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धर्मवीर भारती

1926 - 1997 | इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश

समादृत कवि-कथाकार और अनुवादक। ‘धर्मयुग’ साप्ताहिक के संपादक के रूप में भी चर्चित।

समादृत कवि-कथाकार और अनुवादक। ‘धर्मयुग’ साप्ताहिक के संपादक के रूप में भी चर्चित।

धर्मवीर भारती के उद्धरण

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लिखना चाहे जितने विशिष्ट ढंग से, लेकिन जीना एक अति सामान्य मनुष्य की तरह।

कभी-कभी थोड़ा पलायन बहुत स्वस्थ होता है।

मैं उस मृत्यु के बारे में अक्सर सोचता हूँ जो क्षण-क्षण घटित हो रही है—हम में, तुम में, सब में।

कहीं कहीं, हमारा कोई कोई अंश प्रतिक्षण मरता रहता है।

वस्तुतः यह सारा जीवन रसमय अनुभूतियों की सार्थक शृंखला होकर—असंबद्ध क्षणों की भँवर है, जिसकी कोई दिशा नहीं।

ज़िंदगी को फूलों से तोलकर, फूलों से मापकर फेंक देने में कितना सुख है।

कोई ज़रूरत नहीं कि कथाकार कहानी के अंत में पाठक पर आस्था थोप ही दे।

मृत्यु शायद किसी एक अमंगल क्षण में घटित होने वाली विभीषिका नहीं है। वह एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है।

डरने में उतनी यातना नहीं है जितनी वह होने में जिससे सबके सब केवल भय खाते हों।

  • संबंधित विषय : डर

शिखरों की ऊँचाई कर्म की नीचता का परिहार नहीं करती।

सपने में बड़ा उल्लास है, सुंदर भी है, रहस्यमय भी है। यही सपने का अर्थ है।

सचाई कहाँ है—मैं आज तक नहीं समझ पाया।

  • संबंधित विषय : सच

साहित्य निजता की उपलब्धि है।

हिंदी की समकालीन समीक्षा में बार-बार जो नवलेखन से अनास्था की शिकायत की जाती है, दुर्भाग्य से उसकी प्रकृति बहुत कुछ बहेलिया-विप्र के शाप जैसी है।

मैं उस मृत्यु की चिंता नहीं करता जो अकस्मात झटके से साँसों की डोर को तोड़ देगी।

दुनिया की कोई भाषा नहीं जो पृथक व्यक्तियों के निगूढ़तम मर्म के बीच वास्तविक सेतु का काम कर सके।

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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