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सीधे कहानी में ले जाने वाली कहानियाँ

दामोदर मावज़ो ज्ञानपीठ और साहित्य अकादेमी—भारतीय साहित्य के दोनों बड़े सम्मानों से सम्मानित कथाकार हैं। देश में गिनती के लेखक-कथाकार ही इस तरह अलंकृत हुए होंगे। वह गोवा में पैदा हुए और कोंकणी में लिखते हैं। उनके प्रस्तुत कहानी-संग्रह का हिंदी अनुवाद गोवा के एक महाविद्यालय के हिंदी विभाग में अध्यापन कर रहीं रमिता गुरव ने किया है।

दामोदर मावज़ो की कहानियों में जड़ाऊ किस्म के दार्शनिक संलाप नहीं होते। जैसे हिंदी में प्रेमचंद की कहानियों में सहजता एक अनिवार्य गुण है, वैसे ही दामोदर की कहानियों में कहीं भी चर्बी नहीं दिखती और न ही होता है वीएफ़एक्स जनित कृत्रिम आकर्षण। यानी एकदम नपा-तुला ढाँचा, नपी-तुली बातें, नपे-तुले पात्र। 

कहानियों की आम कमज़ोरी की बात की जाए तो उनके बोझिल विवरणों, अमूर्तनों, शुरुआत की तलाश भटक चुकी शुरुआतों की तरफ़ ही सबसे पहले उँगली उठती है। सरोकार और मुद्दे तो बाद में आते हैं। इस कसौटी पर देखें तो ‘मन्नत और अन्य कहानियाँ’ संग्रह एकदम सफल सिद्ध होता है। इस संकलन की कहानियों में पाठक शीर्षक के बाद ही सीधा कहानी में होता है, न कि बेवजह की सूनी सड़कों, फ़ालतू ही रेल में पड़े मूँगफली के छिलकों आदि के विवरणों में।

इसी संकलन में ‘बर्गर’ जैसी एक कहानी भी है जिसमें बीफ़ जैसे संवेदनशील मुद्दे पर एक क्रिश्चियन बच्ची की कश्मकश सामने आती है कि उसने अनजाने में अपनी हिंदू सहेली का धर्म भ्रष्ट कर दिया। यह कहानी राजनीति की लीद उठाने के बजाय इस मुद्दे को सामजिक-नैतिक संवेदना के आलोक में देखती है और अंततः एक सुंदर और मानवीय परिणति तक पहुँचती है। यानी कोई शोर नहीं, कोई नारेबाज़ी नहीं, कोई सतहबयानी नहीं।

‘जेंटलमैन चोर’ नाम से एक दिलचस्प कथा-फैंटेसी भी है और ‘जूते के फ़ीते बाँधे ही नहीं’ जैसी कहानी भी जिसमें लेखक के द्वारा लेखन प्रक्रिया पर की गई टिप्पणी भी है और मानवीय मस्तिष्क के अंतर्जालों को खोलने की कोशिश भी।

इन कहानियों में गोवा के ईसाई समाज के रीति-रिवाज और मान्यताएँ बहुत प्रमुखता से आती हैं, लेकिन इनके बीच मनुष्य का संघर्ष, उसकी लुका-छिपी, उसकी मजबूरियाँ बिल्कुल वैसी ही हैं जैसे हिंदी समाज के आम मनुष्यों के जीवन में होती हैं। इससे मनुष्यता की ख़ुशियों, आकांक्षाओं और हताशाओं में उपस्थित बुनियादी साम्य और लेखक के सार्वभौम हो जाने की साध्यावस्था का पता चलता है।

यहाँ कृषक जीवन की दो कहानियों ‘गणपति की कृपा’ और ‘कोंयसांव के गोरू’ पर प्रमुखता से चर्चा करना अति आवश्यक है। ‘गणपति की कृपा’ कृषक जीवन की उस आम विपन्नता की कथा है जिसके लिए उत्सव या त्योहार असमंजस ले लेकर आते हैं, और वह ग़रीबी से जूझते हुए ही ईश्वर और अलौकिकता की परिभाषाएँ भी बनाता है। विडंबना इस कहानी में इतनी है कि कहानी के प्रमुख पात्र शंकर के अभाव का पड़ोसी की मृत्यु के सूतक से ऐसा संबंध बनता है कि उसे राहत मिल जाती है।

