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मास्टर की अरथी नहीं थी, आशिक़ का जनाज़ा था

जीवन मुश्किल चीज़ है—तिस पर हिंदी-लेखक की ज़िंदगी—जिसके माथे पर रचना की राह चलकर शहीद हुए पुरखे लेखक की चिता की राख लगी हुई है। यों, आने वाले लेखक का मस्तक राख से साँवला है। पानी, पसीने या ख़ून से धुलकर कभी-कभी वह साफ़ भी हो जाता है। राख कुंठित नहीं करती। हिंदी-लेखक मनुष्योचित गरिमा के साथ अशुभ को—जैसे राख को—स्वीकार करता है; लेकिन इस महान कार्य-व्यापार के साथ-साथ ग़फ़लत, कमसमझी और झूठ का करोबार भी ख़ूब हुआ है।

प्रेमचंद जी की कहानियों, उपन्यासों और लेखों की तरह उनकी मृत्यु की ट्रैजिक गाथा भी हिंदी-लेखकों के सामूहिक अवचेतन में रिस गई है। कई पीढ़ियाँ मृत्यु की वही गाथा पढ़कर जवान हुईं, बूढ़ी हुईं और खप गईं। दरअस्ल, उपन्यास-सम्राट के बेटे और जीवनीकार अमृत राय की पुस्तक ‘क़लम का सिपाही’ के आख़िरी पन्ने पर वर्णित प्रेमचंद जी की शवयात्रा भीतर ही भीतर हिंदी के हर संभावी लेखक की अंतिम यात्रा हो गई। यह विडंबना हिंदी लिखने वाले को उत्तराधिकार में मिली है। हिंदी-लेखक की शुरुआत ही प्रेमचंद की मृत्यु के आलिंगन के साथ होती है।

आइए, ‘क़लम का सिपाही’ के उस अंश को एक बार फिर पढ़कर देखें—

‘लमही ख़बर पहुँची।  बिरादरीवाले जुटने लगे।  
अरथी बनी।  ग्यारह बजते-बजते बीस-पचीस आदमी किसी गुमनाम आदमी की लाश लेकर मणिकर्णिका की ओर चले।   
रास्ते में एक राह चलते ने दूसरे से पूछा—के रहल ? 
दूसरे ने जवाब दिया—कोई मास्टर था।’

[क़लम का सिपाही, पृष्ठ-संख्या : 612, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण : प्रेमचंद स्मृति दिवस, 1962, नवीन संस्करण : दिसंबर, 1976] 

अमृत राय की लिखी इस बात की गाँठ हिंदी-लेखक के मन में बँध गई। उसने कुछ बातें हमेशा के लिए नोट कर लीं—
1. जब उपन्यास-सम्राट की अंतिम यात्रा में बीस-पच्चीस लोग थे तो उसके शव को चार कंधे मिल जाएँ, यही ग़नीमत है। 
2. हिंदी का समाज कृतघ्न है और वह अपने लेखक को नहीं जानता। अगर किसी वजह से जान भी गया तो उसकी इज़्ज़त नहीं करता।
3. इस प्रकार लेखक का एक काम यह भी है—मौक़ा पड़ने पर समाज को निंदित करना। समाज से बदला लेना।

आज यह पता लगाना असंभव है कि अमृत राय ने ऐसा क्यों लिखा, लेकिन दैनिक ‘आज’ में 9 अक्टूबर 1936 को प्रकाशित ख़बर के आलोक में इतना बिल्कुल साफ़ है कि उन्होंने जो कुछ भी लिखा है वह न सिर्फ़ अशिव, अशोभन और मिथ्या है, बल्कि सचाई को और ट्रैजिक बनाकर पेश करने की वासना का नतीजा भी है। प्रेमचंद का पार्थिव शरीर ‘गुमनाम आदमी’ की लाश नहीं था। बेशक़, ‘राह चलते’ लोग किसी के शव को देखकर ‘कोई मास्टर था’ या कुछ भी कह सकते हैं। 

सवाल वही है। यह कहकर अमृत राय क्या बताना चाहते हैं—कि प्रेमचंद ‘गुमनाम आदमी’ थे, उनके शहर के ही लोग उन्हें नहीं जानते थे; और उनकी शवयात्रा में कुल ‘बीस-पच्चीस’ ‘बिरादरीवाले’ लोग थे?

