कोटि जनम का पंथ है, पल में पहुँचा जाय

हिंदुस्तान में सूफ़ी-भक्ति आंदोलन एक ऐसी पुरानी तस्वीर लगता है, जिसके टुकड़े-टुकड़े कर विभिन्न दिशाओं में फेंक दिए गए। जिसे जो हिस्सा मिला उसने उसी को सूफ़ी मान लिया। हिंदी, उर्दू, फ़ारसी, पंजाबी, बंगाली, सिंधी और गुजराती साहित्य का एक बड़ा हिस्सा सूफ़ी-संतों को समर्पित है, लेकिन यह साहित्य हमें वह पूरी तस्वीर नहीं दिखाता है और यही कारण है कि यह ख़ूबसूरत परंपरा एक रहस्य बन कर रह गई है। 

सूफ़ीवाद को तसव्वुफ़ भी कहते हैं और इस पर चलने वालों को अह्ल-ए-तरीक़त। ‘सूफ़ी’ शब्द कहाँ से आया, इस पर लंबी चर्चाएँ हो चुकी हैं। साथ ही इतना कुछ लिखा जा चुका है कि कुछ नया लिखना उन्हीं बातों का दोहराव करना होगा। 

हम आज ‘तरीक़त’ शब्द पर अपनी चर्चा को केंद्रित करते हैं—जिसका शाब्दिक अर्थ होता है ‘राह’। इस पथ के पथिकों की चर्चा करने से पहले, यह पथ क्या है? यह समझना ज़रूरी है। इस चर्चा में सूफ़ी-संतों को लेकर जो भ्रांतियाँ हैं, वह भी साथ-साथ दूर होती रहेंगी।

हर मज़हब एक घर की तरह होता है। जब घर के बुज़ुर्गों को यह लगता है कि भविष्य में यह परिवार और बड़ा होगा, तब घर में संभावनाएँ छोड़ी जाती हैं। घर के सामने ख़ाली जगह छोड़ी जाती है। सीढ़ियों के लिए जगह की व्यवस्था की जाती है। हर मज़हब में इसी प्रकार संभावनाएँ छोड़ी गई हैं। इस्लाम में ‘रब्बुल आलमीन’ और हिंदू धर्म में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ इन्हीं संभावनाओं का विस्तार है।

जब घर का निर्माण पूरा हो जाता है, तब घर के बाहर आने-जाने के लिए रास्ते बनाए जाते हैं। इस तरह कई छोटी पगडंडियाँ जाकर एक बड़ी राह में मिल जाती हैं।

~ रास्ते पर चलने के लिए घर का परित्याग करना आवश्यक है। घर आप को संस्कार देता है और यात्रा आपको स्वयं से मिलने का अवसर देती है। 

~ रास्ता उनका होता है जो उस पर चलते हैं।

~ रास्ते में घर के नियम नहीं चलते। घर में आप आराम कर सकते हैं लेकिन रास्ते में आराम निषेध है।

“जाग पियारी अब का सोवै
रैन गई दिन काहे को खोवै”

~ घर का उत्तराधिकारी घर का ही व्यक्ति होता है, लेकिन रास्ते में आप का उत्तराधिकारी वह होता है, जो आप की यात्रा को आगे ज़ारी रख सके।

~ घर के त्यौहार में परिवार के लोग शामिल होते हैं। जबकि यात्रा के उत्सव में यात्री शामिल होते हैं। 

~ एक मंज़िल की यात्रा करने वाले सारे यात्री भाई होते हैं।

~ यात्रा का साहित्य भी चेतावनियों से भरा होता है। आपको झपकी लगी नहीं और आपके लुट जाने की पूरी संभावना है। यात्रा के साहित्य में ख़ुशी का आवेग भी होता है और मंज़िल से दूर होने का ग़म भी होता है।

~ यात्रियों की कहानियाँ ज़्यादातर वही लोग बताते हैं, जो इस यात्रा को बीच में छोड़ आए हैं। जिसे मंज़िल मिल गई, वह वापस नहीं आता।

“भीका बात अगम की कहन सुनन की नाहि 
जो जाने सो कहे नहीं, जो कहे सो जाने नाहि”

~ यात्रा के दौरान जगह-जगह विश्राम गृह भी होते हैं। यहाँ आने वाले यात्री सफ़र की कहानियों को लेकर उत्सुक होते हैं। उन्हें घर की कहानियों में कोई दिलचस्पी नहीं होती।

~ यात्रा के दौरान लूट-मार करने वाले यात्री नहीं होते।

~ घर की तस्वीर बन सकती है, लेकिन रास्ते की तस्वीर बनाना मुश्किल है।

~ यात्रा इतिहास की तरह है, इसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता, लेकिन दोबारा जीया जा सकता है।

~ यात्रा में मार्गदर्शक का होना ज़रूरी है।

यात्रा की यह बातें छोटी-बड़ी यात्रा से लेकर आध्यात्मिक यात्रा तक पर लागू होती हैं। जब आप की मंज़िल ईश्वर हो और जब यात्रा ज़ाहिरी न होकर बातिनी हो, तब इस यात्रा का स्वरूप और भी जटिल एवं व्यापक हो जाता है।

“कोटि जनम का पंथ है
पल में पहुँचा जाय!”

तसव्वुफ़ की यह यात्रा हज़ार वर्षों से लगातार चलती आ रही है। यह राह हज़ारों महान पथिकों की साक्षी रही है। उनकी जीवन यात्रा और उनके द्वारा रचित साहित्य को पढ़ कर, हमें पता चलता है कि यह यात्रा अब एक विषय बन चुकी है, जिसका अपना गौरवशाली इतिहास है, अपना समृद्ध साहित्य है, कलाएँ हैं, रसूमात हैं, संगीत और दर्शन है। यह मार्ग आज भी पथिकों से गुलज़ार है।

सूफ़ी परंपरा के इस विशाल कैनवास को एक लेख में समेटना तो मुश्किल है, लेकिन कुछ ज़रूरी तथ्यों पर बात करना ज़रूरी है—

असली और नकली सूफ़ी की पहचान :

सूफ़ी साहित्य का एक बड़ा हिस्सा (मल्फूज़ात और मकतूबात) असली और नकली सूफ़ियों की पहचान पर ज़ोर देता है। भारतीय उपमहाद्वीप में तसव्वुफ़ की पहली किताब ‘कश्फ़-उल-महज़ूब’ (नकली सूफ़ी उस समय भी होते थे। कुछ लोगों ने तो दाता साहब की किताब अपने नाम से लिखवाकर बाँट दी थी।) में हज़रत दाता गंज बख़्श फ़रमाते हैं कि अह्ल-ए-तसव्वुफ़ की तीन क़िस्में हैं—

पहली 

सूफ़ी, जो अपनी ज़ात को फ़ना कर के ख़ुदा की ज़ात में बक़ा हासिल करता है और अपनी तबीअ’त से आज़ाद होकर हक़ीक़त की तरफ़ मुतवज्जिह होता है।

दूसरी

मुतसव्विफ़ जो सूफ़ी के दर्जा को मुजाहदा से तलाश करता है और उस तलाश में अपनी ज़ात की इस्लाह करता है।

तीन

मुस्तस्व्विफ़ जो महज़ माल-ओ-दौलत और ऐश-ओ-इशरत के लिए अपने को मिस्ल-ए-सूफ़ी के बना लेता है।

हज़रत नसीरुद्दीन चिराग़ दिल्ली फ़रमाते हैं—
एक सूफ़ी के लिए दो शब्द गालियों के समान हैं—ग़ैर मुक़ल्लिद और ज़ुर्त।

ग़ैर मुक़ल्लिद, वह सूफ़ी है जिसका कोई मुर्शिद न हो। ज़ुर्त वह सूफ़ी है जो ख़िर्का और कुलाह पहनकर लोगों से धन की याचना करता है।

शेख़ नसीरुद्दीन हामिद क़लंदर को एक कहानी द्वारा यह समझाते हैं—बहुत पहले एक न्यायप्रिय बादशाह था। उसने यह नियम बनाया कि जब वह दरबार में बैठता है तो प्रजा में से कोई भी उससे बिना रोक-टोक आकर मिल सकता है। याचक अपनी अर्ज़ी लेकर आते थे और हाजिब को दे देते थे। हाजिब वह अर्ज़ियाँ बादशाह के समक्ष रखता था। महल के मुख्यद्वार पर दरबान खड़े होते थे, लेकिन वह किसी को अंदर जाने से नहीं रोकते थे। 

एक दिन दरवेशों का ख़िर्का पहने एक फ़क़ीर आया और महल में अंदर जाने लगा।

“वापस जाओ!” दरबान उसे रोकता हुआ चिल्लाया।
दरवेश भौचक्का रह गया। उसने दरबान से पूछा—“ख़्वाजा! यह इस दरबार कि प्रथा है कि किसी को भी अंदर जाने से रोका नहीं जाता है। फिर तुम मुझे क्यों रोक रहे हो! क्या यह मेरे मैले परिधान कि वजह से है?”
“जी हाँ!” दरबान से जवाब दिया। 
“बिलकुल यही वजह है। तुमने सूफ़ियों का लिबास पहन रखा है और इस पोशाक को पहनने वाले राज दरबार में याचना करने नहीं आते। वापस जाओ और अपनी दरवेशी पोशाक उतरकर सांसारिक व्यक्ति के लिबास में आओ। तब मैं तुम्हें भीतर जाने दूँगा! इस पोशाक का सम्मान मुझे तुम्हें अंदर जाने देने से रोक रहा है।”

दरवेश ने अपनी याचिका वापस ले ली और कहा—“मैं अपना ख़िर्का नहीं उतारूँगा।” यह कहकर वह वापस चला गया।

(यात्री वही है जिसे बस मंज़िल की सुध हो! घर से बाहर निकलने वाला हर इंसान यात्री नहीं होता। इस राह का यात्री तो बिल्कुल नहीं।)

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