रामसहाय दास के दोहे
सरकी सारी सीस तें, सुनतहिं आगम नाह।
तरकी वलया कंचुकी, दरकी फरकी वाह॥
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ऐसे बड़े बिहार सों, भागनि बचि-बचि जाय।
सोभा ही के भार सों, बलि कटि लचि-लचि जाय॥
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झलकनि अधरनि अरुन मैं, दसननि की यौं होति।
हरि सुरंग घन बीच ज्यौं, दमकति दामिनि जोति॥
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लोललोचनी कंठ लखि, संख समुद के सोत।
अरु उड़ि कानन कों गए, केकी गोल कपोत॥
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लाल चलत लखि वाल के, भरि आए दृग लोल।
आनन तें बात न कढ़ी, पीरी चढ़ी कपोल॥
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जदपि जतन करि मन धरों, तदपि न कन ठहराय।
मिलत निसानन भान को, घन समान उड़ि जाय॥
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जुग-जुग ये जोरी जियैं, यों दिल काहु दिया न।
ऐसी और तिया न हैं, ऐसे और पिया न॥
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ललन कृसन की अरुनई, जुरि अधरन मैं आइ।
कामिनि के तन की दमक, दामिनि मैं दरसाइ॥
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जौ वाके सिर पै परै, छाहँ सुमन की आय।
तौ बलि ताके भार सों, लंक बंक ह्वै जाय॥
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छीनी तार मुरार सी, तिहिं दीनी समुझाय।
चोखी चितवनि यार की, कटि न कहूँ कटि जाइ॥
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मैं न लखी ऐसी दसा, जैसी कीनी मैन।
तब तें लागे नैन नहिं, जब तें लागे नैन॥
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चपति चंचला की चमक, हीरा दमक हिराय।
हांसी हिमकर जोति की, होति हास तिय पाय॥
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ता दिन ते जकि सी रही, थकि सी आठौ जाम।
जा दिन ते चित मैं चुभी, चोखी चितवनि स्याम॥
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चंपक केसरि आदि दै, तुलहिं न कौनो रंग।
सोनो लोनो होत है, लगि दुलहिन के अंग॥
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ल्याई लाल निहारिए, यह सुकुमारि विभाति।
उचके कुच कच-भार तें, लचकि-लचकि कटि जाति॥
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अधर मधुरता लेन कों, जात रह्यौ ललचाइ।
हा लोटन मैं मन गिर्यो, उरजन चोट न खाइ॥
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आली तो कुच सैल तें, नाभि कुंड कों जाय।
रोमाली न सिंगार की, परनाली दरसाय॥
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कहति ललन आए न क्यौं, ज्यौं-ज्यौं राति सिराति।
त्यौं-त्यौं वदन सरोज पैं, परी पियरई जाति॥
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मन नितंब पर गामरू, तरफरात परि लंक।
बर बेनी नागिनि हन्यौ, खर बीछी को डंक॥
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छैल छबीली छांह सी, चैत चांदनी होति।
दीपसिखा सी को कहै, लखि खासी तन जोति॥
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बिथुरे कच कुच पैं परे, सिथिल भए सब गात।
उनदोहें दृग में भई, दुगुनी प्रभा प्रभात॥
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धन जोबन चय चातुरी, सुंदरता मृदु बोल।
मनमोहन-नेहै बिना, सब खेहै कै मोल॥
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आई सिर नीचे किए, खीचे नैन निहारि।
कहत रुखावट सों गई चित चिकनाहट नारि॥
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विषधर-स्वास सरिस लगे, तन सीतल वन-वात।
अनलहु सों सरसे दगे, हिमकर-कर धन-गात॥
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त्रिबलि-निसेनी चढ़ि चल्यौ, लेन सुधा मुसुक्यानि।
उचके कुच उचके अरी, उचके चितहि बिचानि॥
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झीनी सादी कंचुकी, कुच रुचि दीसी आज।
जनु बिबि सीसी सेत मैं, केसरि पीसी राज॥
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मोती झालर झलझलैं, झीने घूँघट माह।
मनु तारागन झलमलैं, सरवर अमल अघाह॥
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जऊ सौंह नख-खत भरे, खरी ढिठाई खात।
तऊ सलोनी की रही, भरी मिठाई बात॥
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ललित मेंहदी बूंद यौं, लसत हथेरिन साथ।
पी अनुरागी मन मनो, बसत तिहारे हाथ॥
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जाय उतै बलि पेखिए, छाय रही छवि स्याम।
सोभति बेलि बिकास सों, लसति हास सों बाम॥
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श्रीस्यामा कों करत हैं, रामसहाय प्रनाम।
जिन अहिपतिधर कों कियौ, सरस निरंतर धाम॥
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हारी जतन हज़ार कै, नैना मानहिं नाहिं।
माधव-रूप बिलोकि री, माधव लों मँड़राहिं॥
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सुबरन पाय लगे लगै, दुरित उदित जग माहिं।
परत रजत पायल अरी, सुबरन की ह्वै जाहिं॥
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आयौ दुसह बसंत री, कंत न आए वीर।
तन मन बेधत तंत री, मदन सुमन के तीर॥
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पी आवन की को कहै, सावन मास अंदेस।
पाती हू आती न ती, अरु पाती न संदेस॥
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उसरि बैठि कुकि काग रे, जौ बलवीर मिलाय।
तौ कंचन के कागरे, पालूं छीर पिलाय॥
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मैं मोही मोहे नयन, खेह भई यह देह।
होत दुखै परिनाम करि, निरमोही सों नेह॥
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काहि छला पहिराव री, हों बरजी बहु बार।
जाय सही नहिं बावरी, मिहदी रंग को भार॥
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दमकि-दमकि दामिनि कहा, दिपति दिखावति मोहि।
वा कामिनि की कांति लों, भूलि कहों नहिं तोहि॥
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क्यौं जितिए कहिए भला, तुम छल बल सुप्रबीन।
करिए कौन कला लला, हम अबला बलहीन॥
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere