Font by Mehr Nastaliq Web

ओ इरशाद, प्यारे इरशाद! अलविदा!

ओ अज़ीज़ इरशाद खान सिकंदर!

ओ बुजुर्गों की तमीज़ से भरे युवा इंसान और शाइर-कवि! 

यह अचानक क्या! 

तुम्हारी हमेशा-हमेशा की ख़ामोशी हमें बहुत सताएगी यार! 

हमें फ़ख़्र है कि दिल्ली में दिल जीतने वाले कवि तुम हमारी बस्ती (संत कबीर नगर) के थे। तुम्हारे शब्दों और कहन की अदा ने तुम्हें ग़ज़ल में हरदिल अज़ीज़ बना दिया। 

ग़ज़ल जो हमारे वक़्त में एक मुश्किल विधा है और जिसे तमाम लोगों ने शौक़िया बना रखा है, उसमें तुम्हारा आना और हस्तक्षेप करना एक नई बहार की तरह लहराया। शब्दों की मासूमियत और ज़मीन की सुगंध से भरे तुम्हारे अल्फ़ाज़ इतने पुरसुकून होंगे और इतनी छोटी जगह से उठकर तुम देखते-देखते बिना किसी छल-छद्म और तीर-तुक्का के इतनी बड़ी जगह घेर लोगे, यह किसी को एहसास तक नहीं था। लेकिन तुम अपनी इंसानियत की पूँजी और शब्दों की धरोहर से लबरेज़ ऐसा कर सके। तुमने ग़ज़ल को न केवल उसकी नज़ाकत वापस की, बल्कि उसकी मार्मिक संवेदना को भी फिर से बहाल किया। 

क्या कहूँ यार! जब मैं बस्ती पर केंद्रित किताब—‘बस्ती : अतीत से वर्तमान तक’—का संपादन कर रहा था, तो तुम्हें उसमें शामिल करने की अनिवार्यता मेरे सामने थी। मैंने तुमसे संपर्क किया तो तुमने अभिभूत होकर, शायद बस्तीपने के नाते भी बहुत ख़ुशी-ख़ुशी मुझे सामग्री उपलब्ध कराई। उसका उपयोग करके ही इस किताब को और अपने संपादन को मैंने धन्य मान लिया। मुझे यह भी क़बूल करने में यहाँ कोई हिचक नहीं कि मेधावी युवा साहित्यिक अविनाश मिश्र की टिप्पणी के साथ मैंने तुम्हारी ग़ज़लों को बहुत प्यार से बिठाया। अविनाश का लिखा भी मुझे उतना ही प्रिय लगा था, जितनी तुम्हारी ग़ज़लें। तुमने न केवल ग़ज़ल में अभिनव प्रयोग प्रयोग किए; बल्कि बिसरे हुए शब्दों, उनकी फ़ितरत और मासूमियत को नवजात बनाया। मुझे स्वीकार है कि ग़ज़ल में मेरा कोई दख़्ल, पैठ या समझ बिल्कुल नहीं; फिर भी तुम्हारी रचनाओं में कविता की गंभीरता और सम्मोहन ने मेरे जैसे अकिंचन पाठक को अपनी ओर पकड़कर मुख़ातिब कर लिया। 

ख़ैर, उसके बाद तुम बस्ती घर भी आए। वक़्त की कमी। तुम्हें शाम को दिल्ली की ट्रेन पकड़नी थी। क्या वह ट्रेन दिल्ली से, दुनिया से बहुत दूर, इतनी दूर चली गई कि तुम दिल्ली, बस्ती, संत कबीर नगर और साहित्य-संस्कृति से जुड़े अपने महबूब चहेतों से मिलने दुबारा नहीं आओगे? तुमने जिस इंसानियत को जिया, पारिवारिक ज़िम्मेदारियों की तासीर को जिया और अपने कृतित्व से हिंदी की दुनिया के मुरझाए मुँहों और हरारत पर अपनी कविताओं के पानी से छींटा मारकर उन्हें तर-ओ-ताज़ा किया; उनसे मिलने अब नहीं आओगे, ओ इरशाद, प्यारे इरशाद! अलविदा!—तुम्हारी ही एक नज़्म के साथ : 

क्यों जहाँ में आए हम 

वक़्त की दराँती जब,
ज़िंदगी की फ़स्लों को
काटने को लपकी तो,
एक नज़्म लिखनी थी
नज़्म लिख न पाए हम 

जब कराहता सूरज,
शाम के मुहाने पर
गिर पड़ा था ज़ख़्मी-सा,
चंद शे’र कहने थे
शे’र कह न पाए हम 

शब के ज़ेरे-साया कल,
चाँद ने कहा जिस दम
सुनिए आप मेरे हैं,
कोई गीत गाना था
गीत गा न पाए हम 

वो समय भी आया जब,
इक भरे थिएटर में
मंच पर उदासी थी,
हमको रक़्स करना था
रक़्स कर न पाए हम 

दिन गुज़ारा जूँ-तूँ कर,
जैसे-तैसे काटी शब
अपनी ऐसी हालत पर,
सर्द आह भरना थी
आह भर न पाए हम 

ज़िंदगी को शिकवा है,
एक भी कसौटी पर
हम खरे नहीं उतरे,
कौन जान सकता है
क्यों जहाँ में आए हम

'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए

Incorrect email address

कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें

आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद

हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे

28 नवम्बर 2025

पोस्ट-रेज़र सिविलाइज़ेशन : ‘ज़िलेट-मैन’ से ‘उस्तरा बियर्ड-मैन’

28 नवम्बर 2025

पोस्ट-रेज़र सिविलाइज़ेशन : ‘ज़िलेट-मैन’ से ‘उस्तरा बियर्ड-मैन’

ग़ौर कीजिए, जिन चेहरों पर अब तक चमकदार क्रीम का वादा था, वहीं अब ब्लैक सीरम की विज्ञापन-मुस्कान है। कभी शेविंग-किट का ‘ज़िलेट-मैन’ था, अब है ‘उस्तरा बियर्ड-मैन’। यह बदलाव सिर्फ़ फ़ैशन नहीं, फ़ेस की फि

18 नवम्बर 2025

मार्गरेट एटवुड : मर्द डरते हैं कि औरतें उनका मज़ाक़ उड़ाएँगीं

18 नवम्बर 2025

मार्गरेट एटवुड : मर्द डरते हैं कि औरतें उनका मज़ाक़ उड़ाएँगीं

Men are afraid that women will laugh at them. Women are afraid that men will kill them. मार्गरेट एटवुड का मशहूर जुमला—मर्द डरते हैं कि औरतें उनका मज़ाक़ उड़ाएँगीं; औरतें डरती हैं कि मर्द उन्हें क़त्ल

30 नवम्बर 2025

गर्ल्स हॉस्टल, राजकुमारी और बालकांड!

30 नवम्बर 2025

गर्ल्स हॉस्टल, राजकुमारी और बालकांड!

मुझे ऐसा लगता है कि दुनिया में जितने भी... अजी! रुकिए अगर आप लड़के हैं तो यह पढ़ना स्किप कर सकते हैं, हो सकता है आपको इस लेख में कुछ भी ख़ास न लगे और आप इससे बिल्कुल भी जुड़ाव महसूस न करें। इसलिए आपक

23 नवम्बर 2025

सदी की आख़िरी माँएँ

23 नवम्बर 2025

सदी की आख़िरी माँएँ

मैं ख़ुद को ‘मिलेनियल’ या ‘जनरेशन वाई’ कहने का दंभ भर सकता हूँ। इस हिसाब से हम दो सदियों को जोड़ने वाली वे कड़ियाँ हैं—जिन्होंने पैसेंजर ट्रेन में सफ़र किया है, छत के ऐंटीने से फ़्रीक्वेंसी मिलाई है,

04 नवम्बर 2025

जन्मशती विशेष : युक्ति, तर्क और अयांत्रिक ऋत्विक

04 नवम्बर 2025

जन्मशती विशेष : युक्ति, तर्क और अयांत्रिक ऋत्विक

—किराया, साहब... —मेरे पास सिक्कों की खनक नहीं। एक काम करो, सीधे चल पड़ो 1/1 बिशप लेफ़्राॅय रोड की ओर। वहाँ एक लंबा साया दरवाज़ा खोलेगा। उससे कहना कि ऋत्विक घटक टैक्सी करके रास्तों से लौटा... जेबें

बेला लेटेस्ट