घर में हम तीन ही व्यक्ति रहते हैं—माँ, पिताजी और मैं। पर पिताजी कहते हैं कि यह घर सराय बना हुआ है। हम तो जैसे यहाँ मेहमान हैं, घर के मालिक तो कोई दूसरे ही हैं। आँगन में आम का पेड़ है। तरह-तरह के पक्षी उस पर डेरा डाले रहते हैं। जो भी पक्षी पहाड़ियों-घाटियों
(आदिवासी स्वतंत्रता संघर्ष कथा) बात 1922 की है। उन दिनों अँग्रेज़ों का शासन था। भारत देश अँग्रेज़ों का ग़ुलाम था। अपने लोगों को तरह-तरह के अत्याचार सहने पड़ते थे। अँग्रेज़ शासन ने अपने स्वार्थ पूरे करने के लिए भारत के लोगों को बहुत डरा-धमका कर रखा था। पर
समुद्र के किनारे ऊँचे पर्वत की अँधेरी गुफ़ा में एक साँप रहता था। समुद्र की तूफ़ानी लहरें धूप में चमकतीं, झिलमिलातीं और दिन भर पर्वत की चट्टानों से टकराती रहती थीं। पर्वत की अँधेरी घाटियों में एक नदी भी बहती थी। अपने रास्ते पर बिखरे पत्थरों को तोड़ती,
एक थी लड़की। नाम था उसका वल्ली अम्माई। आठ बरस की थी। उसे अपने घर के दरवाज़े पर खड़े होकर सड़क की रौनक़ देखना बड़ा अच्छा लगता था। वल्ली अम्माई को अपना नाम भी बड़ा अच्छा लगता था। वैसे, दुनिया में ऐसा कौन होगा जिसे अपना नाम पसंद न हो? सड़क पर वल्ली
लाला झाऊलाल को खाने-पीने की कमी नहीं थी। काशी के ठठेरी बाज़ार में मकान था। नीचे की दुकानों से एक सौ रुपए मासिक के क़रीब किराया उतर आता था। अच्छा खाते थे, अच्छा पहनते थे, पर ढाई सौ रुपए तो एक साथ आँख सेंकने के लिए भी न मिलते थे। इसलिए जब उनकी पत्नी ने
सारे गाँव में बदलू मुझे सबसे अच्छा आदमी लगता था क्योंकि वह मुझे सुंदर-सुंदर लाख की गोलियाँ बनाकर देता था। मुझे अपने मामा के गाँव जाने का सबसे बड़ा चाव यही था कि जब मैं वहाँ से लौटता था तो मेरे पास ढेर सारी गोलियाँ होतीं, रंग-बिरंगी गोलियाँ जो किसी भी
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