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द वेजिटेरियन : हिंसा और अन्याय से मुक्ति का स्वप्न

“मुझे एक स्वप्न आया था”

कोरियाई लेखिका हान कांग के उपन्यास ‘द वेजिटेरियन’ के मूल में यही वाक्य है, जो उपन्यास की पात्र योंग-हे निरंतर दुहराती रहती है। यह वाक्य साधारण ध्वनित कर सकता है लेकिन यह शोषण के विरुद्ध उठे सशक्त प्रतिरोध की तरह लगातार पृष्ठभूमि में गूँजता रहता है; सत्ता, संस्कृति, समाज की आरोपित एकरूपता की चेष्टा और निर्दयी हिंसा के विरुद्ध देखा गया एक स्वप्न, जहाँ मनुष्यता का पतन देखकर प्रकृति से एकात्म होने की आकांक्षा है—स्त्री आकांक्षा। एक स्त्री की दृष्टि से मनुष्यता को देखने का प्रयास जहाँ एक तरफ़ पितृ सत्ता की क्रूरता और हिंसा के विरुद्ध एक अहिंसक लेकिन ताक़तवर प्रतिरोध है, वहीं मनुष्यता, प्रकृति, पर्यावरण, जीवन मात्र के लिए ही करुणा एवं संवेदना है।

योंग-हे उपन्यास के अंतिम अध्याय ‘फ़्लेमिंग ट्रीज़’ (दहकते हुए पेड़) में कहती है—“हाँ, मैं एक स्वप्न में थी, और मैं अपने सिर के बल खड़ी थी... मेरे शरीर से पत्ते उग रहे थे और मेरे हाथों से जड़ें…  इसलिए मैं धरती को गहरा खोदती हूँ... लगातार... मैं चाहती थी कि मेरी उरुसंधि से फूल उगें... मैं अपनी टाँगें फैलाती हूँ;... मैं उन्हें और चौड़ा करती हूँ...”

मनुष्य विकास के जिस पायदान पर खड़ा है, वह डार्विन के ‘सर्वश्रेष्ठ के अस्तित्व’ के सिद्धांत पर चलती है। खाद्य-चक्र की नृशंसता में पशुओं से अधिक निर्मम मनुष्य है, जिसके लिए हर वह जीव भोजन है, जो चक्र में उससे निचले पायदान पर है। शोषण और हिंसा की यह निरंतर खेप सिर्फ़ भोजन के लिए ही नहीं है, यह सत्ता और शक्ति का संघर्ष है। यहाँ हर शक्तिशाली हर उस जीव का दमन और शोषण कर रहा है, जो शक्ति में उससे कमतर है। 

परिवार, समाज, संस्कृति, देश और दुनिया की तमाम व्यवस्था के मूल में दरअस्ल यही सिद्धांत है, यही हिंसा और किसी असहाय, शक्तिहीन को दमित करने की प्रवृत्ति है। हान कांग के उपन्यासों के मूल में भी इसी शोषण और हिंसा के विरुद्ध प्रतिरोध दिखता है, जिसके निशाने पर सिर्फ़ पशु ही नहीं, स्त्री, सर्वहारा और हर वो शै है जो अलग है, भिन्न है या जिसने स्वप्न देखने का दुस्साहस किया है। 

‘द वेजिटेरियन’ उपन्यास के मूल में भी वही क्रूर हिंसा और शोषण है। आरंभ में इस शोषण के मूल में मांसाहार और जीव हत्या दिखती है, लेकिन ज्यों-ज्यों उपन्यास आगे बढ़ता है; योंग-हे के पति, बड़ी बहन और बहन के पति की दृष्टि से कथा के सूत्र खुलते हैं। हिंसा और शोषण की कई परतें दिखाई देने लगती हैं। हिंसा सिर्फ़ वही नहीं होती है, जो प्रत्यक्ष दिखाई देती है। सूक्ष्म हिंसा के रूप कहीं अधिक घातक है, जिसका सिरा हमेशा स्त्रियों की ओर ही जाता है। 

कोरियाई समाज की पृष्ठभूमि में लिखा गया यह उपन्यास इस बात की पुष्टि करता है कि दुनिया भर में स्त्रियों की स्थिति भारत से कोई अलग नहीं है, उन्हें स्त्री-देह धारण करने की सजा हर जगह मिलती है। उन्हें नियमों, परंपराओं और अनगिनत साँकलों में जकड़े रखने के सूक्ष्म तरीक़े हर समाज ने ईजाद कर रखे हैं। 

