सआदत हसन मंटो के नाम
                                                     अभिजीत
                                                                                                    29 मई 2024
                                                         अभिजीत
                                                                                                    29 मई 2024
                                            
 
                                        
                                        सरहद,
भारत-पाकिस्तान
2024
मंटो,
पहले अज़ीज़ लिखूँ या आदाब, यहीं मात खा गया। ज़ाहिर है प्रोज़ में आपका मुक़ाबला कर पाना, मेरे बस के और बस के कंडक्टर के—दोनों के बाहर है। आज आपकी सालगिरह है। आपको जान के दुःख ही होगा कि आपके अफ़साने आज भी चश्मा-ए-हक़ीक़त हैं। उन्हें आज भी लोग पढ़ रहे हैं। पढ़ क्या कर रहे हैं, अख़बार बना लिया है। 
ख़ुशी की बात यह है कि आप सबसे बड़े अफ़साना-निगार निकले। मगर बात इतनी सच निकली कि चुभ गई। आपको यौम-ए-पैदाइश की मुबारकबाद दे रहे लोग, तानाशाही और बुज़दिली का उरूज देख रहे हैं। फ़्रॉड अपने अमृत-काल में है। 
आपको जान कर पता नहीं कैसा लगेगा कि आपके फ़्रॉड तो फिर भी बहुत हल्के निकले। यहाँ तो मज़हब के ‘म’ से लेकर ‘ब’ तक के जानलेवा सफ़र में केवल फ़्रॉड की ही गुंजाइश बचती है। ग़ालिब के एक शेर का मिसरा याद आता है—
“फ़क़त ख़राब लिखा बस न चल सका क़लम आगे” 
यही हालात हैं। उधर फ़िलिस्तीन जल रहा है और अमरीका अपनी सड़न का जश्न मना रहा है। मुल्क-ए-बरतानिया में, जहाँ से मैं आपको यह ख़त लिख रहा हूँ, मंदी का दौर है। रशा में क्या हो रहा है, यह तो आज तक किसे पता चला जो अब चलेगा। 
पूरी दुनिया जुनून और उदासी के सुनहरे घोड़े पर सवार है। माफ़ कीजिएगा। खच्चर पर। दरअसल आवाम घोड़े बेच के सोई थी। यक़ीन मानिए, तारीख़ में पहली बार, घोड़े बकरे के भाव में बिके हैं। फिर भी लीडरों से महँगे ही बिके। हुकूमत का पूरे मुल्क को फिर से ज़ब्ह करने का इरादा है।
अब आप सुन ही रहे हैं तो यह भी सुनिए। वज़ीर-ए-आज़म, यानी इंडिया के सुप्रीम लीडर भी बड़े अफ़साना-निगार हैं। ट्रैवेल-राइटर हैं। घूम-घूम के लिखते हैं। थ्रिलर भी अच्छा लिख लेते हैं। अपना कॉमिक भी शाया करवा चुके हैं। ख़बर है—नींद में लिखा था। 
जादू, दर्शन, एस्ट्रोफ़िज़िक्स और संगीत तक में अपना दख़ल रखते हैं। दख़ल रखने में अव्वल हैं। टीवी से लेकर सिनेमा तक। दूर के चाचा से दूर के ग्रहों तक। हर जगह अपना नाम का डंका बजवा चुके हैं। डंके की आवाज़ में अक्सर औरतों के चीख़ने और बच्चों के रोने की आवाज़ें आती हैं। सुप्रीम लीडर लगभग हर बड़े भगवान के दसवें या बारवें अवतार हैं। पब्लिक भी ठीक-ठाक पागल है।
