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क्या है क़व्वाली वाया सूफ़ी-संगीत का खुलता दरीचा

हिंदुस्तान में क़व्वाली सिर्फ़ संगीत नहीं है। क़व्वाली इंसान के भीतर एक सँकरे मार्ग का निर्माण करती है, जिसमें एक तरफ़ ख़ुद को डालने पर दूसरी तरफ़ ईश्वर मिलता है। क़व्वाली की विविध विधाएँ हिंदुस्तान में प्रचलित रही हैं। ये विधाएँ क़व्वाली के विभिन्न अंग हैं, जो कालांतर में क्रमिक विकास द्वारा स्थापित हुई हैं। 

क़व्वाली की विविध विधाओं पर बहुत कम जानकारियाँ हैं, लेकिन ये विधाएँ आज भी अपनी पूरी धज के साथ ज़िंदा हैं। क़व्वाली के विभिन्न रूप यूँ हैं—

हम्द—हम्द ईश्वर-स्तुति को कहते हैं। क़व्वाली की शुरुआ’त हमेशा हम्द से की जाती है।

बेदम शाह वारसी (1876 – 1936)

कौन सा घर है कि ऐ जाँ नहीं काशाना तिरा और जल्वा-ख़ाना तिरा
मय-कदा तेरा है का’बा तिरा बुत-ख़ाना तिरा सब है जानाना तिरा
तू किसी शक्ल में हो मैं तिरा शैदाई हूँ तेरा सौदाई हूँ
तू अगर शम्अ’ है ऐ दोस्त मैं परवाना तिरा या’नी दीवाना तिरा
मुझ को भी जाम कोई पीर-ए-ख़राबात मिले तेरी ख़ैरात मिले
ता-क़यामत यूँही जारी रहे पैमाना तिरा रहे मय-ख़ाना तिरा
तेरे दरवाज़े पे हाज़िर है तिरे दर का फ़क़ीर ऐ अमीरों के अमीर
मुझ पे भी हो कभी अल्ताफ़-ए-करीमाना तिरा लुत्फ़-ए-शाहाना तिरा
सदक़ः मय-ख़ाने का साक़ी मुझे बे-होशी दे ख़ुद-फ़रामोशी दे
यूँ तो सब कहते हैं ‘बेदम’ तिरा मस्ताना तिरा अब हूँ दीवाना तिरा

ना’त—ना’त हज़रत मुहम्मद (PBUH) की शान में लिखे गए कलाम को कहते हैं। ना’त को हम्द के बा’द पढ़ा जाता है।

सीमाब अकबराबादी (1880-1951)

पयाम लाई है बाद-ए-सबा मदीने से
कि रहमतों की उठी है घटा मदीने से
इलाही कोई तो मिल जाये चारागर ऐसा
हमारे दर्द की लादे दवा मदीने से  
हम उस को मरजा’-ए-मक़सूद-ए-इश्क़ कहते हैं
दिल-ए-हज़ीं कहीं खोया मिला मदीने से

क़ौल—क़व्वाली अ’रबी के ‘क़ौल’ शब्द से आया है, जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘बयान करना’। इसमें हज़रत मुहम्मद (PBUH) की किसी उक्ति को बार-बार पढ़ा जाता है। क़ौल को हम्द, ना’त और मनक़बत के बा’द पढ़ा जाता है।

अमीर ख़ुसरौ (1253 – 1325)

मन कुंतो मौला फ़-हाज़ा अ’लीयुन मौला
दा-रा-दिल-दा-रा-दिल दर-दानी
हम-तुम त-ना-ना-ना ना-ना-रे
यला ली यलाली यलाली-यलाली या ला ली
मन कुंतो मौला फ़-हाज़ा अ’लीयुन मौला

मनक़बत—मनक़बत किसी सूफ़ी-बुज़ुर्ग की शान में लिखी गई शायरी को कहते हैं। हम्द और ना’त के बा’द अक्सर क़व्वाल जिस सूफ़ी-बुज़ुर्ग के उर्स पर क़व्वाली पढ़ते हैं, उनकी शान में मनक़बत पढ़ी जाती है।

मुज़्तर ख़ैराबादी (1856 – 1927)

दिल में भरा हुआ है जोश-ए-वला-ए-वारिस
कोई मकीं नहीं है इस का सिवाए वारिस
क्या जाने क्या कहा था क्या जाने क्या सुना था
कानों में आ रही है अब तक सदा-ए-वारिस
देखूँ तो किस को देखूँ चाहूँ तो किस को चाहूँ
आँखें हैं महव-ए-वारिस दिल मुब्तला-ए-वारिस
‘मुज़्तर’ का ये तड़पना बा’द-ए-फ़ना तो कम हो
तुर्बत पे आ के जम जा ऐ नक़्श-ए-पा-ए-वारिस

रंग—अमीर ख़ुसरो ने रंग को महा-रंग भी कहा है। रंग इंसानी चेतना के महाचेतन और अचेतन के महाचेतन में विलय के उत्सव का प्रतीक है। उ’र्स के दौरान क़व्वाली को हमेशा रंग पर ही ख़त्म किया जाता है।

अमीर ख़ुसरौ

आज रंग है ऐ महा-रंग है री
मेरे महबूब के घर रंग है री
मोहे पीर पायो निजामुद्दीन औलिया
निजामुद्दीन औलिया अलाउद्दीन औलिया
वो तो जहाँ देखो मोरे संग है री
मोहे पीर पायो निजामुद्दीन औलिया
निजामुद्दीन औलिया जग उजियारो
जग उजियारो जगत उजियारो।
अरे वो तो जहाँ देखो मोरे संग है री
आज रंग है ऐ महा-रंग है री

ग़ज़ल—ग़ज़ल उर्दू और फ़ारसी शाइरी की सबसे लोकप्रिय विधा है। सूफ़ियों ने न सिर्फ़ शाइरी की है, बल्कि ज़्यादातर सूफ़ी-बुज़ुर्ग साहिब-ए-दीवान थे। सूफ़ी-ख़ानक़ाहों पर ये ग़ज़लें ख़ूब पढ़ी जाती हैं।

अमीर ख़ुसरौ

ज़े-हाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल दुराय नैनाँ बनाए बतियाँ
कि ताब-ए-हिज्राँ न-दारम ऐ जाँ न लेहू काहे लगाए छतियाँ
~
ब-हक़्क़-ए-आँ-मह कि रोज़-ए-महशर ब-दाद मा रा फ़रेब ‘ख़ुसरव’
सपीत मन के दुराय राखूँ जो जाए पाऊँ पिया की खतियाँ

सेहरा—सेहरा अक्सर फूलों का या सुनहरी तारों का होता है, जो दुल्हे के सर पर बाँधा जाता है। उसकी लटकनें दुल्हे के चेहरे पर लटकती रहती हैं और उन से दुल्हे का चेहरा छुपा होता है। सूफ़ी ख़ानक़ाहों में जब किसी सज्जादानशीन या साहिब-ए-सज्जादा की शादी होती है, तब क़व्वाल सेहरा पढ़ते हैं।

बेदम शाह वारसी (1876 – 1936)

है रुख़ का पहलू-नशीं सेहरा
न हो ये क्यूँ मह-जबीं सेहरा
क़िरान-ए-सा’दैन सामने है
हसीं दूल्हा हसीं सेहरा
जबीं सेहरे को चूमती है
कि चूमता है जबीं सेहरा
हवा से लड़ियाँ लचक रही हैं
नज़र में खप जाए सब की ‘बेदम’
हर इक के हो दिल-नशीं सेहरा

गागर—गागर के रस्म की शुरुआत हज़रत शैख़ हुसामुद्दीन मानिकपुरी की ख़ानक़ाह से मानी जाती है। कहते हैं कि अपने पीर के उर्स पर एक बार वह गागर में पानी भरने गए। साथ-साथ उनके मुरीदों ने भी अपने सर पर गागर उठा ली। सब लोग गागर लेकर चल रहे थे और क़व्वाल कलाम पढ़ रहे थे। यह शैख़ को बड़ा भाया और उस दिन से वहाँ गागर की रस्म चल पड़ी। 