जबकि ‘कोंयसांव के गोरू’ में पशुपालक कृषक का उसके पालतू पशुओं के प्रति प्रेम और उनकी उपादेयता के बीच जो विडंबना सामने आती वह हिंदी भाषी इलाक़े के ग्रामीण-कृषक जीवन के बारे में भी सत्य है। कोंयसांव घर-मालकिन है और अपने गोरुओं को बहुत प्यार करती है उनके सारे हाव-भाव समझती है, उनकी भूख-प्यास सब समझती है। लेकिन जब बात आती है कि फ़सल बोई जाने और घर चलने के लिए गोरुओं का बेचा जाना ज़रूरी है तो वह ऊपर के मन से ही सही, लेकिन मुखर होकर अपने पति से कहती है कि इन्हें बेच आओ। उसके लिए यह क्षण बहुत कष्टकारी होता है और कई बार वह यह भी कामना करती है कि जानवर बिना बिके ही लौट आएँ। वह सोचती है, “पेट से जने बच्चों की तरह प्यार से बड़े किए हुए ये दो मूक पशु! पेट के लिए ही बेचने पड़ेंगे!”  इस बाबत वह कई बार ख़ुद को और अपने पति को भी गाली देती है, लेकिन जब वे जानवर बिना बिके लौट आते आते हैं तो उसे इस बात का भी कष्ट होता है कि अब आगे क्या होगा! घर कैसे चलेगा!

साहित्य के सरोकारों पर होने वाली चर्चा साहित्य सृजन जितनी ही महत्त्वपूर्ण है। मनुष्य की चेतना उसे उन सूक्ष्मताओं के संचय की ओर बढ़ाती है जिससे उसके जीवन की आंतरिक जटिलताएँ निर्मित होती हैं। साहित्य का काम उन जटिलताओं को न सिर्फ़ सूत्रबद्ध करना है, बल्कि उनमें उपस्थित सामान्यताओं से पाठक को परिचित कराना है और इस तरह जीवन को थोड़ा अधिक सहनीय बनाना है। 

यहाँ पर ‘तेरेझा का मर्द’ जैसी कहानी भी है जिसमें एक आधुनिक जोड़े के रोज़मर्रा के जीवन में पनपने वाले मुग़ालते, झगड़े, उम्मीदें और आरोप हैं, लेकिन उनके बीच दूसरा दिन फिर एक नया दिन होता है; यानी रोज़मर्रापन का ऐसा स्वीकार जिसमें जीवन के सारे राग-रंग हैं। विकसित होते समाज और वैयक्तिकताओं के बीच होने वाली रगड़ के बीच इस तरह के स्वीकार का आज नितांत अभाव हो गया है। 

इस संकलन में कुल चौदह कहानियाँ हैं, लेकिन इस संकलन की शीर्षक कहानी ‘मन्नत’ को पढ़कर पाठक ‘मालगुडी डेज’ की कहानियों के उन पात्रों को ज़रूर याद करेंगे जो छोटे-छोटे रागों-अनुरागों से भरकर कितने ज़िम्मेदाराना और मार्मिक हो उठते थे। यहाँ एक ऐसे बूढ़े की कथा है जिसका बेटा किशोरावस्था में ही खो गया था और वह आज भी उसका इंतज़ार करता है और ईश्वर से मन्नतें माँगता है। भ्रम में वह कई बार पादरी को भी अपना बेटा बोल देता है। यहाँ पादरी की मुद्रा कुछ ऐसी है कि इसे पढ़ते हुए उसका चेहरा ‘मालगुडी डेज’ के पोस्टमैन के रूप में ही उभरकर आता है।

हमें यह संकलन हिंदी में प्राप्त है, जबकि मूलतः यह कोंकणी में लिखा है; अतः अनुवाद की भाषा पर ध्यान जाना स्वाभाविक है। रमिता गुरव ने इसका अनुवाद इस तरह संभव किया है कि एक भी दृश्य अस्वाभाविक नहीं है और न ही यहाँ दुर्गम वाक्य-संरचना है। इन कहानियों को पढ़ते हुए यह एहसास भी नहीं हुआ कि यह मूलतः हिंदी में संभव हुई रचनाएँ नहीं हैं।

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