नि अपना तेज खोकर शीतलता का अनुसंधान करने लगती है। इन अनंत आभाशाली कपोलों की साम्राज्ञी हे सुंदरी! तुम दमयंती ही हो न?

अक्षय उपमाओं के ज्ञाता उस राजहंस ने भरपेट मोती चुग लिए। दमयंती ने उसके पंखों के ठीक नीचे अपने हाथ लगा कर ऐसे उठा लिए जैसे माँ किसी शिशु को आकाश की ओर उठा कर लाड़ करती है। दमयंती ने मुस्कुरा कर कहा—हे कवित्व में प्रवीण चतुर पक्षी, मैं दमयंती ही हूँ। तुम कौन हो!

राजहंस ने बताया स्वयं को राजा नल का पालित हंस बताया और कहा कि तुम्हारे योग्य इस संसार में राजा नल ही हैं! यदि तुम्हें उनका प्रेम प्रस्ताव स्वीकार हो तो कोई संकेत दो क्योंकि हे सुशीले! लज्जाशील स्त्रियाँ अपने प्रेम को प्रकटकर उसे महत्त्वहीन नहीं बनातीं!

दमयंती ने राजहंस के मस्तक पर एक चुम्बन लिया, धन्वाकार ओष्ठ की लालिमा के स्पर्श से उसका चिह्न अंकित हो गया। राजहंस उड़ चला! 

उस दिन से दमयंती ने प्रतिफल राजा नल के स्वरूप का चिंतन किया था! कैसे होंगे राज नल! परंतु हाय, उस राजहंस से यह पूछा ही नहीं कि उन्हें कैसे पहचानूँगी। कोई विशेष पहचान होती तो आज सभा में खड़े इतने राज नल में एक को पहचान लेना कितना सुकर होता! प्रेम ने मति को अस्थिर कर दिया था नहीं तो दमयंती ने अवश्य पूछा होता।

स्वयंवर में जब राजा नल पहुँच रहे थे, मार्ग में देवताओं ने उन्हें रोका और कहा कि वे उनका प्रस्ताव लेकर दमयंती के पास जाएँ। नल की इच्छा हुई कि इन नीच देवताओं के रूंड-मुंड अलग कर दे। साफ़ मना किया नल ने और ललकार कर कहा—दमयंती यदि किसी का वरण करेगी तो वह सिर्फ़ राजा नल का! 

न जाने किस विश्वास से राजा बोल गया! कुचक्र रचने में माहिर देवताओं ने युक्ति लगाई। सबने राजा नल का रूप धारण किया और स्वयंवर में पहुँच गए।

क्या करे दमयंती! सभा सन्न है! अरे दमयंती वरमाला क्यों नहीं डालती, यदि नल पसंद नहीं तो आगे क्यों नहीं बढ़ती किसी अन्य राजा की ओर! पिता, माता, गुरु, सभा सबके बीच, सामने स्वयं खड़े हैं राजा नल... लेकिन दमयंती का हृदय पीपल के पत्ते की भाँति डोल रहा है। दमयंती ने सिर झुकाए प्रार्थना की और जैसे ही आँखें खोलकर देखा सारे उपस्थित नलों में सिर्फ़ एक ही था जिसकी परछाईं दिख रही थी। दमयंती को याद आया कि देवताओं की परछाईं नहीं होती। दमयंती नल के सम्मुख पहुँची! 

गौर वर्ण, उन्नत एवं दीप्त ललाट, मसृण केश राशि, रक्तिम अधर, सुंदर नासिका, रम्य अधर पुट...! दमयंती ने वरमाला डाल दी!

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