खैराबाद में हज़रत शैख़ सा’दुद्दीन खैराबादी की दरगाह पर भी गागर की रस्म मनाई जाती है, जिसमें क़व्वाल गागर पढ़ते हैं।

शाह मुहम्मद नई’म अता
कोऊ आई सुघर पनिहार
कुआं नाँ उमड़ चला!
के तुम गोरी सांचे की डोरी
के तुम्ही गढ़ा रे सोनार
कुआं नाँ उमड़ चला!
ना हम गोरी सांचे की डोरी
ना हमीं गढ़ा रे सोनार
कुआं नाँ उमड़ चला!
माई बाप ने जनम दियो है
रूप दियो करतार
कुआं नाँ उमड़ चला!
दास नईम दरसन का दासी
बेड़ा लगा दो पार
कुआं नाँ उमड़ चला!

सावन—सावन का महीना आदिकाल से ही कवियों का प्रिय विषय रहा है। महाकवि कालीदास ने तो इस पर महाकाव्य ही रच दिया था। कवि हृदय सूफ़ियों के लिए भी सावन का आगमन ईश्वर कृपा का प्रतीक है। औरतें इस महीने में अपने प्रियतम की याद में विरह के गीत गाती हैं और झूले डालती हैं। इसी को प्रतीक मानकर सूफ़ी अपने गुरु की याद और विरह में गीत, ठुमरी और दादरा लिखते हैं और इन्हें इस्तेलाह में सावन कहते हैं।

नादिम शाह वारसी

नन्हीं नन्हीं बूँदें मेघवा हो
बरसन लागे झर लाई
भर भए झील ताल उँमड चले
नदियन जल ना समाई
उठे लहर मानो परलो
लख लख जीयरा डराई
‘नादिम’ नय्या बिन पीया वारिस
मांझ भंवर परी आई
नन्ही नन्ही बूँदें मेघवा हो

सलाम—यह एक विधा है जिसमें पीर पैग़म्बर और बुज़ुर्गों पर सलाम भेजा जाता है। यह एक दुआ होती है। सलाम का अर्थ सलामती है। सलाम एक दुआ है कि सब सूफ़ी सुख और अमन बाँटें।

शाह वारसी

ऐ मेरे वारिस मेरे आक़ा सलाम
ऐ मेरे मालिक मेरे मौला सलाम
अस्सलाम ऐ मेह्र-ए-इरफ़ाँ अस्सलाम
अस्सलाम ऐ सैय्यद-ए-आ’लम-मक़ाम
अस्सलाम ऐ हक़ के प्यारे अस्सलाम
और मोहम्मद के दुलारे अस्सलाम
अस्सलाम ऐ फ़ातिमा के लाडले
अस्सलाम ऐ राहत-ए-ख़स्ता-दिले
हाल-ए-दिल सुन लीजिए बहर-ए-खु़दा
कीजिए मक़्बूल मेरी इल्तिजा

होली—सूफ़िया के यहाँ ही सुलह-कुली संस्कृति का ताना-बाना बुना गया। हिंदुस्तान में कुछ दरगाहों पर होली का त्यौहार मनाया जाता है। यहाँ हज़रत वारिस पाक की दरगाह का नाम उल्लेखनीय है, जहाँ होली मनाई जाती है। वारसी सूफ़ियों ने होली पर ख़ूब कलाम लिखे हैं।

नादिम शाह वारसी

देखो जे गवय्याँ फागुन की रुत आई
सय्याँ बिन के संग खेलूँ जाई
रंग के राग सखी सब गावें
घर घर धूम मचाई
रच रच चाचर लागन धमारी
धूल दफ़ झाँझा बजाई
वारिस पिया बिन जिया मोरा ‘नादिम’
हुलस हुलस रह जाई

चादर—उर्स के साथ इस रस्म को मनाया जाता है। चादर, आदर और सम्मान की अलामत है। मुरीद चादर के चारों कोनों को पकड़ कर खड़े होते हैं और साथ-साथ बाक़ी मुरीद चलते हैं। चारों कोनों से पकड़कर चादर सर के ऊपर टाँग ली जाती है और साथ-साथ क़व्वाल चादर पढ़ते हैं। उर्स के अलावा बाक़ी दिनों में भी चादर-पोशी के दौरान चादर पढ़ी जाती है।

बेदम शाह वारसी

जनाब-ए-वारिस-ए-आल-ए-अ’बा की चादर है
हुज़ूर-ए-ख़्वाजा-ए-गुल्गूँ-क़बा की चादर है
~
मिलेगा हुस्न का सदक़ा ग़रीब ‘बेदम’ को
जमील-ए-हुस्न-ओ-जमाल-ए-ख़ुदा की चादर है

मुबारक—किसी को ख़िलाफ़त अता होने, बै’त होने या नई ख़ानक़ाह तामीर होने के मौक़े पर क़व्वाल कलाम पढ़ते हैं, जिनके अंत में मुबारक बाशद आता है।

बेदम शाह वारसी

साया-ए-अहमद-ए-मुख़्तार मुबारक बाशद
निस्बत-ए-हैदर-ए-कर्रार मुबारक बाशद
~
आईना-ख़ाना बना सूरत-ए-वारिस ‘बेदम’
लुत्फ़-ए-नज़्ज़ारा-ए-सरकार मुबारक बाशद

गुस्ल—गुस्ल के मौक़े पर मज़ार को गुलाब जल से धोया जाता है और गुस्ल का कलाम पढ़ा जाता है। हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह पर हर साल गुस्ल मनाया जाता है।

वसीम ख़ैराबादी

ग़ुस्ल-ए-मरक़द को मलक लाए मुसफ़्फ़ा पानी
चाहिए चश्मा-ए-जन्नत को अछूता पानी
~
सा’द के दर से मलो दीदा-ए-गिर्याँ को ‘वसीम’
कुछ न वसवास करो पाक है बहता पानी

कमली—हज़रत पैगम्बर मुहम्मद काली कमली ओढ़ते थे। उसी मुनासिबत से कमली की यह रस्म ख़ानक़ाहों पर मनाई जाती है। समाअ से पहले मुरीद कमली को अपने सरों पर तान लेते हैं और क़व्वाल कमली पढ़ते हैं। धीरे-धीरे बढ़ते हुए मुर्शिद को कमली ओढ़ा दी जाती है।

जोड़ा—समाअ से पहले तश्तरी में मुरीद अपने मुर्शिद का जोड़ा लाते हैं। एक तश्तरी में रुमाल, ख़ुशबू, साबुन आदि होते हैं, जिन्हें अपने सर पर रखकर मुरीद खड़े होते हैं। जब क़व्वाल कमली पढ़ते हैं, तब मुरीद बीच-बीच में झूमते हुए अपना हाथ बुलंद करते हैं और फिर मुर्शिद के हुज़ूर जोड़ा पेश किया जाता है। मुर्शिद जोड़े पर एक नज़र डालते हैं और फिर जोड़ा तकसीम कर दिया जाता है। इस रस्म के बाद क़व्वाल जोड़ा पढ़ना बंद करते हैं और आगे कलाम पढ़ते हैं।

संदल—गुस्ल के साथ-साथ संदल की रस्म भी मनाई जाती है, जिसमें मज़ार पर संदल मलते हैं जिसे संदल माली कहते हैं। अवध की दरगाहों में यह रस्म बड़ी प्रचलित है।

दर शा न-ए-मख़्दू म अ’ली फ़क़ीह
धूम से निकला है संदल हज़रत-ए-मख़्दूम का
किस क़दर महका है संदल हज़रत-ए-मख़्दूम का
~
हर गली कूचा महक उट्ठा है संदल के सबब
क्या ही ये महका है संदल हज़रत-ए-मख़्दूम का