उपन्यास के शुरुआत में ही योंग-हे के पति मिस्टर चेओंग की आत्मस्वीकृति होती है, जहाँ उस सूक्ष्म हिंसा की बानगी देखी जा सकती है जो मनुष्य मात्र पर ही आधिपत्य की दृष्टि से बहुत सुविचारित तरीक़े से इस्तेमाल की जाती है, जिसके निशाने पर हर शक्तिहीन होता है, पशु हो या स्त्री या अन्य कोई भी निर्बल मनुष्य। 

इस स्त्री का निष्क्रिय और अप्रभावी व्यक्तित्व जिसमें मैं न तो ताज़गी, न ही आकर्षण, या कुछ भी विशेष रूप से परिष्कृत, मुझे पूरी तरह से अनुकूल लगा। उसका ध्यान आकृष्ट  करने के लिए मुझे किसी बौद्धिक प्रभाव की आवश्यकता नहीं थी, या यह चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं थी कि वह मेरी तुलना फ़ैशन कैटलॉग में आने वाले पुरुषों से कर सकती है...

मैं हमेशा जीवन में मध्यम मार्ग की ओर झुका रहा हूँ। स्कूल में मैंने उन लोगों पर हुक्म चलाना पसंद किया जो मुझसे दो या तीन साल छोटे थे, और जिनके साथ मैं अपनी उम्र के साथियों की तुलना में सरगना की भूमिका निभा सकता था…

ऐसी अप्रभावी और बेआवाज़ स्त्री जब अचानक एक दिन कहती है कि उसने एक स्वप्न देखा है, वह घर से महंगे माँस के सभी थैले फेंक कर घोषणा कर देती है कि वह माँस खाना छोड़ रही है, तो यह एक अप्रत्याशित चुनौती मिस्टर चेओंग के वजूद को ही नहीं झकझोरती, पूरे परिवार, परंपरा और संस्कृति के विरुद्ध किए गए शांत पर सशक्त प्रतिरोध की तरह उभरती है। हालाँकि मुक्ति की यह आकांक्षा, जबरन बाँधी परिधियों से आज़ाद होने की योंग-हे की छटपटाहट मिस्टर चेओंग को तभी समझ आ जानी चाहिए थी, जब स्त्रियों की शारीरिक सुंदरता और सौष्ठव के लिए अति आग्रही कोरियाई समाज में भी योंग-हे बिना अंतःवस्त्र (ब्रा) के रहने का चयन करती है और लोगों के घूरने और पति की माँग से भी पूरी तरह लापरवाह रहती है। 

उपन्यास के प्रथम अध्याय में ही हिंसा की वे अदृश्य परतें दिखाई देने लगती हैं, जो योंग-हे को बचपन से ही झेलनी पड़ी है। अति उग्र और सामंती पिता के प्रभाव में बिताए बचपन ने न सिर्फ़ उसके अस्तित्व को संपूर्णता से विकसित नहीं होने दिया, अप्रत्यक्ष रूप से स्वयं उसे भी उस निर्मम हिंसा के प्रत्यारोपण का एक अस्त्र बना दिया, जो किसी मूक और निर्बल पर किसी सबल द्वारा आरोपित की जाती है। वह एक पालतू वफ़ादार कुत्ते की निर्मम हत्या का वह वीभत्स दृश्य याद करती है, जिसने ग़लती से योंग-हे को काट लिया था और जिसकी सजा उसके पिता ने उसे मोटरसाइकल में बाँधकर निर्मम हत्या के रूप में दी। विजय के प्रतीक के रूप में रात्रि भोज में उसी कुत्ते के माँस को अतिथियों को खिलाया गया। योंग-हे याद करती है—“... मैंने एक पूरा कटोरा चावल के साथ खाया था...”

मुझे याद आती है वो दो आँखें जो मुझे देख रही थीं, जब उस कुत्ते को तब तक दौड़ाया गया था, जब तक वह ख़ून और झाग की उल्टी नहीं करने लगा था, और किस तरह बाद में वह ख़ून और झाग फिर सूप की सतह पर तैरने लगा था, लेकिन मुझे कोई परवाह नहीं थी। मुझे वास्तव में कोई परवाह नहीं थी।  

पिता की निर्दयी सत्ता के सूत्र पाठकों को वहाँ से भी मिलते हैं, जब पूरा परिवार योंग-हे को माँस खिलाने जुटता है, उसका भाई उसे जबरन पकड़ता है और उसके पिता बेटी के प्रतिरोध को देखकर पूरे परिवार के समक्ष उसे निर्ममता से इतने घूंसे जड़ते हैं कि वह ख़ून उगलने लगती है। परंपरा, संस्कृति, धर्म, परिवार की सुरक्षा और प्रेम के नाम पर की गई सूक्ष्म हिंसा और शोषण यहाँ अपने चरम पर उभरता है, जिसका निशाना अक्सर परिवार के कमजोर सदस्य होते हैं, विशेषकर—स्त्रियाँ।

