Font by Mehr Nastaliq Web

आज के दिन भूलकर भी न देखें ये फ़िल्में

इन पंक्तियों के लेखक के एक प्राचीन आलेख (कभी-कभी लगता है कि गोविंदा भी कवि है) के शीर्षक की तरह ही यहाँ प्रस्तुत आलेख का शीर्षक भी बहुत बड़ा हो रहा था, इसलिए इसे किंचित संपादित करना पड़ा। दरअस्ल, पूरा शीर्षक यों था : आज के दिन भूलकर भी न देखें ये फ़िल्में क्योंकि कई बार देख चुके हैं...

15 अगस्त आते-आते बहुत सारे संस्थान देशभक्ति का एहसास जगाने वाली फ़िल्मों की सूची जारी करने लगते हैं। वे यह भी बताते हैं कि इन फ़िल्मों को कौन-से टीवी चैनल्स या ओटीटी या अन्य प्लेटफ़ॉर्म्स  पर देखा जा सकता है। इस एहसास में अब यह स्पष्ट नज़र आता है कि देशभक्ति के मायने और देशभक्ति का सिनेमा दोनों ही परिवर्तित हो चले हैं। लेकिन इस परिवर्तन में परिवर्तन का स्वप्न नहीं है। गर्वोक्तियों, ललकारों और युद्धप्रियता से संचालित इन फ़िल्मों में समकालीन समस्याएँ और तनाव सिरे से नदारद हैं। ये मूलतः इतिहास के नायकों या खलनायकों या उनसे संबद्ध घटनाओं की ओर उन्मुख हैं।

मुझे मेरी याद के प्रत्येक 15 अगस्त पर ‘रोटी कपड़ा और मकान’ का वह दृश्य ज़रूर याद आता है, जिसमें मदन पुरी का किरदार सेठ नेकीराम काला बाज़ार के माहिर दलालों के बीच बैठकर कहता है : 

‘‘अरे! सुबह हो गई... आज तो 15 अगस्त है। आज तो लाल क़िले पर प्रधानमंत्री की स्पीच है। मैंने आज तक मिस नहीं की...” (मदन पुरी का किरदार रेडियो ऑन करता है और इंदिरा गांधी की स्पीच शुरू होती है) :

‘‘जब हम सुनते हैं कि जनता को कमी है, लेकिन बहुत बड़े दाम पे वही वस्तुएँ दुकान में या दुकान के पीछे बिक रही हैं और इसमें ज़रा भी संदेह नहीं मुझे है कि ऐसे लोग जो नाजायज़ तरीक़े से सामान को रोकते हैं और ऊँचे भाव से बेचते हैं, वो लोग जो काला बाज़ार करते हैं; उन पे सख़्त से सख़्त व्यवहार होना चाहिए, सख़्त से सख़्त उनको सज़ा मिलनी चाहिए...’’

इंदिरा गांधी की तस्वीर के पास खड़ा होकर मनोज कुमार का किरदार (भारत कुमार) इस स्पीच को सुनकर बहुत भावुक हो जाता है। उसे सीमा पर तैनात अपना सैनिक भाई (अमिताभ बच्चन) याद आता है, जो उसे अमर जवानों की शहादत दिखाते हुए कहता है कि ये इस देश के लिए शहीद हो गए और तुम रुपए के लिए शहीद हो गए भैया! तुमने ही कहा था न, ‘‘भूखे मर जाओ, कोई ग़म नहीं; मगर जियो तो इस देश का सच्चा शहरी बनकर...’’

इंदिरा गांधी की स्पीच जारी रहती है : 

‘‘नौजवानों को हमसे भी ज़्यादा एक मज़बूत-शक्तिशाली भारत की ज़रूरत है और भारत को नौजवानों की उतनी ही ज़रूरत है।’’

इस दृश्य में आगे समाजवाद के सपने देखने वाली सरकार को ख़त्म करने का इरादा रखने वाले मदन पुरी से भारत कुमार नैतिक, साहसिक और तीखी बहस करता है। 

मुझे यह फ़िल्म दृश्य-दर-दृश्य इसलिए ही याद है, क्योंकि हमारे बचपन का 15 अगस्तीय दूरदर्शन अपने लगभग तीन घंटे इस फ़िल्म पर प्राय: ख़र्च करता है। 15 अगस्तीय दूरदर्शन पर उस काल में मनोज कुमार उर्फ़ भारत कुमार का एकाधिकार था। ‘शहीद’, ‘उपकार’, ‘पूरब और पश्चिम’, ‘क्रांति’ इस संदर्भ में उनकी अन्य उल्लेखनीय कोशिशें थीं। कुछ समय बाद जब दूरदर्शन का एकाधिकार टूटा तो मनोज कुमार का भी टूटा। नाना पाटेकर का दौर आया—‘प्रहार’, ‘तिरंगा’, ‘क्रांतिवीर’। फिर जेपी दत्ता की मल्टीस्टारर फ़िल्में—‘बॉर्डर’ और ‘एलओसी कारगिल’... 

