प्रेम जब अपराध नहीं, सौंदर्य की तरह देखा जाएगा
अतुल तिवारी
26 मई 2025

पिछले बरस एक ख़बर पढ़ी थी। मुंगेर के टेटिया बंबर में, ऊँचेश्वर नाथ महादेव की पूजा करने पहुँचे प्रेमी युगल को गाँव वालों ने पकड़कर मंदिर में ही शादी करा दी। ख़बर सार्वजनिक होते ही स्क्रीनशॉट, कलात्मक-कैप्शन और फ़नी म्यूज़िक के साथ एक सामाजिक यातना को तुरंत चुटकुले में तब्दील कर दिया गया था। अब इसी विडंबना की पुनरावृत्ति पटना में हुई है—लेकिन अधिक क्रूरता के साथ। इस बार प्रेमी कोई अनजान ग्रामीण युवक नहीं, बल्कि एक पूर्व मुख्यमंत्री का विधायक बेटा तेज प्रताप यादव है।
बारह वर्षों से पले-बढ़े एक भावनात्मक-संबंध की सार्वजनिक और परिपक्व स्वीकृति पर पारिवारिक-राजनीतिक संदेह इतना गहरा हुआ कि पिता लालू यादव ने घोषणा कर दी—“अब उससे कोई लेना-देना नहीं।”
तेज प्रताप यादव पर बीते कुछ दिनों से जो गुज़री—वह एक राजनीतिक ड्रामा नहीं, गहरी मानवीय त्रासदी है। हर त्रासदी के पीछे एक गहरी करुणा छुपी होती है, जिसे हम अक्सर ख़बरों की तेज़ रफ़्तार में कुचलकर आगे बढ़ जाते हैं। मैं भी बढ़ गया। मगर कभी-कभी कोई ख़बर लौट-लौटकर आती है, और घर कर जाती है।
तेज प्रताप का चरित्र मुझे राजनीति की रंगीन पगड़ियों से अधिक, मृगछौनों-सी आँखों वाले भावुक पात्र जैसा लगता है—जो चुपचाप प्रेम करता है, नाराज़ होता है, भागता है, छिपता है और फिर एक दिन लौटकर कहता है—“मैं हूँ और मैं ऐसा ही हूँ।”
जब वह फ़ेसबुक पर अपने बारह साल पुराने प्रेम की घोषणा करते हैं, तो दरअस्ल वह प्रेम के उस दुर्लभ साहस की पुनर्पुष्टि करते हैं जो अक्सर राजनेताओं में अनुपस्थित पाया जाता है। उनकी यह घोषणा कोई राजनीतिक-संवाद नहीं, एक निजी स्वीकृति है। हम यह जानते हैं कि जो प्रेम के पक्ष में खड़ा होता है, वह अकेला होता है। लालू ने उन्हें अकेला कर दिया। परिवार और पार्टी से भी। उसी परिवार और पार्टी में यदि तेजस्वी यादव ईसाई धर्म की लड़की से विवाह करें और उन्हें अनुमति मिल जाए, लेकिन तेज प्रताप को बहिष्कृत कर दिया जाए—तो यह भेदभाव उस अंदरूनी राजनीति की ओर भी संकेत करता है, जहाँ ‘पसंद’ की भी राजनीति होती है।
यह बात अब सर-ए-आम है कि उनका दरोगा राय की पोती से बेमेल ब्याह, दरअस्ल एक राजनीतिक प्रयोगशाला में तैयार किया गया ‘परिवार-हितैषी’ फ़ॉर्मूला था। ऐसा गठजोड़ जिसमें प्रेम नहीं, समीकरण था। मन का मिलन नहीं जातियों और छवियों का संधि-पत्र था। यह लालू यादव की राजनीति का वह अध्याय था, जिसमें पुत्र की भावनाओं को दल की ब्रांडिंग में तब्दील कर दिया गया था।
पिछड़ों की आवाज़ बनने वाले नेता ने अपने बेटे की निजी पसंद पर असहमति जताते हुए निष्कासन का ऐलान कर दिया है। सामाजिक न्याय की बात करने वाले पिता ने प्रेम को पारिवारिक अनुशासन की अवज्ञा मान लिया है। राजनीति के इस कठोर मंच पर तेज प्रताप को बोलना नहीं आता, लेकिन चुप रहना भी नहीं आता। वह कभी कृष्ण-भजन में डूबे होते हैं, कभी वृंदावन की गलियों में बाँसुरी लेकर घूमते हैं। कभी अपनी गाय को गले लगाते हैं और अब अपने प्रेम को स्वीकार करते हैं। तेज प्रताप का अपराध हमारी सामाजिक रचना के उस ढाँचे पर प्रश्नचिह्न है, जिसमें प्रेम और प्रेमियों को दोषी मान लिया जाता है। वह किसी नैतिक अवज्ञा के अपराधी नहीं, बल्कि उस विडंबना के शिकार हैं—जहाँ परिवार और पार्टी दोनों मिलकर यह तय करते हैं कि एक व्यक्ति को किससे प्रेम करना चाहिए, कब करना चाहिए और कितनी अवधि तक करना चाहिए। लालू के दूसरे पुत्र तेजस्वी अपने संयम, चतुराई और मुख्यमंत्री बनने की आकांक्षा के साथ एक सफल राजनेता हैं। तेज प्रताप अपने हर असमंजस, हर उलझन और हर नादानी के साथ उपस्थित असफल राजनेता। उनका भोलापन, उनका असमंजस और प्रेम—यह सब गुण-अवगुण मेरे किसी भविष्यगामी उपन्यास के नायक के हैं, जिसमें वह अपने अंतर्मन के ताप से झुलसता है—झूठ नहीं बोलता।
तेज प्रताप यादव का जीवन सिर्फ़ व्यक्ति-कथा नहीं हैं। एक संकुचित संयुक्त परिवार और सतत निगरानी में चलती राजनीतिक विरासत की प्रयोगशाला-नमूना भी है। उनका हृदय चार दिशाओं में खिंचता है—एक ओर ‘माई’ हैं, जिनकी ममता में अब भी एक माँ कम और एक नेता अधिक है, दूसरी ओर पिता हैं जिनके लिए पुत्र केवल उत्तराधिकारी है—एक ऐसा उत्तराधिकारी जिसे परिवार की छवि के अनुरूप ढालना है, गढ़ना है और अगर असहज हो तो बहिष्कृत करना है... और तीसरी दिशा में खड़े हैं तेजस्वी—जिसके हिस्से में भाई के प्रति कम, सत्ता के प्रति अधिक गंभीरता है। सोचता हूँ कि तेज प्रताप के हिस्से में क्या है? केवल हास्यास्पद बना देने वाली उन्मुक्तता? प्रेम को स्वीकार कर संबंध को सार्वजनिक करना और अपनी भावनाओं को बिना झिझक दुनिया के सामने रखना—तेज प्रताप ने दरअस्ल वही किया जो एक स्वतंत्र व्यक्ति करता, लेकिन परिवार और पार्टी के सम्मिलित ‘संस्कार-ब्रिगेड’ ने इस प्रेम को न केवल अस्वीकार किया; बल्कि उसे नैतिक पतन, सामाजिक अनुशासनहीनता और राजनीतिक विघटन का नाम दे दिया।
अगर तेज प्रताप मेरे सहपाठी होते तो मैं किसी भी मुश्किल वक़्त में उनका साथ नहीं छोड़ता। वह भी नहीं छोड़ते। मैं उनके साथ साइकिल चलाता। उनके प्रेम-पत्रों का डाकिया बनता, क्योंकि वह कोई रणनीतिकुशल खिलाड़ी नहीं हैं। वह जीवन को लेकर उलझा हुआ एक भावुक-किरदार भर हैं। उनकी उलझन में उनकी मासूमियत है। यहाँ षड्यंत्र ज़रा भी नहीं है। ...और आज जब लालू यादव कहते हैं कि वह उन्हें पार्टी और परिवार से निकाल रहे हैं तो यह एक पिता का विलोपन नहीं, एक व्यवस्था का डर है। देवघरा के मंदिर में पकड़े गए जोड़े और तेज प्रताप—दोनों एक ही समाज की उपज हैं, जहाँ प्रेम को तुरंत विवाह में बदल देने का उतावलापन है या फिर प्रेम को निष्कासित कर देने की क्रूरता। प्रेमियों के पास कोई बीच का ठिकाना नहीं है। उनके लिए शिकायत-पेटियों में कोई कोना नहीं है।
तेज प्रताप के पक्ष में खड़ा होना कोई राजनीतिक नारा नहीं है। यह एक मानवीय आवाज़ है। जो दिल की बजाय गणित से फ़ैसले लेते हैं, उनके लिए तेज प्रताप जैसे सदा अनुपयुक्त होंगे। इस समय तेज प्रताप हमारे समाज के सामने एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न बनकर खड़े हैं। या यों कहें कि इस बहाने कई और प्रश्न भी प्रकाश में हैं—प्रेम, विवाह, नैतिकता, समाज की भूमिका, उसकी सीमा और उसके हस्तक्षेप से जैसे प्रश्न। प्रश्न यह भी और कितने सौ साल हमारा समाज उस परंपरा से संचालित होगा, जहाँ इंसान की ज़िंदगी सार्वजनिक छवि की प्रयोगशाला बन जाती है। जहाँ हम उन्हें संशयास्पद नागरिक मान लेते हैं, जिन्हें सुधारने की ज़रूरत है—या तो शादी के ज़रिये या बहिष्कार के ज़रिये।
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