पारंपरिक रूप से ऐसे हिंसक और क्रूर समाज और परिवार में हिंसा के वीभत्स दृश्यों के बीच पली बढ़ी और स्वयं भी उसके केंद्र में रही योंग-हे जो रक्त और माँस से भरे भयावह स्वप्न देखने लगती है, वह अचानक से नहीं निर्मित हुए हैं; बल्कि एक लंबे दमित और प्रताड़ित जीवन जीने के कारण अवचेतन पर पड़े मनोवैज्ञानिक दुष्प्रभाव हैं। 

योंग-हे के निर्णय और व्यवहार से परिवार और समाज यह मान बैठता है कि वह मानसिक रूप से विक्षिप्त हो रही है, जबकि यह विक्षिप्तता की जगह स्वयं को हिंसा और शोषण के नियमित चक्र से आज़ाद करने की उसकी अनथक चेष्टा है। एकमात्र प्रकृति, पेड़, फूल, धूप, हवा, पानी ही उसे अपनी ऊर्जा के स्त्रोत लगते हैं क्योंकि वह इनमें ही अपनी मुक्ति की छवि देखती है। वह जानती है कि परंपरा और संस्कृति उसे कभी बंधन रहित नहीं होने देंगे, अतः मुक्ति हेतु वह स्वयं को प्रकृति से एकात्म होने छोड़ देती है। 

मुझे अपने शरीर को पानी देने की ज़रूरत है। मुझे इस तरह के भोजन की आवश्यकता नहीं है, बहन। मुझे पानी की ज़रूरत है।  

यह इको फ़ेमिनिज़्म की वही अवधारणा है, जहाँ स्त्री और प्रकृति अपने साहचर्य से मुक्ति के छंद रचने का स्वपन देखती हैं, एक दूसरे के सान्निध्य में निखरती हुई, एक दूसरे को बचाती, सहेजती हुई ताकि एक ऐसे संसार का निर्माण किया जा सके, जहाँ हिंसा, शोषण, अन्याय और विषमताओं के लिए कोई स्थान नहीं हो, जहाँ जीव मात्र के लिए संवेदना हो, एक ऐसा संसार जहाँ हर वस्तु, जीवन, प्रकृति के सभी तत्वों को जीवित रहने का अधिकार हो और उन्हें किसी की विलासिता या स्वाद का उत्पाद नहीं बनना पड़े। सुज़न ग्रिफ़िन की स्त्री और प्रकृति के यह शब्द योंग-हे का परिचय बन जाते हैं—

वह कहता है कि स्त्री प्रकृति से बात करती है, कि वह धरती के नीचे से आवाज़ें सुनती है,  कि हवा उसके कानों में बहती है और पेड़ उसके कान में फुसफुसाते हैं। मृतक उसकी आवाज़  में गाते हैं और शिशुओं की चीखें उसे स्पष्ट सुनाई देती हैं...

योंग-हे की बड़ी बहन को इन-हे जो प्रथम दृष्टि में एक सबल, आत्मनिर्भर स्त्री प्रतीत होती है और कलाकार पति की भी आर्थिक ज़िम्मेदारी उठाती है। लेकिन योंग-हे की तरह वह भी उसी अदृश्य हिंसा की शिकार है, जो अक्सर खुली आँखों से भी नज़र नहीं आती और स्त्रियों के संपूर्ण अस्तित्व को क्षत-विक्षत कर जाती है। अपनी बहन की तरह वह भी वैवाहिक बलात्कार का शिकार होती है। उसका पति पूरे उपन्यास में एकमात्र ऐसा किरदार है जिसे योंग-हे के लिए संवेदना है, लेकिन वह संवेदना दरअस्ल एक कलाकार की फ़ंतासी ही सिद्ध होती है जो एक कोमल स्त्री शरीर के संसर्ग की कामना से भरा हुआ है। योंग-हे के पृष्ठ भाग के मंगोलियन चिह्न के स्पर्श हेतु सनकपन की हद तक आतुर यह व्यक्ति अपनी ही पत्नी की आवश्यकताओं और मानसिक स्थिति के लिए संवेदनहीन है और महीनों से हो रहे योनि के रक्त स्त्राव के संक्रमण की स्थिति से भी; और ऐसी हालत में भी उससे जबरन संसर्ग करता है।

