तुलसीदास के उद्धरण

हृदय में निर्गुण ब्रह्म का ध्यान, नेत्रों के सामने सगुण रूप की सुंदर झाँकी और जीभ से सुंदर राम नाम का जप करना। यह ऐसा है मानो सोने की सुंदर डिबिया में मनोहर रत्न सुशोभित हो।

भारतवर्ष की पवित्र भूमि है, उत्तम कुल में जन्म मिला है, समाज और शरीर भी उत्तम मिला है। ऐसी अवस्था में जो व्यक्ति क्रोध व कठोर वचन त्याग कर वर्षा, जाड़ा, वायु और धूप को सहन करता हुआ चातक-हठ से भगवान् को भजता है, वही चतुर है। शेष सब तो सुवर्ण के हल में कामधेनु को जोतकर विषबीज ही बोते हैं।

अंतर्यामी ईश्वर से भी बड़े बहिर्गत साकार राम हैं,क्योंकि जिस प्रकार कुछ ही समय पूर्व व्यापी गो अपने बच्चे का शब्द सुनते ही स्तनों में दूध उतार दौड़ी आती है, उसी प्रकार वे भी नाम लेते ही दौड़े आते हैं। तुलसीदास तो अपनी समझ की बात कहता है, ऐसी बावली बातें दूसरे लोगों से कहे जाने योग्य नहीं हुआ करती, प्रह्लाद के प्रतिज्ञा करने पर उसके लिए प्रभु पत्थर से ही प्रकट हो गए, हृदय से नहीं।

वेद शास्त्रों में कहा है कि जिसका मूल अव्यक्त है, जो अनादि है, जिसकी चार त्वचाएँ, छः तने, पचीस शाखाएँ, अनेक पत्ते और बहुत से फूल हैं, जिनमें कड़ुवे और मीठे दो प्रकार के फल लगे हैं, जिस पर एक ही बेल है, जो उसी के आश्रित रहती है, जिसमें नित्य नए पत्ते और फूल निकलते रहते हैं, ऐसे संसार-वृक्ष स्वरूप आपको हम नमस्कार करते हैं।