ध्रुवदास के दोहे
प्रेम-रसासव छकि दोऊ, करत बिलास विनोद।
चढ़त रहत, उतरत नहीं, गौर स्याम-छबि मोद॥
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रसनिधि रसिक किसोरबिबि, सहचरि परम प्रबीन।
महाप्रेम-रस-मोद में, रहति निरंतर लीन॥
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कहि न सकत रसना कछुक, प्रेम-स्वाद आनंद।
को जानै ‘ध्रुव' प्रेम-रस, बिन बृंदावन-चंद॥
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फूलसों फूलनि ऐन रची सुख सैन सुदेश सुरंग सुहाई।
लाड़िलीलाल बिलास की रासि ओ पानिप रूप बढ़ी अधिकाई॥
सखी चहूँओर बिलौकैं झरोखनि जाति नहीं उपमा ध्रुव पाई।
खंजन कोटि जुरे छबि के ऐंकि नैननि की नव कुंज बनाई॥
दोहा-नवल रंगीली कुंज में, नवल रंगीले लाल।
नवल रंगीली खेल रचो, चितवनि नैन बिशाल॥
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जिनके जाने जानिए, जुगुलचंद सुकुमार।
तिनकी पद-रज सीस धरि, 'ध्रुव' के यहै अधार॥
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कुँवरि छबीली अमित छवि, छिन-छिन औरै और।
रहि गये चितवत चित्र से, परम रसिक शिरमौर॥
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प्रेम-तृषा की ताप 'ध्रुव', कैसेहुँ कही न जात।
रूप-नीर छिरकत रहैं, तऊँ न नैन अघात॥
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हरिबंस-चरन 'ध्रुव' चितवन, होत जु हिय हुल्लास।
जो रस दुरलभ सबनि कों, सों पैयतु अनयास॥
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जिनके हिय में बसत हैं, राधावल्लभ लाल॥
तिनकी पदरज लेइ 'ध्रुव, पिवत रहौ सब काल॥
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बृंदावन रसरीति रहै बिचारत चित्त 'ध्रुव'।
पनि जैहै वय बीति, भजिये नवलकिसोर दोउ॥
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सुख में सुमिरे नाहिं जो, राधावल्लभलाल।
तब कैसे सुख कहि सकत, चलत प्रान तिहिं काल॥
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जिन नहिं समुझ्यौ प्रेम यह, तिनसों कौन अलाप॥
दादुर हूँ जल में रहैं, जानै न मीन-मिलाप॥
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या रस सों लाग्यो रहै, निसिदिन जाकौ चित्त।
ताकी पद-रज सीस धरि, बंदत रहु 'ध्रुव' नित्त॥
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निसि-बासर मग करतली, लिये काल कर बाहि।
कागद सम भइ आयु तब, छिन-छिन कतरत ताहि॥
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और सकल अघ-मुचन कौ, नाम उपायहिं नीक।
भक्त-द्रोह कौ जतन नहिं, होत बज्र की लीक॥
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भूलिहुँ मन दीजै नहीं, भक्तन निंदा ओर।
होत अधिक अपराध तिहिं, मति जानहु उर थोर॥
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झूलत-झूमत दिन फिरै, घूमत दंपति-रंग।
भाग पाय छिन एक जो, पैहै तिनको संग॥
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मन अभिमान न कीजिए, भक्तन सो होइ भूलि।
स्वपच आदि हूँ होइँ जो, मिलिए तिनसों फूलि॥
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जिहि तन कों सुर आदि सब, बाँछत है दिन आहि।
सो पाये मतिहीन ह्वै, वृथा गँवावत ताहि॥
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हौं तो करि विनती दियो, कंचन काँच बताई।
इनमें जाको मन रुचै, सोई लेहु उठाइ॥
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ब्रजदेवी के प्रेम की, बँधी धुजा अति दूरि।
ब्रह्मादिक बांछत रहैं, तिनके पद की धूरि॥
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निंदा भक्तन की करै, सुनत जौन अघ रासि।
वे तो एकै संग दोउ, बँधत भानु सुत पासि॥
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दंपति-छबि सों मत्त जे, रहत दिनहिं इक रंग॥
हित सों चित चाहत रहौं, निसि-दिन तिनको संग॥
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सकल बयस सतकर्म में, जो पै बितई होइ।
भक्तन कौ अपराध इन, डारत सबको खोइ॥
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रे मन प्रभुता काल की, करहु जतन है ज्यों न।
तू फिरि भजन-कुठार सों, काटत ताहीं क्यों न॥
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दुरलभ मानुष-जनम ह्वै पैयतु केहूँ? भाँति।
सोई देखौ कौन बिधि, बादि भजन बिनु जाति॥
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वह रस तो अति अमल है, रहै बिचारत नित्त।
कहत-सुनत 'ध्रुव' ‘भजन-सत, दृढ़ता ह्वैहैं चित्त॥
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महा मधुर सुकुँवार दोउ, जिनके उर बस आनि।
तिनहूँ ते तिनकी अधिक, निहचै कै 'ध्रुव' जानि॥
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विषई जल में मीन ज्यों, करत कलोल अजान।
नहिं जानत ढिंग काल-बस, रह्यौ ताकि धरि ध्यान॥
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भक्तन देखे अधिक है, आदर कीजै प्रीति।
यह गति जो मन की करै, जाइ सकल जग जीति॥
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ज्यों मृग-मृगियन-जूथ संगफिरत मत्त मन बाँधिरे।
जानत नाहिन पारधी रह्यौ काल सर साधि॥
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सेवा करतहिं भक्तजन, होइ प्राप्त जो आइ।
सो सेवा तजि बेगिहीं, अरजहु तिनकों जाइ॥
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सेवा अरु तीरथ-भ्रमन, फलतेहि कालहि पाइ।
भक्तन-संग छिन एक में, परमभक्ति उपजाइ॥
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पुरुष सोइ जो पुरिष सम, छाँड़ि भजै संसार।
बियन भजन दृढ गहि रहै, तजि कुटुम्ब परिवार॥
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere