बादल पर उद्धरण
मेघ या बादल हमेशा से
मानव-मन को कल्पनाओं की उड़ान देते रहे हैं और काव्य में उनके विविध रूपों और भूमिकाओं का वर्णन होता रहा है। इस चयन में शामिल है—बादल विषयक कविताओं का संकलन।


मेघों से ढके हुए सूर्य वाला दिन 'दुर्दिन' नहीं है, उसी दिन को दुर्दिन कहो जिस दिन भगवान् की कथा का अमृतमय सुंदर आलाप-रस सुनायी नहीं पड़ता।

प्यास से व्याकुल चातक पक्षियों के समूह जिनसे जल की प्रार्थना कर रहे हैं, ऐसे ये बादल, जल-भार से विनत, कर्ण-मधुर गर्जना करते हुए और अनेक धाराओं में बरसते हुए धीरे-धीरे चले जा रहे हैं।

उस (यक्ष) ने आषाढ़ मास के प्रथम दिन उस पर्वत (रामगिरि) की चोटी पर झुके हुए मेव को देखा तो ऐसा प्रतीत हुआ कि मानो वप्रक्रीडा में मग्न कोई हाथी हो।

मैं (बादल) समुद्रों व जलधाराओं से प्यासे फूलों के लिए ताज़ी (वर्षा की) बौछारे लाता हूँ।


हे मेघ! कृषि कार्य का सब फल तुम्हारे अधीन है, इस विचार से भूविलास से अनभिज्ञ (भोली-भाली) ग्रामवधुएँ अपने प्रेम-भरे नेत्रों से तुम्हें पी लेगी।

मर्दल वाद्य के समान शब्द करते हुए, इंद्रधनुष पर बिजली की प्रत्यंचा चढ़ाए हुए, अपनी तीक्ष्ण धारा के पैने बाणों की वर्षा करके, प्रवासी मनुष्यों के चित्त को बादल बहुत कष्ट पहुँचाते हैं।

मैं (बादल) पृथ्वी और जल की पुत्री हूँ और आकाश की लाडली बालिका हूँ। मैं महासागर के रंध्रों और तटों में से होकर जाती हूँ। मैं परिवर्तित हो सकती हूँ परंतु मर नहीं सकती।

शरद् ऋतु के बादल में न बिजली है, न पानी है। उड़ता-उड़ता फिरता है, कोई भी बात चाहे कितनी ही बड़ी क्यों न हो, उसे वह हँस-खेल के ही उड़ा देता है। न तो बिसारी है, न वैरागी।

बादल को सामने देखकर प्रिया के समीप स्थित सुखयों का चित्त भी कुछ और ही प्रकार का हो जाता है, तब प्रिया के कंठालिंगन के लिए तरसने वाले दूरस्थ विरहीजनों का तो कहना ही क्या है!