व्योमेश शुक्ल के शब्दों में कहें तो गिरावट के अंतहीन मुक़ाबले शुरू हुए। सनी देओल सड़ा हुआ मनोज कुमार होना चाहने लगा, जब उससे न हुआ तो इस राह में अक्षय कुमार आगे बढ़ा और एक हद तक सफल हुआ! बीच में कहीं अजय देवगन और ऋतिक रोशन भी थे। 

यहाँ आकर इस आलेख के शीर्षक का विरोधाभास प्रकट होता है, क्योंकि यह आलेख यह स्पष्ट नहीं कर पा रहा है कि आख़िर वे कौन-सी फ़िल्में हैं, जिन्हें आज के दिन भूलकर भी नहीं देखना है। दरअस्ल, जैसे-जैसे आपकी उम्र होती जाती है, आपका दिल टूटने के सिलसिले बढ़ते जाते हैं।

वह ‘बड़े मियाँ छोटे मियाँ’ देखती हुई कोई दुपहर थी, जब परेश रावल के मुँह से ‘रोटी कपड़ा और मकान’ के एक गीत ‘मैं न भूलूँगा...’ की पैरोडी—‘मैं न उतरूँगा...’ के रूप में—सुनी थी।

एक दौर में भगत सिंह पर बनी एक के बाद एक फ़िल्म देखते हुए ‘शहीद’ (1965) को याद करना कष्टकर था और युद्धाधारित फ़िल्मों को देखते हुए ‘हक़ीक़त’ (1964) को याद करना। 

यह हाल तब था, जब हम हिंदी-फ़िल्मों की तुलना हिंदी-फ़िल्मों से ही कर रहे थे। हम अभी अपनी ही सीमाएँ नहीं लाँघ पाए! हमने अतीत से इतना कम सीखा कि हमारे प्रधानसेवक को कहना पड़ा कि रिचर्ड एटनबरो की फ़िल्म ‘गांधी’ के बाद ही दुनिया ने गांधी को जाना! 

इस इतनी पत्थर रोशनी में गांधी के सपनों का एक भारत हुआ करता था और अंबेडकर के सपनों का भी। अटल-आडवानी के सपनों का भी एक भारत हुआ करता था और कार सेवा से पहले नॉवेल्टी में ‘मैंने प्यार किया’ देखकर बाहर निकल रहे बबलू भैया का भी। 

‘‘कम्युनिस्टों का तात्कालिक लक्ष्य वही है, जो अन्य सभी सर्वहारा पार्टियों का है। अर्थात् सर्वहारा का एक वर्ग के रूप में गठन, बुर्जुआ प्रभुत्व का तख़्ता उलटना, सर्वहारा द्वारा राजनीतिक सत्ता का जीता जाना।’’   

कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र से उद्धृत ऊपर की पंक्तियों से ऊपर लेबर चौक पर खड़ी आँखों के सपनों का भी एक भारत हुआ करता था।

एक कवि (आलोकधन्वा) ने इस दरमियान ही कहा था : 

भारत में जन्म लेने का 
मैं भी कोई मतलब पाना चाहता था 
अब वह भारत भी नहीं रहा 
जिसमें जन्म लिया

लेकिन भारत को कवियों से अब कोई मतलब नहीं था, जबकि कवियों के सपनों का भी एक भारत हुआ करता था। इस भारत में एक भाषा हुआ करती थी जिसमें कुछ फ़िल्में हुआ करती थीं जिनमें कुछ देशभक्ति हुआ करती थी जो हमें रोक लिया करती थी और हम उसे आज के दिन देख लिया करते थे—यह भूलकर कि इसे हम कई बार देख चुके हैं...

'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए

Incorrect email address

कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें

आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद

हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे

14 अप्रैल 2025

इलाहाबाद तुम बहुत याद आते हो!

14 अप्रैल 2025

इलाहाबाद तुम बहुत याद आते हो!

“आप प्रयागराज में रहते हैं?” “नहीं, इलाहाबाद में।” प्रयागराज कहते ही मेरी ज़बान लड़खड़ा जाती है, अगर मैं बोलने की कोशिश भी करता हूँ तो दिल रोकने लगता है कि ऐसा क्यों कर रहा है तू भाई! ऐसा नहीं

08 अप्रैल 2025

कथ्य-शिल्प : दो बिछड़े भाइयों की दास्तान

08 अप्रैल 2025

कथ्य-शिल्प : दो बिछड़े भाइयों की दास्तान

शिल्प और कथ्य जुड़वाँ भाई थे! शिल्प और कथ्य के माता-पिता कोरोना के क्रूर काल के ग्रास बन चुके थे। दोनों भाई बहुत प्रेम से रहते थे। एक झाड़ू लगाता था एक पोंछा। एक दाल बनाता था तो दूसरा रोटी। इसी तर

16 अप्रैल 2025

कहानी : चोट

16 अप्रैल 2025

कहानी : चोट

बुधवार की बात है, अनिरुद्ध जाँच समिति के समक्ष उपस्थित होने का इंतज़ार कर रहा था। चौथी मंजिल पर जहाँ वह बैठा था, उसके ठीक सामने पारदर्शी शीशे की दीवार थी। दफ़्तर की यह दीवार इतनी साफ़-शफ़्फ़ाक थी कि

27 अप्रैल 2025

रविवासरीय : 3.0 : इन पंक्तियों के लेखक का ‘मैं’

27 अप्रैल 2025

रविवासरीय : 3.0 : इन पंक्तियों के लेखक का ‘मैं’

• विषयक—‘‘इसमें बहुत कुछ समा सकता है।’’ इस सिलसिले की शुरुआत इस पतित-विपथित वाक्य से हुई। इसके बाद सब कुछ वाहवाही और तबाही की तरफ़ ले जाने वाला था। • एक बिंदु भर समझे गए विवेक को और बिंदु दिए गए

12 अप्रैल 2025

भारतीय विज्ञान संस्थान : एक यात्रा, एक दृष्टि

12 अप्रैल 2025

भारतीय विज्ञान संस्थान : एक यात्रा, एक दृष्टि

दिल्ली की भाग-दौड़ भरी ज़िंदगी के बीच देश-काल परिवर्तन की तीव्र इच्छा मुझे बेंगलुरु की ओर खींच लाई। राजधानी की ठंडी सुबह में, जब मैंने इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से यात्रा शुरू की, तब मन क

बेला लेटेस्ट