‘क़लम का सिपाही’ प्रेमचंद स्मृति दिवस के अवसर पर अक्टूबर, 1962 में प्रकाशित हुई और साल भर के भीतर उसे साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिल गया। समाज—ख़ासतौर पर बनारस के समाज—के माथे पर कृतघ्नता का कलंक लग गया और हिंदी के लेखक ने ह्रदय में कुंठा की गाँठ बाँध ली—उसका इज़्ज़त से मरना दूभर हो गया। 

10 अक्टूबर 1936 के दैनिक ‘आज’ के मुताबिक़ प्रेमचंद के अंतिम संस्कार के समय मणिकर्णिका घाट पर  ‘साहित्यिकों की भीड़’ थी। ‘नगर के बहुतेरे साहित्यसेवी, हिन्दू विश्वविद्यालय के कई प्रोफेसर और कितने ही छात्र भी उपस्थित थे। कितने ही लोग अरथी के साथ ही श्मशान तक गए थे और कितने ही बाद में श्मशान पर पहुँचे।’ इसके अलावा ‘आज’ अख़बार के ही अनुसार, ‘श्मशान पर उपस्थित लोगों में ये लोग भी थे—सर्वश्री रामदास गौड़, बाबूराव विष्णु पराड़कर (‘आज’ के प्रधान संपादक), जयशंकर प्रसाद, जैनेंद्र कुमार, नंददुलारे वाजपेयी, शिवनंदन सिंह, महेश प्रसाद, आलिम फ़ाज़िल और मनोरंजन प्रसाद (दोनों हिंदू विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर) कृष्णदेवप्रसाद गौड़, डॉक्टर बनारसी प्रसाद भोजपुरी, कांतानाथ पांडेय, परिपूर्णानंद वर्मा, उमाचरण पांडेय, रामानंद मिश्र। नगर कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष कमलापति त्रिपाठी भी और कई कांग्रेसजनों के साथ पहुँचे थे।

शोकसभाओं का तो ताँता लग गया। 11 अक्टूबर 1936 को प्रकाशित ‘आज’ अख़बार के शब्दों में, ‘प्रेमचंद की मुत्यु पर काशी के नागरिकों की शोकसभा नागरीप्रचारिणी सभा-भवन में हुई। लोगों की उपस्थिति अच्छी थी। उनमें रायबहादुर श्यामसुंदरदास और सर्वश्री जयशंकर प्रसाद, बाबूराव विष्णु पराड़कर, डॉक्टर मोतीचंद चौधरी, प्रोफेसर जगन्नाथ प्रसाद शर्मा, कृष्णदेवप्रसाद गौड़, लक्ष्मीचंद चौधरी, जैनेन्द्र कुमार जैन, रामचंद्र वर्मा, मुकुन्दीलाल श्रीवास्तव, कांतानाथ पांडेय, शिवमूरत लाल ‘कैस’, हिरण्मय विशारद (दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा), सीताराम चतुर्वेदी, कमलाकर चौबे, उमाशंकर आदि भी थे।’

मृत्यशोक में नागरीप्रचारिणी सभा बंद रही। ‘सभा’ के अलावा दयानंद एंग्लोवैदिक हाईस्कूल, हिंदू विश्वविद्यालय, इंदुप्रकाश सभा, सरस्वती सदन वाचनालय, बलिया भ्रातृमंडल, उदयप्रताप कॉलेज, जायसवाल महाजनी पाठशाला, कारमाइकल लाइब्रेरी, तुलसी मीमांसा परिषद जैसी संस्थाओं में शोकसभाएँ हुईं या श्रद्धांजलिस्वरूप वे बंद रहीं। पत्रों में संस्मरण, शोकलेख और कविताएँ प्रकाशित हुईं।

लेखक ‘गुमनाम आदमी’ है और उसकी अंतिम यात्रा में ‘बीस-पच्चीस’ लोग आ जाएँ तो ग़नीमत है; यह बात सरासर झूठ है। 'आज' अख़बार में प्रकाशित ख़बर इस झूठ को तार-तार कर देती है। ‘क़लम का सिपाही’ के आख़िरी पृष्ठ पर लिखी हुई मनगढ़ंत कहानी को भुला दीजिए; सच यह है कि महाशोक की उस घड़ी में लोगों की बहुत बड़ी संख्या प्रेमचंद जी की पार्थिव देह, उनकी स्मृतियों और उनके परिजनों के साथ थी। जयशंकर प्रसाद जैसा अनन्य समकालीन घर से लेकर घाट तक अपने दिवंगत मित्र की अरथी के साथ था। महज़ ‘बीस-पच्चीस’ ‘बिरादरीवाले’ नहीं थे। अमृत राय की किताब साहित्यिक गुणवत्ता की दृष्टि से कितनी भी श्रेष्ठ और पुरस्कृत हो, यथातथ्य (Matter of fact) नहीं है। उसका ऊपर उद्धृत हिस्सा पाठक से झूठ बोलता है, उसे बिला वजह कमज़ोर साबित करता है और हिंदी के कालजयित्व को दयनीय बनाकर प्रस्तुत करने की ऐतिहासिक भूलग़लती करता है।

मित्रो! प्रेमचंद आशिक़ थे और 8 अक्टूबर 1936 की दुपहर बनारस में उनका जनाज़ा धूम से निकला* था।

~

*फ़िदवी लाहौरी का यह मशहूर शे’र इस प्रकार है : 

चल साथ कि हसरत दिल-ए-मरहूम से निकले 
आशिक़ का जनाज़ा है ज़रा धूम से निकले

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