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जौन एलिया

1931 - 2002 | अमरोहा, उत्तर प्रदेश

लोकप्रिय उर्दू शायर। इश्क़, दर्द, तल्ख़ हक़ीक़त, बेबाक-बाग़ी लहजे और फ़लसफे के लिए उल्लेखनीय।

लोकप्रिय उर्दू शायर। इश्क़, दर्द, तल्ख़ हक़ीक़त, बेबाक-बाग़ी लहजे और फ़लसफे के लिए उल्लेखनीय।

जौन एलिया के उद्धरण

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तुम्हारा हर काम और हर खेल मग़रिबी (पश्चिमी) है, तुम हारे तो क्या और जीते तो क्या! बल्कि दुःख तो ये है कि तुम उनकी नक़ल उतारने में कभी-कभी जीत भी जाते हो।

मुशायरा एक ऐसा ख़तरनाक हंगामा है जिसमें शाइर की इज़्ज़त लम्हा-लम्हा ख़तरे की ज़द में रहती है।

हमें रोज़-मर्रा की ज़िंदगी में किसी फ़लसफी की ज़रूरत पेश आती है, किसी शाइर की… फिर समाज उनकी हैसियत को भला किसलिए तस्लीम करे।

जिस शख़्स से बुराई सरज़द (घटित) होती है, वो अपनी बुराई में तिहाई का ज़िम्मेदार है, बाक़ी की ज़िम्मेदारी उस समाज पर है जिसकी बुनियाद इस पर रखी गई है।

एक इंसान दूसरे इंसान से मायूस हो सकता है, लेकिन इंसानियत से मायूस नहीं होना चाहिए।

आज हर वो शख़्स दानिशवर, शाइर और नक़्क़ाद होने का मुद्दई है; जो समाज का सबसे नालायक़ फ़र्द (व्यक्ति) हो।

एक शख़्स अपनी ख़ुशी के लिए दूसरे का दिल दुखाता है।

मैं भी बहुत अजीब हूँ, इतना अजीब हूँ कि बस, ख़ुद को तबाह कर लिया और मलाल भी नहीं।

इस समाज में हमारी दाहिनी तरफ़ भी झूठ है और बाईं तरफ़ भी। सामने भी और पीछे भी, झूठ ही झूठ है जिसके सबब ये झल्लाहटें हैं और खोट ही खोट है जिसके बाइस ये झुँझलाहटें हैं।

आज हर बेमाया मीर-ओ-ग़ालिब बना हुआ है।

फ़लसफ़ा और अदब समाज से अपना एहतराम तो करा लेते हैं, मगर उसकी किसी ज़रूरत को पूरा करने के अहल साबित नहीं होते।

हम जिस समाज में रहते हैं, ख़ुदग़र्ज़ी और ख़ुदमुरादी उसका दस्तूर और हक़-तलफ़ी उसका रिवाज है।

इस समाज में जो आदमी बुरा नहीं है वो बेवक़ूफ़ है।

जो शख़्स बोलना नहीं जानता, उसे बोलना सिखाओ, लेकिन इस तवक़्क़ो (आशा) के साथ कि जब वह पहली बार रवानी से बोलेगा तो तुम्हें गाली देगा। जिसे लिखना नहीं आता, उसे लिखने की मश्क़ (अभ्यास) कराओ, पर नफ़्स (ख़ुद) की इस आमादगी (रज़ामंदी) के साथ कि जब वो लिखना सीख लेगा तो सबसे पहले तुम्हारे क़त्ल के महज़र (अधिपत्र) पर दस्तख़त करेगा।

हर पेशा कुछ कुछ रियाज़ चाहता है।

इस समाज में तुम अगर ये सुनो कि क़ातिल मक़्तूल (क़त्ल होने वाला) का दोस्त नहीं था तो इस पर तअ’ज्जुब करो।

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