हालाँकि सुनने में आता है कि ख़िलाफ़त की हवा भी अपने ज़ोर पर है। अदीबों से लेकर आलिमों तक सब अपने-अपने हिस्से का इंक़लाब ला रहे हैं। आपको यह सुन कर शायद हँसी आ जाए कि आज भी ‘तरक़्क़ी पसंद’ का लेबल बेचा जाता है।
वैसे लेबल से याद आया। शायद आप तक यह बात किसी ने पहुँचाई न हो। अब आदमी और आदमी का चूमना गुनाह नहीं रहा। कम-अज़-कम काग़ज़ पर तो नहीं रहा। 
शऊरी तौर पर लोगों की ज़ेहानत में इज़ाफ़ा तो हुआ है। क्या फ़हशा है और क्या नहीं। अब यह फ़र्क़ कम हो रहे हैं। यानी आज अगर 'बू' या 'लिहाफ़' जैसा कोई अफ़साना लिखा जाता तो कोर्ट केस तो नहीं चलता। हाँ मंटो साहब, आप भारी ट्रोल होते वैसे। 
आप तो मीम मटेरियल भी हैं। मेरा यक़ीन है, आप दुनिया के इस ढंग में भी अपना कोई अंदाज़, कोई जुमला मार ही जाते। गोया आप कहते—“मीम नहीं, मैं तो शीन और काफ़ हूँ।”
दुनिया अजीब-ओ-ग़रीब मक़ाम पर है। डिप्रेशन के जिस दौर से हम गुज़र रहे हैं, उसमें चेहरे पर धूप भी पड़ती है तो लगता है पहले तलाशी लेती है। अहद के बड़े शायरों में शुमार, आतिफ़ तौक़ीर अपनी नज़्म ‘भूख’ में गंदुम को भी शैतानियत की ईजाद क़रार देते हैं। ऐसा तो वक़्त है। 
माज़रत मंटो साहब कि अच्छा कुछ सुनाने को बहुत कम है। किसी भी बात का सिरा पकड़ू तो मालूम पड़ता है, सियासत की ही पूँछ पकड़ ली है। कोई बात सिर्फ़ गुफ़्तगू नहीं होती। कोई शेर, महज़ सुख़न नहीं होता। पर्सनल इज़ पॉलिटिकल में पर्सनल के म'आनी ही गिरफ़्तार हो जाएँगे, यह ख़याल में भी आता उससे पहले ही होश उड़ गए। अब होश भी साहब ऐसे उड़े हैं कि सीधा जर्मनी पहुँच गए हैं। 
क्लास में पीछे बैठने वाले कहते थे—मारो कहीं, लगे वहीं। मुल्क के हालात ऐसे हैं कि मारो कहीं भी, लगबै नहीं करेगा। जम्हूरियत को जमूरों ने घेरा हुआ है। ख़ैर, घेरा तो बरसों से था। अब करतब करवा रहे हैं। करतब क्या, लैप डांस चल रहा है। अब इससे ज़्यादा लिखूँगा तो ऐन मुमकिन यह फ़हश-निगारी हो जाए। मैं भी किसे समझा रहा हूँ। आप तो समझने वालों में से हैं। 
ख़ैर! सालगिरह मुबारक। हालाँकि मुबारकबाद देने लायक ज़माना है नहीं। आज भी वैसा ही “ना-क़ाबिल-ए-बरदाश्त” और अपने नंगेपन का गाहक है। उठा के देखो तो हु-ब-हु मीर का वो शेर लगता है—
“दीदनी है शिकस्तगी दिल की 
क्या इमारत ग़मों ने ढाई है”
दोबारा ख़ैर। आपको इतना ज़रूर कहूँगा कि आपके चाहने वाले कम नहीं हैं। हाँ, यह ज़रूर है कि हमारी सोसाइटी में भूलने की बीमारी आम-फ़हम है, तो आपको भी, ख़ास मौक़ा देख कर, ख़ास मौज़ू के ज़ेर-ए-साया, सहुलियताना तौर पर याद किया जाता है। बात ज़रा कड़वी है, लेकिन सुना है कि आप ज़्यादा कड़वे थे।
आपकी ज़बान का मुरीद,
अभिजीत
लखनऊ
भारत
11.05.2024
                                    
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