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रामसहाय दास

बनारस, उत्तर प्रदेश

'राम सतसई' के रचयिता। शृंगार की सरस उद्भावना और वाक् चातुर्य के कवि।

'राम सतसई' के रचयिता। शृंगार की सरस उद्भावना और वाक् चातुर्य के कवि।

रामसहाय दास के दोहे

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सरकी सारी सीस तें, सुनतहिं आगम नाह।

तरकी वलया कंचुकी, दरकी फरकी वाह॥

  • संबंधित विषय : सुख

ऐसे बड़े बिहार सों, भागनि बचि-बचि जाय।

सोभा ही के भार सों, बलि कटि लचि-लचि जाय॥

झलकनि अधरनि अरुन मैं, दसननि की यौं होति।

हरि सुरंग घन बीच ज्यौं, दमकति दामिनि जोति॥

लोललोचनी कंठ लखि, संख समुद के सोत।

अरु उड़ि कानन कों गए, केकी गोल कपोत॥

लाल चलत लखि वाल के, भरि आए दृग लोल।

आनन तें बात कढ़ी, पीरी चढ़ी कपोल॥

जदपि जतन करि मन धरों, तदपि कन ठहराय।

मिलत निसानन भान को, घन समान उड़ि जाय॥

जुग-जुग ये जोरी जियैं, यों दिल काहु दिया न।

ऐसी और तिया हैं, ऐसे और पिया न॥

ललन कृसन की अरुनई, जुरि अधरन मैं आइ।

कामिनि के तन की दमक, दामिनि मैं दरसाइ॥

जौ वाके सिर पै परै, छाहँ सुमन की आय।

तौ बलि ताके भार सों, लंक बंक ह्वै जाय॥

छीनी तार मुरार सी, तिहिं दीनी समुझाय।

चोखी चितवनि यार की, कटि कहूँ कटि जाइ॥

मैं लखी ऐसी दसा, जैसी कीनी मैन।

तब तें लागे नैन नहिं, जब तें लागे नैन॥

चपति चंचला की चमक, हीरा दमक हिराय।

हांसी हिमकर जोति की, होति हास तिय पाय॥

ता दिन ते जकि सी रही, थकि सी आठौ जाम।

जा दिन ते चित मैं चुभी, चोखी चितवनि स्याम॥

चंपक केसरि आदि दै, तुलहिं कौनो रंग।

सोनो लोनो होत है, लगि दुलहिन के अंग॥

ल्याई लाल निहारिए, यह सुकुमारि विभाति।

उचके कुच कच-भार तें, लचकि-लचकि कटि जाति॥

अधर मधुरता लेन कों, जात रह्यौ ललचाइ।

हा लोटन मैं मन गिर्यो, उरजन चोट खाइ॥

आली तो कुच सैल तें, नाभि कुंड कों जाय।

रोमाली सिंगार की, परनाली दरसाय॥

कहति ललन आए क्यौं, ज्यौं-ज्यौं राति सिराति।

त्यौं-त्यौं वदन सरोज पैं, परी पियरई जाति॥

मन नितंब पर गामरू, तरफरात परि लंक।

बर बेनी नागिनि हन्यौ, खर बीछी को डंक॥

छैल छबीली छांह सी, चैत चांदनी होति।

दीपसिखा सी को कहै, लखि खासी तन जोति॥

बिथुरे कच कुच पैं परे, सिथिल भए सब गात।

उनदोहें दृग में भई, दुगुनी प्रभा प्रभात॥

धन जोबन चय चातुरी, सुंदरता मृदु बोल।

मनमोहन-नेहै बिना, सब खेहै कै मोल॥

आई सिर नीचे किए, खीचे नैन निहारि।

कहत रुखावट सों गई चित चिकनाहट नारि॥

विषधर-स्वास सरिस लगे, तन सीतल वन-वात।

अनलहु सों सरसे दगे, हिमकर-कर धन-गात॥

त्रिबलि-निसेनी चढ़ि चल्यौ, लेन सुधा मुसुक्यानि।

उचके कुच उचके अरी, उचके चितहि बिचानि॥

झीनी सादी कंचुकी, कुच रुचि दीसी आज।

जनु बिबि सीसी सेत मैं, केसरि पीसी राज॥

मोती झालर झलझलैं, झीने घूँघट माह।

मनु तारागन झलमलैं, सरवर अमल अघाह॥

जऊ सौंह नख-खत भरे, खरी ढिठाई खात।

तऊ सलोनी की रही, भरी मिठाई बात॥

ललित मेंहदी बूंद यौं, लसत हथेरिन साथ।

पी अनुरागी मन मनो, बसत तिहारे हाथ॥

जाय उतै बलि पेखिए, छाय रही छवि स्याम।

सोभति बेलि बिकास सों, लसति हास सों बाम॥

श्रीस्यामा कों करत हैं, रामसहाय प्रनाम।

जिन अहिपतिधर कों कियौ, सरस निरंतर धाम॥

हारी जतन हज़ार कै, नैना मानहिं नाहिं।

माधव-रूप बिलोकि री, माधव लों मँड़राहिं॥

सुबरन पाय लगे लगै, दुरित उदित जग माहिं।

परत रजत पायल अरी, सुबरन की ह्वै जाहिं॥

आयौ दुसह बसंत री, कंत आए वीर।

तन मन बेधत तंत री, मदन सुमन के तीर॥

पी आवन की को कहै, सावन मास अंदेस।

पाती हू आती ती, अरु पाती संदेस॥

उसरि बैठि कुकि काग रे, जौ बलवीर मिलाय।

तौ कंचन के कागरे, पालूं छीर पिलाय॥

मैं मोही मोहे नयन, खेह भई यह देह।

होत दुखै परिनाम करि, निरमोही सों नेह॥

काहि छला पहिराव री, हों बरजी बहु बार।

जाय सही नहिं बावरी, मिहदी रंग को भार॥

दमकि-दमकि दामिनि कहा, दिपति दिखावति मोहि।

वा कामिनि की कांति लों, भूलि कहों नहिं तोहि॥

क्यौं जितिए कहिए भला, तुम छल बल सुप्रबीन।

करिए कौन कला लला, हम अबला बलहीन॥

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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