दर्द को बरक़रार नहीं रखा जा सकता है, इसे ‘विकसित करके’ हास्य में परिवर्तित करने की ज़रूरत है।
हँसना गहराई से जीना है।
हास्य मानव जाति का सबसे बड़ा वरदान है।
संसार में इससे बढ़कर हँसी की दूसरी बात नहीं हो सकती कि जो दुर्जन हैं, वे स्वयं ही सज्जन पुरुषों को 'दुर्जन' कहते हैं।
हँसी एक बचाव है।
प्राचीन भारतीय साहित्य को विनोद से परहेज है। किंतु लोक परंपरा ने विनोद की निर्मिति व्यर्थ नहीं जाने दी।
वैसे तो भारतीय तथा विश्व के सभी विचारकों को हास्य-व्यंग्य से परहेज ही रहा है, लेकिन विचारकों में अपवाद रहे सिर्फ़ कन्फ़्यूशियस। उन्होंने कहा था कि जो हास्य-व्यंग्य नहीं समझता, वह संत नहीं बन सकता।
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सब वर्गों की हँसी और ठहाके अलग-अलग होते हैं।
लोक की हँसी सहने वाले ही लोक का निर्माण करते हैं।
जो परिहास का उत्तर नहीं दे सकता, वह हँसता हुआ कम से कम रस तो ले सकता है।
तुम किस पर हँस रहे हो? तुम ख़ुद पर हँस रहे हो।