फूल—गुलपोशी अर्थात फूल पेश करते समय फूल पढ़ा जाता है।

फ़ना बुलंदशहरी

तुम्हारे दर पे जो बाबा चढ़ाए जाते हैं
वो फूल मक्के मदीने से लाए जाते हैं
फ़क़ीर अपना मुक़द्दर बनाए जाते हैं
दर-ए-फ़रीद पे धूनी रमाए जाते हैं
नि गाह-ए-लुत्फ़ जो बाबा उठाए जाते हैं
हर एक ग़रीब की बिगड़ी बनाए जाते हैं
अ’ता हो सदक़ा ऐ ख़्वाजा पिया ग़रीबों को
सदा एँ माँगने वाले लगाए जाते हैं
सिवाए बाब किसी की तलब नहीं है ‘फ़ना’
हम उन के इ’श्क़ में हस्ती मिटाए जाते हैं

बसंत—बसंत के संबंध में हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया से संबंधित एक क़िस्सा प्रसिद्ध है। हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के प्रिय भाँजे ख़्वाजा तक़ीउद्दीन नूह की मृत्यु कम उम्र में हो गई थी। इससे व्यथित होकर हज़रत अक्सर अपनी ख़ानकाह के पास ही चबूतरा-ए-याराँ में चहलक़दमी किया करते थे। हज़रत के सबसे प्रिय मुरीद अमीर ख़ुसरौ को जब इसका पता चला तो वह हज़रत को ख़ुश करने की जुगत में लगे। 
बसंत पंचमी का दिन था और दिल्ली के लोग नई फ़सल की बालियाँ हाथों में लिए कालकाजी मंदिर में अर्पित करने जा रहे थे। अमीर ख़ुसरौ ने जब उनसे इसका कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि इससे माता प्रसन्न होती हैं। हज़रत अमीर ख़ुसरौ ने भी सरसों की कुछ बालियाँ उठाईं और चबूतरा-ए-याराँ पहुँचे। उन्होंने ये बालियाँ हज़रत के क़दमों पर रख दी। 

हज़रत ने उत्सुक्तावश पूछा—“चीस्त? (यह क्या है)” 
अमीर ख़ुसरौ ने जवाब दिया, “अरब यार तोरी बसंत मनाई”। 

यह सुनकर हज़रत के होंठों पर हँसी तैर गई। उस दिन से ही बसंत का उत्सव हर साल चिश्ती ख़ानक़ाहों में मनाया जाने लगा।

अमीर ख़ुसरौ

सकल बन फूल रही सरसों
बन बन फूल रही सरसों
अम्बवा फूटे टेसू फूले
कोयल बोले डार-डार
और गोरी करत सिंगार
मलनियाँ गढवा ले आईं करसों
सकल बन फूल रही सरसों
तरह तरह के फूल खि लाए
ले गढवा हाथन में आए
निज़ामुद्दीन के दरवज्जे पर
आवन कह गए आ’शिक़ रंग
और बीत गए बरसों
सकल बन फूल रही सरसों

भजन—सूफ़ी-संतों ने भजन भी लिखे हैं जो सूफ़ी ख़ानक़ाहों पर ख़ूब गाए जाते हैं। क़ाज़ी अशरफ़ महमूद द्वारा रचित भजन दर्शनोल्लास को पंडित भीमसेन जोशी जी ने अपनी आवाज़ दी थी जो बड़ा प्रसिद्ध हुआ।

क़ाज़ी अशरफ़ महमूद

ठुमुक ठुमुक पग, कुमुक-कुंजमग
चपल चरण हरि आए।
हो हो, चपल चरण हरि आए।
मेरे प्राण भुलावन आए
मेरे नयन लुभावन आए
निमिक-झिमिक-झिम, निमिक झिमिक-झिम
नर्तन-पद-ब्रज आए
हो हो, नर्तन-पद-ब्रज आए
मेरे प्राण भुलावन आए
मेरे नयन लुभावन आए।