कांग को इस उपन्यास की विषयवस्तु प्रसिद्ध कोरियाई लिबरेशन एक्टिविस्ट और रचनाकार यी सांग के एक उद्धरण से मिली कि “मेरा मानना है कि मनुष्यों को पेड़ होना चाहिए।”

आहार के नाम पर प्रकृति का जितना दोहन हो रहा और स्वाद के लिए करोड़ों मूक, निर्बल जीवन की नृशंस हत्या की जा रही है, उनकी पीड़ा, उनकी तड़प योंग-हे के स्वप्न की आवाज़ बनकर निरंतर नेपथ्य में उभरती रहती है। इस हद तक कि योंग-हे पर जब उसके पिता और परिवार हिंसक तरीक़े से उसे खिलाने का प्रयास करते हैं, वह उन्हीं निमर्मता से मारे जा रहे पशुओं की आवाज़ में कराहती और चीखती है। हत्या के वे दृश्य जो उसकी आत्मा पर बोझ की तरह पड़े हैं, वह उससे उबरने हेतु ही पेड़ बन जाने की हद तक स्वयं को देखने लगती है। 

ख़ून और माँस, वे सभी कटे हुए लोथड़े हर गली-मोहल्ले में बिखरे पड़े हैं, और हालाँकि उनके भौतिक अवशेष बाहर निकल गए हैं, फिर भी उनका जीवन मेरे अंदर अभी भी ज़िद्दी तरह से चिपका हुआ है।

एक स्वप्न से आरंभ हुआ यह उपन्यास स्वप्न पर ही आकर खत्म होता है, लेकिन इस बार स्वप्न का यह सिरा उसकी बड़ी बहन इन-हे और उसके बेटे ने थामी है, जहाँ हमें उसकी बहन की भी मुक्ति की आकांक्षा के सूत्र मिलते हैं। उसका बेटा एक स्वप्न देखता है, जहाँ उसकी माँ की एक तस्वीर हवा में तैर रही है और वहीं एक चिड़िया है जिसकी आवाज़ आती है—मैं तुम्हारी माँ हूँ। 

इन-हे उसके बहाने स्वयं को दिलासा देती है कि यह सिर्फ़ एक स्वप्न है। सिर्फ़ एक स्वप्न। लेकिन अपने मन की उस स्थिति से वह अवगत है जो एक संवेदनहीन और छली पति से मुक्त होने के बाद उससे जुड़ी हर स्मृति और ज़िम्मेदारी से भी मुक्त हो जाना चाहता है, अपने बेटे से भी। उसका अंतर्मन जानता है कि योंग-हे के स्थान पर वह भी हो सकती थी, उसकी तरह ख़ून की उल्टियाँ करती हुई। और यह सब एक स्वप्न मात्र नहीं है। 

वह अपनी बहन से कहती है—“मेरे भी सपने हैं, तुम्हें पता है। सपने... और मैं ख़ुद को उनमें घुलने दे सकती हूँ, उन्हें अपने ऊपर हावी होने दे सकती हूँ... लेकिन निश्चित रूप से सपना ही सब कुछ नहीं है? हमें किसी न किसी समय जागना ही होगा, है न? क्योंकि... क्योंकि तब...”

अपनी बहन को एंबुलेंस में ले जाते हुए वह बाहर खड़े पेड़ों को बहुत आवेग से ताकती है जैसे किसी उत्तर की प्रतीक्षा में हो, जैसे किसी चीज़ के विरुद्ध विद्रोह कर रही हो। उसकी दृष्टि गहन और दृढ़ थी। 

यहाँ दृष्टि लेखिका हानकांग की वह दृष्टि है जो हर अन्याय, हिंसा, दमन और विषमता को संवेदनशील और सजग प्रतिरोध के साथ देखती है। सभ्यताओं के दमन, युद्धों की विभीषिका, धर्म और सत्ता के पैशाचिक मंसूबों पर सवाल करती हुई, निरंतर इस कथा में भी गूँजती रहती है—

क्या यह सच है कि मनुष्य अपने मूल रूप में क्रूर हैं? क्या क्रूरता का अनुभव ही केवल वह वस्तु है जिसे हम एक प्रजाति के रूप में साझा करते हैं? यह गरिमा जिसे हम धारण करते हैं क्या सिर्फ़ भ्रम है, अपने आप को उस सच से दूर रखने का प्रयास : कि हम में से हर कोई एक कीट, एक खूँखार जानवर, माँस का एक लोथड़ा हो जाने में सक्षम है? अपमानित होना, संहार करना—क्या यही मनुष्यता के लिए आवश्यक है, जिसकी इतिहास ने अपरिहार्य के रूप में पुष्टि की है?

— हान कांग, ह्यूमन एक्टस

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