उमर ख़य्याम के उद्धरण

मैंने एक दिन बाज़ार में एक कुम्हार को देखा जो मिट्टी के टुकड़े को अपने पैरों से रौंद रहा था। वह मिट्टी अपनी जिह्वा से उससे यह शब्द कह रही थी—कभी मैं भी तेरी तरह मनुष्य के रूप में थी और मुझमें भी ये सब बातें वर्तमान थीं।

मार्ग में चलते हुए इस प्रकार चल कि लोग तुझे सलाम न कर सकें और उनसे ऐसा व्यवहार कर कि वे तुझे देख कर न उठ खड़े हों। यदि मस्जिद में जाता है तो इस प्रकार जा कि लोग तुझे इमाम न बना लें।
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यदि तू चाहता है कि तुझको भगवान के भेद प्राप्त हो जाएँ तो ऐसे कार्य कर कि जिनसे किसी को कष्ट न पहुँचे। मृत्यु का भय मत कर और रोटियों की चिंता त्याग दे क्योंकि ये दोनों वस्तुएँ समय पर स्वयं ही आ उपस्थित होती हैं।

ईश्वर प्रेम की मदिरा से मेरे शरीर तथा प्राणों को शक्ति प्राप्त होती है। उसके पीने से मेरे छिपे हुए रहस्य प्रकट हो जाते हैं। उनके पी लेने पर मुझे न इस लोक की आवश्यकता रहती है, न परलोक की। इस मदिरा का एक प्याला दोनों लोकों के लिए पर्याप्त है।

हे साक़ी! ईश्वर-प्रेम की मदिरा मुझको पुरस्कार में प्राप्त हुई है। बिना ईश्वर-प्रेम की मदिरा पीने वाला पापी है। ईश्वर प्रेम से रहित मनुष्य कुछ भी नहीं कर सकता है। मनुष्य-जीवन का उद्देश्य ईश्वर प्रेम को प्राप्त करना है।

ईश्वर-प्रेमी सदैव ईश्वर की धुन में मस्त व पागल रहता है। दीवाना व पागल सदैव निश्चिंत रहता है। होश में रहने पर हर वस्तु का खेद उसे होगा और जब ईश्वर-प्रेम में मस्त हो गया तो जो हो गया वह हो गया, उसे क्या चिंता?
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जो मनुष्य ईश्वर पर प्राणों को न्योछावर करता है, वह मनुष्य कहे जाने का अधिकारी है। ऐसे व्यक्ति के चरणों पर यदि मैं अपना सिर रखूँ तो यह मेरे लिए सरल है।
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दूसरे का बुरा चाहने वाला अपने अभीष्ट को प्राप्त नहीं कर सकता। वह एक बुराई नहीं कर जाता है तब तक उसकी सो बुराइयाँ फैल जाती हैं। मैं तेरी भलाई चाहता हूँ, और तू भी मेरी बुराई, तो इसका फल यही होगा कि तुझे भलाई प्राप्त नहीं होगी और मुझे बुराई नहीं पहुँचेगी।
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