क़व्वाली का सबसे रोचक पक्ष यह है कि हिंदुस्तान में गंगा-जमुनी तहज़ीब की जब नींव डाली जा रही थी, क़व्वाली ने उस काल को भी अपने रस से सींचा है। क़व्वाली ने हिंदुस्तानी साझी संस्कृति को न सिर्फ़ बनते देखा है, बल्कि इस अनोखी संस्कृति के पैरहन में ख़ूबसूरत बेल-बूटे भी लगाए हैं और अपने कालजयी संगीत से इस संस्कृति की नीव भी मज़बूत की है। 

क़व्वालों को यह संस्कृति विरासत में मिली है। क़व्वालों के क़िस्से आज के दौर में इसलिए और भी महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं क्योंकि इन्होंने हमारी इस गंगा-जमुनी तहज़ीब को अपना स्वर दिया है।

सन 1925 ई. में कोलंबो ग्रामोफ़ोन कंपनी ने बंबई में क़व्वाली को रिकॉर्ड करना शुरू किया। इस कंपनी ने एम. बशीर क़व्वाल (हैदराबाद), अब्दुल रहमान काँचवाला, सालेह मुहम्मद, इस्माइल आज़ाद और शहाबुद्दीन हैदराबादी के रिकॉर्ड बनाए। बाद में दूसरे क़व्वालों को भी यहाँ रिकॉर्ड किया गया। आगे चलकर यह कंपनी हिज मास्टर्स वाइस कंपनी में मिल गई।

हिज मास्टर्स वाइस ने बंबई में भी अपनी एक शाखा शुरू की जो सिर्फ़ गुजराती और मराठी गीतों को रिकॉर्ड करती थी। उसके गुजराती संभाग में तबला-नवाज़ उस्ताद क़ासिम अब्दुल्ला काम करते थे, जो आगे चलकर इस के इंचार्ज बन गए। उन्होंने हिंदुस्तान भर के क़व्वालों को ढूँढ़ निकाला और दिल्ली ऑफ़िस को बंबई में क़व्वाली रिकॉर्ड करने पर मजबूर किया। इससे पहले बंबई में उर्दू और हिंदी की रिकॉर्डिंग नहीं होती थी। 

इस बात का कुछ विरोध भी हुआ लेकिन इस विरोध के बावजूद हिज मास्टर्स वाइस की मुंबई शाखा ने सन् 1938 ई. में पहली क़व्वाली रिकॉर्ड की, जिसके फ़नकार बशीर क़व्वाल (पुणे) थे और कलाम कौसर मेरठी का था। जिस के बोल थे—प्यारे अहमद-ए-मुख़तार। 

इस रिकॉर्ड की दूसरी ओर बशीर क़व्वाल द्वारा पढ़ा गया दूसरा कलाम था—तुम बिन कौन संभाले, मोरी नैय्या डगमग डोले। 

इसके बाद अब्दुल रहमान काँचवाला, मुहम्मद सालेह, शैख़ अहमद (पुणे), सैयद जाफ़र क़व्वाल, शैख़ लाल (नागपुर) अजीम प्रेम रागी और इस्माईल आज़ाद की क़व्वालियों का दौर शुरू हुआ जो आगे भी जारी रहा।

इनके बाद तो क़व्वाली के फ़नकारों की जैसे झड़ी लग गई। इनमें कुछ को बड़ी लोकप्रियता हासिल हुई। कुछ नाम हैं—पद्मश्री अज़ीज़ अहमद ख़ान वारसी, अब्दुल रब काविश, शंकर शम्भू, युसूफ़ आज़ाद, जानी बाबू, बंदे हसन, क़लंदर आज़ाद, शफ़ी नियाज़ी, अज़ीज़ नाज़ाँ, छोटे युसूफ़ आज़ाद, शकीला बानो (भोपाल), कामिनी देवी, शकीला बानो (पुणे), रज़िया बानो, शमीम बानो और शाशीदा ख़ातून आदि।

ग्रामोफ़ोन का युग भी बीत गया और आज भी क़व्वाली लोगों के दिलों पर राज कर रही है। हिंदी साहित्य में क़व्वाली को लिखित रूप में सहेजने का प्रयास हिंदी को निश्चय ही समृद्ध करेगा। 

~~~

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